फिल्मों के शुरुआती सालों को छोड़ दें तो चालीस के दशक से इनमें प्रेम कहानियों का ही बोलबाला रहा है। सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्म हो या पूरी तरह से एक्शन पर आधारित फिल्म हो, प्रेम कहानी के लिए कोई-न-कोई कोना तो इन फिल्मों में मिल ही जाता है। सच भी हे, जब फिल्म का मूल तत्व ही रोमांस हो, तो कहानी के हर हिस्से में प्रेम ही बिखरा नज़र आएगा। ऐसी तमाम कहानियाँ प्रेम के अलग-अलग स्वरूप में दर्शकों के समक्ष आ चुकी हैं। कुछ ऐसी ही हटकर प्रेम कहानी को लाने का प्रयास किया है मँझे हुए निर्देशक आनंद एल. राय ने, जिनकी फिल्म ‘तेरे इश्क़ में’ प्रदर्शित हो चुकी है। धनुष और कृति सेनन की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म दर्शकों के दिल पर एक अलग प्रभाव छोड़ने में निःसंदेह सफल होती है। इस फिल्म की व्यावसायिक सफलता तो आने वाले समय के गर्भ में छुपी है, परन्तु जो बात यह फिल्म दर्शकों से कहना चाहती थी, उसमें यह सफल रही है।
कहानी शंकर (धनुष का पात्र) और मुक्ति (कृति सेनन का पात्र) की है। दोनों अलग-अलग पृष्ठभूमियों से आने वाले बिल्कुल अलग मिज़ाज के इंसान हैं, लेकिन एक-दूसरे से अपनी-अपनी ज़रूरतों के लिए मिलते हैं। शुरू में सब कुछ ठीक ठाक रहता है, लेकिन बाद में जब इश्क़ में ‘कुछ कर गुजरने’ की इंतिहा दर्शक देखते हैं, तब वे साथ हँसते हैं, रोते हैं, विस्मित होते हैं और सबसे बढ़कर, संतुष्ट भी होते हैं। उनके मन में यही भाव आता है कि जो भी घटित हो रहा है, वह ठीक है।
इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी कहानी को नायक और नायिका दोनों के नज़रिये से पेश किया गया है। यह कहना पूरी तरह गलत होगा कि यह फिल्म पूर्णरूपेण नायक का पक्ष रखती है, पर यह भी सत्य है कि इसके केंद्र में ‘शंकर’ (धनुष का पात्र) ही है। निर्देशक आनंद एल. राय ने वही किया है जिसमें उनकी मास्टरी है। कसा हुआ स्क्रीनप्ले, तगड़े डायलॉग, जबरदस्त संगीत और पार्श्व-संगीत; और इन सबके पीछे निर्देशक का ही हाथ होता है, जिसमें राय पूरी तरह खरे साबित होते हैं।
कहानी में ‘शंकर’ नामक युवा को दिखाया गया है, जो दिल्ली के एक कॉलेज में छात्र राजनीति का एक रंगबाज़-टाइप लड़का है, जो कैंपस के अंदर या बाहर किसी भी हिंसक गतिविधि से खुद को दूर नहीं रख सकता। वहीं मुक्ति उसी कॉलेज में थीसिस कर रही होती है, जिसका विषय होता है- ‘मानव मनोविज्ञान से हिंसा को खत्म किया जा सकता है।’
