Homeकला-संस्कृतिकहानीः भड़भूँजा

कहानीः भड़भूँजा

युवा कहानीकार उज़्मा कलाम की अभी कुछ ही कहानियां प्रकाशित हुई हैं, पर इन कहानियों के माध्यम से वो अपनी अलग पहचान बना सकने में सक्षम हैं। बतौर एक कहानीकार भी वे सामाजिक कार्यकर्ता की तरह अपनी कहानियों को बरतती और इन्हें जिंदगी के बरक्स रखकर देखती हैं। अपनी कहानियों को जबरन कोई मोड़ या सुखद-दुखद परिणति देना उनके कहानीकार को नापसंद है। स्त्री जीवन के तमाम देखे-अदेखे पक्ष उनकी कहानियों में देखे जा सकते हैं। तो आज हम पढ़ते हैं उनकी नयी कहानी ‘भड़भूँजा’।

गर्मी हो या सर्दी, यहाँ दिन और रात के तापमान में अच्छा ख़ासा फ़र्क़ होता है। बमुश्क़िल सर्दी के कुछ दिन यहाँ की धरती सूरज के दर्शन नहीं करती। बाकि सब दिनों में सूरज की पहली किरण यहीं चमकती है। दो दिन बाद नया साल शुरू होने वाला है और कोहरे की सफ़ेद चादर तनी है। क्वॉर्टर के गेट से नीम का पेड़ धुंधला सा दिख रहा है। यह पेड़ सौ साल या उससे ज़्यादा पुराना है, उसकी अंदाज़न उम्र लिखा हुआ एक छोटा सा टिन का टुकड़ा उस पर ठुका है। यहाँ पेड़ो की तादाद अच्छी है, करंज, खेजड़ी, कुमट, जाल, बबूल, जगह-जगह देसी बेर और आंवला। मरुभूमि में कहीं-कहीं पानी है और ज़्यादातर खारा। ज़मीन के किसी टुकड़े से मीठा पानी मिलना ख़ुदा का करिश्मा होता। यह इलाका देश के दूसरे तरक़्क़ी याफ्ता इलाको से काफ़ी पीछे है। यह कृषि विज्ञान केंद्र पुराना है, बिल्कुल अपने शुरुवाती दौर का, जब भारत में यह संस्था उजागर हुई होगी। यहाँ खेती बारिश को तकती है और बारिश अपने पूरे भाव दिखाकर, धरती के तप जाने के बाद बड़ी मुश्किल से बरसती है।

हीरा को नीम के पेड़ से ख़ासा लगाव था क्यूंकि वह जहाँ से आयी थी, वहां के धूम धड़क्के और हल-चल से भरे मोहल्ले में बस एक पेड़ बचा था और वह भी नीम का। बाकि कुदरती खूबसूरती तरक़्क़ी की भेंट चढ़ चुकी थी। लेकिन इस मरुभूमि पर एक अजीब सा सूनापन लिए क़ुदरत मौजूद है। सामने खड़े नीम के पेड़ पर तोते के झुण्ड के झुण्ड वास करते है। शाम के वक़्त जब यह अपने घरौंदो में लौटते है तब सुनसान पड़ा बाउंड्री वाल के अंदर का इलाका उनकी टे..टे.. की आवाज़ से गूँज जाता। मालूम होता कि इस ज़मीन पर भी ज़िन्दगी है। इस गिरते तापमान और कोहरे की चादर में उनकी आवाज़ कहीं खो गयी थी। कई बार हीरा का मन हुआ कि पेड़ के तने को पकड़ कर ज़ोर से हिलाये या कोई पत्थर पेड़ पर फेके ताकि तोतो की आवाज़ कानो मे भर सके।