यहीं पर दोनों एक-दूसरे से टकरा जाते हैं। मुक्ति थीसिस लिखने के साथ-साथ शंकर के हिंसक व्यवहार को ठीक करने का बीड़ा भी उठाती है और सीधे-सीधे इसमें शंकर का समर्थन और सहयोग मांगती है। बदले में शंकर भी उसे ‘एक प्रेमिका वाली फीलिंग’ दिलाने का वादा मांगता है। इस करार की सहमति पर मुक्ति का एक बहुत महत्वपूर्ण संवाद है- “मैं इसे काम समझकर करूँगी और तुम इसे इश्क़ समझकर करना।” और यहीं से सारी गड़बड़ी की शुरुआत हो जाती है।
चूँकि मुक्ति की थीसिस क्लियर होने तक शंकर को मुक्ति से सचमुच प्यार हो जाता है, और वह भी तगड़ा वाला प्यार। इस जुनून में वह न जाने क्या-क्या कर गुजरता है, वहीं मुक्ति, शंकर के इस जुनूनियत भरे इश्क़ से बेहद हैरान और परेशान रहती है, पर वह हर बार शंकर को किसी न किसी तरह से समझा-बुझाकर रोक लेती है। जब परिस्थितियाँ बेहद पेचीदा हो जाती हैं, तब आखिरकार उसे यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसे शंकर से एक सेकंड के लिए भी कभी प्यार नहीं हुआ।

एक आम दर्शक की नज़र से देखें तो इसमें नायक शंकर ही सही नज़र आएगा, क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में मुक्ति का यह साफ-साफ मना कर देना काफी अखरनेवाला है। आम दर्शकों को यह लगता है और बेवजह नहीं लगता कि शंकर के साथ धोखा हुआ है। और ऐसा लगे भी क्यों न! मुक्ति के पिता की यू.पी.एस.सी. की परीक्षा की सिर्फ प्रारंभिक परीक्षा पास करने की शर्त को शंकर तीन सालों की अथक मेहनत के बाद ही सही, पूरा कर लेता है।
पर यहीं पर नायिका का पक्ष भी सामने आता है। मुक्ति कहती है- “तुम क्या कभी रिजेक्शन सुन सकते थे, शंकर? इसलिए मैंने जो समझ में आया किया, पर इसमें तुम्हारा बुरा कुछ भी नहीं किया।” यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझ आता है कि मुक्ति पहले तो इस ज़बरदस्ती के प्यार से बचने का उपाय कर रही थी, लेकिन बाद में परिस्थितियाँ बिगड़ जाने या फिर समझ आने पर सीधा-सीधा इस प्यार से मुक्ति पाना चाहती थी। देखा जाए तो नायिका भी अपनी जगह सही है। अगर उसने शंकर को अँधेरे में रखा, तो बस उसके गुस्सैल और जिद्दी स्वभाव के डर से।
फिल्म इसी मोड़ पर विगत कुछ वर्षों से व्याप्त नायक के ‘अल्फा मेल’ की छवि को महिमामंडित करने से खुद को बचाती हुई मालूम पड़ती है। यह देखने में आया है कि ‘कबीर सिंह’, ‘एनिमल’आदि फिल्मों ने नायक के प्यार में ज़बरदस्ती करने को जायज़ ठहराया है। पर क्या वाकई प्यार जैसे मखमली एहसास में ज़बरदस्ती जैसी कोई चीज़ फिट बैठ सकती है? प्यार में हक जताने तक को तो फिर भी ठीक माना जा सकता है, पर क्या ज़बरदस्ती का प्यार वाजिब है? प्यार में जब तक दोनों प्रेमियों की आपसी रज़ामंदी न हो, वो भला मुकम्मल हो सकता है कभी? और अगर प्यार एकतरफा भी हो तो क्या उसे जबरन दूसरे पर थोपना सही है?