क्वॉर्टर की दीवारें और छतें सख़्त पत्थरो से चिनी हुई है। चारो तरफ़ एक सा पीला रंग इन पत्थरो पे चढ़ा है। बाउंड्री वॉल के अंदर तीन क्वॉर्टर है। एक मैनेजर का, दो असिस्टेंट पोस्ट का। एक कच्चा झोपड़ा चपरासी के लिए। जो वहां रहते नहीं, दिन की ड्यूटी के लिए अलग और रात की ड्यूटी के लिए अलग व्यक्ति पास के किसी गांव से आते है। दोनों क्वार्टर में रहने वाले स्टाफ़ छुट्टी के दिन अपने परिवारों के पास जयपुर चले जाते है। बस हीरा शादी करके शशिधर के साथ उसकी पहली पोस्टिंग की जगह आ गयी थी। उसने अपनी प्राइवेट नौकरी छोड़ी थी और यहाँ विकल्प नहीं थे।

ख़ुश्क इलाके की खेती में सुधार के लिए सरकार कुछ जागी थी। तरह-तरह की वर्कशॉप और ट्रेनिंग का ज़ोर था। शशिधर हर ट्रेनिंग और वर्कशॉप का हिस्सा बनने को तैयार रहता और महीने- दो-महीने में दस-पंद्रह दिन किसी न किसी बड़े शहर में गुज़ारता। हीरा के आस-पास उसकी नस्ल के लोगो की बेहद कमी थी। सड़क की तरफ़ से गुज़रते कुछ लोग दिखते, पर राब्ते की कोई गुंजाईश हो भी नहीं सकती। एक ग्वालिन दूध लेकर पास के गांव से आती और पानी वाला इस इलाके से लगती हुई तहसील से मीठे पानी का जार पहुंचाता। इन दोनों को हीरा ने दो दिन पहले आने से मना किया था क्यूंकि उस अकेली के लिए बहुत पानी और दूध घर में था। दो बोल का यह सिरा भी टूट गया था।

कई दिन ऐसे ही सुनसान गुज़र गए। आज उसकी बेचैनी हद से ज़्यादा बढ़ गयी। वह सुबह से शाम तक आठ-दस कप चाय पी चुकी थी। उसकी आंखें पहले सूरज और फिर चाँद को अकेले खोजते हुए थक गयी। दिन कट गया, पर ढलती शाम में वह कहीं खोने लगी। एक गहरी खोह थी जिसमे वह धंसने लगी। झिंगुरों की आवाज़ उसके सिर में घुसकर सुईं चुभोने लगी। उसकी आँखों के आगे काले-काले धब्बे तैरने लगे। दाँत एक दूसरे में भिंचने लगे। होंठ आपस में चिपक गए। वह घबराकर डूबते हाथ-पैर को झटककर आनन-फ़ानन में उठी। शॉल लपेटा, घर की चार दीवारी को धुत्कार के बाउंड्री का मेन गेट पार करती हुई सड़क पर आ गयी। चपरासी हमेशा की तरह गेट पर नहीं था शायद झोपड़ी में या फ़ार्म पर चक्कर काटने गया हो।

घड़ी ने मुश्किल से सात ही बजाये होंगे लेकिन फ़िज़ा में गहरी स्याही फैल चुकी थी। तापमान दिन के मुक़ाबले कुछ डिग्री और नीचे गिरा था।हवा सरसरा रही थी। उसके क़दम आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ते रहे। दक्षिण-पश्चिम की ओर से चलने वाली हवा के विपरीत दिशा में चलते हुए हवा के झोंके उसके चेहरे को ठंडा कर रहे थे। मद्धम हवा में सड़क के किनारे लगे मरुभूमि के पेड़ो से नमी की बूंदे झर रहीं थी। बूंदो का झरना, हवा की गुनगुनाहट और पेड़ो की सरसराहट..सब अपनी बोली मे एक दूसरे से कुछ कह रहे थे। इस बियाबान में फ़ितरती हलचल थी।

2

घर से निकलकर कदमो की रविश ने जिस्म में कुछ गर्माहट जगाई। दूर तक घुमावदार पतली सड़क उसके सामने थी। जिस पर वह बेमक़सद और बेवजह क़रीब एक-डेढ़ किलोमीटर चल चुकी थी। यह सिंगल सड़क आगे जाकर गुजरात के कच्छ जाने वाले हाइवे से जुड़ती थी। वैसे इस पर गाड़ियों का आना जाना कम था क्यूंकि आगे जाकर सड़क टूटी पड़ी थी। फिर भी कभी-कभी गूगल मैप के सहारे शार्ट रास्ते की तलाश करते राहगीरों की कुछ गाड़ियां इधर से निकलती। यह इलाका बेहद पुरसुकून था। उसका दिल और दिमाग़ इस हद से ज़्यादा सुक़ून को ढो रहा था।

इक्का-दुक्का गाड़ियों की लाइट्स दूर से टिमटिमाती दिख रही थी। साथ ही काफ़ी देर से दूसरी तरफ़ बायीं ओर ज़मीन से क़रीब तीन फ़ीट ऊपर कुछ चिंगारियां सी नज़र आ रही थी। हीरा आगे बढ रही थी और वह चिंगारियां उसकी तरफ़। भुँजी मूंगफली और मक्के के दानो की ख़ुश्बू जो कुछ देर से आहिस्ता-आहिस्ता उस तक पहुँच रही थी अब तेज़ होने लगी। यह एक भड़भूँजे वाला ठेला था, जिस पर अंगीठी जल रही थी। कुछ ही देर में ठेला और वह आमने-सामने आ गये। ठेला कच्ची मूंगफ़ली और मक्के के दानो से भरा था मानो सुबह से कुछ ख़ास बिक्री ना हुई हो। अधेड़ उम्र का भड़भूँजा ठेले को ठेलते हुए धीमे-धीमे आगे बढता रहा। उसने कुर्ते और पायजामे पर एक बदरंग सी जैकेट पहनी थी। जिसका बदरंगापन अँधेरे में कुछ छुप सा गया था। सुलगती हुई अंगीठी से उठने वाली रौशनी उसके चेहरे पर पड़ रही थी। जब उसकी नज़र हीरा से मिली तब वह ठेला रोक उसे देखकर मुस्कुराया। उसकी आँखों के नीचे काले गढ्ढे और माथे पर सिलवटें थी।

“क्या चाहि बहन” हीरा कुछ सेकेण्ड तक भड़भूँजे वाले का चेहरा देखती रही फिर भुँजे मक्के के पैकेट की तरफ़ इशारा किया।

“इह तो ठंडाई गया। ताज़ा भूँजे देता हूँ।” कार्ड बोर्ड की तख्ती लेकर वह अलाव पर झलने लगा। ठेले के नीचे लटके थैले में से दोनों हाथ भरकर कोयले निकाले और ठेले पर बंधी अंगीठी में डाल दिए। “इतने जाड़े में कोयले नमिया जाते, जल्दी आग नहीं पकड़त” वह हीरा से मुख़ातिब था। “आज बिक्री न हुई। लोग घर से निकल ही न रहें। इंहा के लोग भी ना, गर्मी झेलने के आदी है। ज़रा सी सर्दी पड़े तो टोपा-मोजा पहनकर घर ही बैठ जाते। इतना जाड़ा तो हमाई तरफ़ कुछ माना न जाता। सुबह से चुप्पी साधे, ठेला ठेल रहें एक सब्द ना फूटा मुँह से, हमाई तो जुबान तालू में चिपक गयी।“

“कहाँ के हो”

“मुग़लसराय, उत्तरप्रदेश। हम तो मुग़लसराय ही कहेंगे। पुश्तो से रह रहे उंहां। लोग उहि अहसास, रहन-सहन उहि। अब का नाम बदलने से दुनिया बदल जाई।” हीरा मुस्कुरा दी। उसके चेहरे पर भी कोई अहसास कई दिन बाद छलका था।

“यहाँ..यही काम करते हो” वह हाथ से ठेले की तरफ़ इशारा करते हुए बोली।

“हाँ बहन..अक्टूबर से फ़रवरी तक यहीं करते, फिर गाँव लौटकर खेत कर लेते।”

हीरा के हर सवाल पर वह लम्बी चौड़ी दास्तां सुनाता। भड़भूँजे वाले के पास जो थोड़ा खेत था, वह दो लड़कियों की शादी में बिक चुका था। रबी और खरीफ़ की फ़सल में वह मज़दूरी कर लेता। छोटे-छोटे सवाल से उसे अंदाज़ा हो गया कि हीरा भी उसी के राज्य की है। जैसे ही इस बात कि तस्दीक़ हुई। अगला सवाल “कऊन सा जिला?