इस बिंदु पर ठहरकर देखा जाए तो यह फिल्म आनंद एल. राय और धनुष की 2013 में आई फिल्म ‘रांझणा’ से एकदम अलग आ खड़ी होती है, जहाँ सिर्फ नायक को या फिर नायक के पक्ष को रखते हुए नायिका को एक स्वार्थी लड़की और एक तरह से विलेन के रूप में पेश किया गया था। यहाँ मामला अलग है।
नायिका के पिता को यहां जरूर एक घमंडी और अमीरी के नशे में चूर व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है, पर ऐसा करने के पीछे उसके अपने तर्क हैं, जिन्हें पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता।
अभी तक तो फिल्म में सिर्फ शंकर को ही मुक्ति के इश्क़ में तड़पते हुए दिखाया गया था; मुक्ति की तड़प तो अभी बाकी थी। तभी तो फिल्म का शीर्षक ‘तेरे इश्क़ में’ सच में जाकर शंकर और मुक्ति दोनों के लिए फलीभूत होता।
फिल्म में एक और भावुक दृश्य है, जहाँ बनारस घाट पर ‘रांझणा’ फिल्म के ‘मुरारी’ के रूप में मोहम्मद ज़ीशान अयूब की एंट्री होती है। मुरारी वही है जो कुंदन (राँझणा में धनुष का पात्र) का दोस्त है। यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा आजकल एक फिल्म में दूसरी फिल्म का ‘क्रॉसओवर’ दिखाकर कहानी को और विश्वसनीय बनाने का चलन है। और यह क्रॉसओवर बहुत ही निर्णायक सिद्ध होता है, जब मुरारी शंकर को मंत्र देता है और उसके कान में कहता है- “मरो चाहे मारो, कुछ भी कर लो, मुक्ति नहीं मिलेगी।” मुरारी के इन शब्दों में गहरे अर्थ छुपे होते हैं, जिनका शंकर पर जैसे जादुई असर होता है, और वह मुक्ति से अपना अंतिम साक्षात्कार करने उसकी शादी की रस्मों के बीच पहुँचता है। जब वह मुक्ति के चेहरे पर गंगाजल छिड़कता है, तो आसपास लोगों में तेज़ाब छिड़कने की आवाज़ें गूँजने लगती हैं। उस समय मुक्ति के चेहरे पर डर और आश्चर्य के मिले-जुले जो भाव आते-जाते हैं, वह देखने लायक है। यही वह पल होता है जब मुक्ति के मन में भी शंकर के लिए पहली बार प्यार का एहसास जगता है। खुद को हमेशा समझदार साबित करने वाली मुक्ति आखिर में शंकर के प्यार के आगे समर्पण कर देती है और अपनी शादी को तोड़ देती है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। शंकर, मुक्ति की पहुँच से कहीं दूर और बेहद दूर, एक नई दुनिया में चला जाता है। और यहीं से शुरू होता है मुक्ति की तड़प का सफर, जो शंकर के इश्क़ में खुद को वैसे ही जलाती रहती है जैसा कभी शंकर ने मुक्ति के लिए खुद को जलाया था।
पर मुक्ति को इतने पर भी ‘मुक्ति’ नहीं मिलती, क्योंकि नियति का खेल तो कुछ और ही होता है। वह सात सालों के इंतजार के बाद शंकर से फिर टकराती है। इस बार दोनों एक नई भूमिका में एक-दूसरे से मिलते हैं। ज़रूरतें फिर से हैं, तब कॉलेज की छात्रा मुक्ति को अपने प्रोजेक्ट के लिए शंकर की ज़रूरत थी; अब फ्लाइट लेफ्टिनेंट शंकर को युद्ध की घड़ी में मुक्ति की ज़रूरत है। इस तरह यह दिखाया गया है कि दोनों अपनी-अपनी ज़रूरतों से बँधे होकर एक-दूसरे से प्यार कर बैठते हैं। लेकिन त्रासदी यह है कि एक प्रेमी जब दूसरे से प्रेम की उम्मीद कर रहा होता है, तब दूसरा अपनी ज़रूरतों का हवाला देकर उस प्रेम से खुद को अलग कर लेता है। यानी एक ही वक्त में दोनों एक-दूसरे से प्यार नहीं कर पाते। ऐसे में यह इश्क़ भला मुकम्मल कैसे हो सकता था?