“लखनऊ”

ज़ुबान को तालू ने आज़ाद छोड़ दिया था। हाथ करछुल पकड़े लगातार कड़ाही में चल रहा था। मक्के फुदक रहे थे। “बहुत लड़के इंहा काम करने आते है तुम्हारे जिले के पास हरदोई, बाराबंकी के” अचानक आवाज़ की रविश कुछ धीमी हुई, “अब रोज़गार जहाँ ले जाए। ऐसे काम पे निकलो, तो दुनिया के लोगो से बोल बतिया लो। लेकिन अइसा मौसम है कि कोई बोलने-चालने वाला न मिला” बोलते बतियाते गांव उसकी आँखों के सामने तैर गया। मक्का लिफ़ाफ़े में करके हीरा के हाथ में थमाया और ना जाने गांव की सर्दियों के कितने ही किस्से उसे सुनाता रहा। वह कोयले को करछुल से ऊपर नीचे करते हुए, कार्ड बोर्ड की तख्ती से अलाव पर हवा करता जाता, “नमी की वजह से कोयले भभक नहीं रहे।”

हीरा उसे सुनते हुए फिर एक सवाल कर बैठी, “आज आराम करते, क्यों फेरी लगा रहे हो, जब सन्नाटा है।” जवाब लपक कर आया, “अकेले कमरे पर बैठना तो बड़ी सजा है। दीवारें खाने दौड़ती है।” हीरा का दिल धक् से हो गया, और उसने एक लम्बी सांस खींची।

भड़भूँजे वाले ने अपनी दिनचर्या बता दी थी कि वह सुबह नौ बजे कमरे से निकलता और रात नौ-दस बजे पहुँचता। उसे बाहर ही ठीक लगता। इस सन्नाटे में हीरा से मिलकर उसके चेहरे पर ख़ुशी छलक रहीं थी। हीरा की सांसे भी एक लय में आ गयी, अंदर कुछ थमता और ठहरता मालूम पड़ रहा था।

मक्के के कुछ और दाने कड़ाही में पड़ कर चटकने लगे। “अरे बस करो, जब कोई खरीदने वाला नहीं तो इतने सेंक के क्या करोगे?”

“हम दोनों खा लेंगे” जवाब फ़ौरन आया।

सोमवार को वह काम से छुट्टी रखता, कपड़े धोता, कमरा साफ़ करता, पास ही भोलेनाथ के मंदिर में पूजा करने जाता। अच्छा खाना पकाता, जी भर खाता। वह धीमी आवाज़ में क़रीब आकर बोला, “तुम्हे पता है? इंहा के लोग खाना बनाने में बिल्कुल खोटे है।”

“वह कैसे?”

सवाल का जवाब दिए बग़ैर वह थोड़ी मूंगफ़ली कड़ाही में डालते हुए “यह भी खाना बहुत अच्छी किस्म की मूंगफ़ली है।” हीरा मना करती लेकिन वह उसे अनसुना करके करछुल से मूंगफ़ली ऊपर नीचे चलाने लगा। ठेला सड़क के किनारे खड़ा था। भड़भूँजे वाला कड़ाही की तरफ़ मुँह किये और हीरा उससे ठीक नब्बे डिग्री का कोण बनाकर दूसरे सिरे पर खड़ी थी। नब्बे डिग्री कोण के बीच अंगीठी और उसके ऊपर कड़ाही थी। कड़ाही के अंदर गरम रेत में मूंगफ़ली भुंज रही थी। बीच में कोयले के चटखने की आवाज़ आ रही थी और मूंगफ़ली भी चुड़-मुड़ा रही थी। इस मीठे संगीत की धुन में दोनों की बाते लय पकड़े थी।

ठेले के नीचे लटके झोले से दो मुट्ठी कोयले निकालकर अंगीठी में डाले। हीरा ने मूंगफ़ली ज़्यादा भूंजने से रोकना चाहा और कोयले डालने से मना किया। उसने हीरा को अंगीठी के पास खड़े होने का हाथो से इशारा करते हुए, “जाड़ा बहुत है, गर्माहट बनी रहेगी।”