इस फिल्म के क्लाइमैक्स को अनुभवी दर्शक भले ही पहले भाँप सकते हैं, परन्तु इससे अलग कोई क्लाइमैक्स इस फिल्म का हो भी नहीं सकता था। हाँ, कुछ लोगों को यह अतिरंजित और नाटकीयता से भरा लग सकता है, पर जिस तरह का पागलपन इस फिल्म के पात्रों द्वारा दिखाया गया है, कहानी का ऐसा अंत उचित ही जान पड़ता है।
वैसे फिल्म अपने प्रस्तुतीकरण में तो सशक्त है ही, परन्तु इसमें काम करने वाले सभी कलाकारों ने भी अपने सशक्त अभिनय से इस फिल्म को और ऊँचे स्तर पर पहुँचा दिया है। मुख्य भूमिका में धनुष ने बेहतरीन काम किया है। उन्होंने भावुक दृश्यों में तो कमाल किया ही है, साथ ही कॉमेडी करते हुए भी वे खूब जँचे हैं।
उनके कुछ संवाद खूब बन पड़े हैं- जैसे, “तूने अपने काम के लिए टी-शर्ट उतार दी, तो क्या मैं अपने प्यार के लिए अपनी शर्ट उतार दूँ?” दूसरा संवाद देखिए- “तेरा बेटा मेरी शक्ल का नहीं होगा, पर मेरी नस्ल ही होगा।” इन संवादों पर ज़ाहिर है कि दर्शकों की खूब तालियाँ बजती हैं।
कृति सेनन भी कुछ कम नहीं हैं। उन्होंने इतना उम्दा काम किया है कि धनुष की आँधी में कोई और नायिका होती तो उसका यूँ डटे रह पाना मुश्किल हो जाता। कृति के अभिनय में एक ठहराव है। उन्होंने एक बार फिर यह दिखा दिया कि एक बेहतरीन निर्देशक का साथ उनसे बेहतरीन काम निकलवा सकता है। सहायक भूमिकाओं की बात करें तो शंकर के पिता की भूमिका में प्रकाश राज ने अभिनय के सारे रंग उड़ेल दिए हैं। प्रकाश राज को ज़्यादातर खल-भूमिकाओं में हमें देखने की आदत है, पर दक्षिण भारतीय फिल्मों में उन्होंने हर तरह के रोल किए हैं, सो इस तरह की भूमिका निभाना उनके लिए कोई मुश्किल काम नहीं था। मुक्ति के पिता के रोल में बंगाली फिल्मों के अभिनेता टोटा रॉय चौधरी ने अपने रोल को बखूबी निभाया है। वह जब-जब फ्रेम में आते हैं, छा जाते हैं। और मोहम्मद ज़ीशान अयूब का कैमियो तो शानदार है ही।
इन सबके अलावा, फिल्म में दिया गया ए. आर. रहमान का संगीत भी बेहद खास है। ‘ज़िगर ठंडा’ और ‘आवारा अंगारा’ तो वैसे भी हिट हो चुके हैं, टाइटल ट्रैक भी लोगों की ज़ुबान पर चढ़ चुका है। पर एक गीत और है जो बेहद कर्णप्रिय है, जो गाया तो गया है तमिल में, लेकिन बहुत सुंदर है। शंकर, उसके पिता और उसका दोस्त एक साथ मिलकर उत्सव के रूप में इस गीत ‘चिन्नावरे मन्नावरे’ को गाते हैं। इस गीत को शंकर महादेवन ने गाया है और इसके खूबसूरत बोल, जो परदे पर सबटाइटल के रूप में नज़र आते हैं, को लिखा है खुद धनुष ने। पार्श्व-संगीत को भी फिल्म के दृश्यों के अनुरूप अच्छे से ढाला गया है।
कुल मिलाकर ‘तेरे इश्क़ में’ प्रेम के एक नए आयाम को छूने वाला सिनेमा है, जिसमें आनंद एल. राय ने अपने निर्देशन में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है, और जिसमें उनका बखूबी साथ दिया है इस फिल्म के लेखक, पटकथा लेखक और संवाद लेखक नीरज यादव ने। इस फिल्म की पूरी टीम ने मिलकर एक ऐसी दुनिया रची है, जिसमें मानो भावनाओं का सैलाब उमड़ आया है और इस सैलाब में खुद को डुबो देने में ही दर्शक तृप्ति महसूस करते हैं।