अब धुंध की मोटी चादर इस पहर में भी कहीं-कहीं फटने लगी। सड़क के किनारे लगे लैम्पोस्ट से गिरती रौशनी थोड़ी-थोड़ी दूर पर धुंध को चीर रही थी। चेहरो पर मुस्कान और जिस्म में गर्माहट फैल गयी। हीरा मक्के खाकर ख़त्म कर चुकी थी। गाँव के बारे में उसने सब बता दिया और फिर मारवाड़ लौट आया।

एक टूटा हुआ जुमला याद आया और वह फिर पीछे गया, “अरे बहनजी तुम्हे पता है, इंहा पापड़ की सब्जी बना लेते है…!! कभी खाली मिर्ची की, तो कभी सिर्फ प्याज की।”

हीरा मुस्कुरायी। “और तो और….! कढ़ी बनाएंगे तो ऊहमें उबले चने डाल देंगे, हद है। हम लोग पहले पकौड़े तलते। बेसन और मट्ठा उबालकर, पकौड़े डालते है, तब जीरा, खड़ी लालमिर्च और हींग से छौंकते है।”

खाना पकाने के तौर तरीको के बारे में सुनते हुए हीरा की भूख तेज़ हो गयी। दो दिन चाय, कॉफ़ी, पानी और बिस्किट्स पर गुज़र गए थे। वह मुँह में आये पानी को ठेले पर से उठाकर एक कच्ची मूँगफली खाकर अंदर करते हुए बोली, “चने वाली कढ़ी भी अच्छी लगती है।” उसने नहीं माना और इस बात पर ज़ोर दिया कि जो बात पकौड़े वाली कढ़ी में है वह और किसी में नहीं।

वह खरी मूंगफ़ली भूंज रहा था। हीरा ने उसे रोका क्योकि खरी मूंगफ़ली उसे पसंद नहीं थी। इससे मूंगफली की मिठास ख़त्म हो जाती है। वह पहले ही बता चुका था यहाँ के लोग खरी पसंद करते है। सो उसकी आदत पड़ गयी ऐसे भूंजने की। मूँगफली छन्ने से छानकर निकालते हुए, “पिछले हफ्ते कढ़ी पकाई थी, जी भर खायी।” वह रोज़ शाम को ताज़ा खाना बनाकर पेट भर खाता और सुबह बचा हुआ खाकर फेरी पर निकलता। लेकिन सोमवार छुट्टी के दिन कुछ ख़ास पकाता। “कल सोमवार को हल्दी की सब्जी पकाई, अब चार-पांच दिन की फ़ुर्सत। बस थोड़ी गरम करो, रोटी बनाओ खाओ।”

“ख़राब नहीं होगी?”

“अरे नहीं….इतनी ठंडी में कहाँ…..पूरी देसी घी में पकाई। पाव भर घी, आधा किलो कच्ची हल्दी, पाव भर पनीर डालकर, खूब भूनकर। एक बूँद पानी नहीं।”

हीरा अपनी थोड़ी जानकारी के हिसाब से जो उसे ग्वालिन ने बताई थी “पनीर तो नहीं डाला जाता”

“अरे हमने डाला। इंहा वाले क्या जाने। वह खुसबू की का बताएं।”

दोनों के मुँह में पानी आ गया। उसने सुड़क की आवाज़ से गले के अंदर खींच लिया और हीरा ने फिर मूँगफली के दानो से मुँह में आये पानी को अंदर किया।

मारवाड़ के खाने की बुराई करने के बावजूद भी हल्दी की सब्ज़ी उसने यहीं सीखी थी। लम्बी सांस खींचकर, “काहे की बुराई, साल के छह महीने रोज़ी यहीं कमाते। बारह साल से आ रहे। घर की याद आती है, तो बस ऐसे बोल-बाल के दिल हल्का हो जाता।”

हीरा ने गहराती रात को देखते हुए मोबाइल निकालकर टाइम देखा। क़रीब दस बजने वाले थे। उसने घर जाने की इजाज़त मांगी। जो अभी ज़रूरी हो गयी थी।

“किधर जाऊंगी?”

जहाँ पर ठेले से उसका सामना हुआ था। वह ठेले की आगे बढ़ने वाली दिशा की ओर इशारा करती है। भड़भूँजा भी तहसील का चक्कर काटकर इसी रास्ते पर बढ रहा था। यहीं, कहीं आगे उसका भी ठिकाना था। दोनों साथ चल पड़े। बातें थमी नहीं। एक मोड़ पर आकर हीरा ने विदा ली।

कृषि विज्ञान केंद्र के गेट पर अंदर से कुंडा लगा था जो सलाखों के बीच हाथ डालकर आसानी से खुल गया। चपरासी हमेशा की तरह गेट पर से नदारद था। उसकी झोपड़ी के पास अलाव जल रहा था और वह शायद उसमे सो रहा हो। वैसे यहाँ चुरा ले जाने लायक कुछ था भी नहीं। ऑफिस में दो चार कुर्सी मेज़ और कुछ कागज़ पत्तर। सरकार वर्कशॉप और ट्रेनिंग तो बड़े स्तर पर करा रही थी, लेकिन काम को अंजाम देने लायक इंफ्रास्ट्रक्चर और स्टाफ़ की बेहद कमी थी। खेत खाली पड़े थे, जीरे और बाजरे की ट्रायल फ़सल कट चुकी थी। एप्पल बेर, खजूर और अनार के पेड़ लगाए गए थे जिसमे से आधे सूख गए थे।

वह अपने क्वार्टर की ओर बढ़ रही थी तभी कुछ उसके पैरो के पास से कूदते हुए निकला। वह चौंकी…उसके सामने मटमैले रंग के खरगोशो का एक झुण्ड दौड़ा था। कुछ खरगोश रुककर अपनी चमकीली आँखों से उसको ताकने लगे। यहाँ इंसानो की कमी से जानवर बहुत खुश थे। हीरा मुस्कुराती हुई खरगोशो की तरफ़ दौड़ी और वह ऊँची छलांग लगाते हुए झाड़ियों में कहीं गुम हो गए। मोर की आवाज़ भी झाड़ियों के पीछे से गूंजी। हीरा क्वार्टर में घुस गयी। हड़बड़ाहट में दरवाज़ा खुला छूट गया था। अब उसने दरवाज़ा बंद किया। फ्रिज खोला.. पनीर था, लेकिन कच्ची हल्दी नहीं। किचन में डब्बे खखोये बेसन मिल गया।

रात खूबसूरत थी चारो तरफ़ सुक़ून बिखरा था। थोड़ी-थोड़ी देर में आधे कंगन जैसा चाँद धुंध की चादर सरकाकर मुस्कुरा रहा था। तारे आपस में अठखेलियां करते हुए लुका-छिपी कर रहे थे। लग रहा था, शायद कल सूरज खिलेगा। ज़ीरा, खड़ी लालमिर्च और हींग के छौंक की ख़ुश्बू घर में फैल गयी। झींगुरों की झायें-झायें लय के साथ पूरी रात चालू रही।

उज़्मा कलाम
नाम- उज़्मा कलाम। जन्म- कानपुर,उत्तर प्रदेश प्रारंभिक शिक्षा कानपुर से हुई। "जामिया मिलिया इस्लामिया" केंद्रीय विश्विद्यालय, नई दिल्ली में प्रसार शिक्षा में स्नातकोत्तर किया और विभिन्न गैर सरकारी संगठन (NGOs) में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत रही। वर्तमान में महिला उत्थान से सम्बंधित परियोजना में जोधपुर, राजस्थान में कायर्रत। पढ़ना, लिखना और चित्रकारी करने का शौक़। अभी तक कुल नौ कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं (हंस, कथादेश, वनमाली-कथा, बनास-जन, समालोचन, जानकीपुल और पुस्तकनामा ) में प्रकाशित।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Recent Comments

मनोज मोहन on कहानीः याद 
प्रकाश on कहानीः याद 
योगेंद्र आहूजा on कहानीः याद 
प्रज्ञा विश्नोई on कहानीः याद 
डॉ उर्वशी on एक जासूसी कथा
Exit mobile version