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विरासतनामा: किरायेदारी- अस्थायी पते वालों की दुनिया

कभी टपकती हुई छत से मजबूर होकर, कभी लड़ाके पड़ोसियों से परेशान होकर, कभी बढ़ते किराये तो कभी मकानमालिकों की शक़ी निगाहों से दुखी होकर ही एक शहरी किरायेदार अपना मकान छोड़ता है और नया मकान ढूंढने की कवायद में ऐसे-ऐसे तजुर्बों से गुज़रता है कि ऐसा एक लेख लिखने की ज़रूरत उसे महसूस हो जाती है।

यूँ तो घर वह होता है जहाँ रहते हैं हमारे घरवाले, जहाँ होता है आँगन और जहाँ जुड़ी होती हैं बचपन की यादों वाली गहरी जड़ें। शहरी मकान तो बस होता है ‘डेरा’, जो कामचलाऊ होता है, जो रैन-बसेरा से थोड़ा ज़्यादा स्थाई होता है और धर्मशाला से थोड़ा कम सार्वजानिक होता है, लेकिन ज़रूरत के सब ज़रूरी माल-ओ-सामान यहाँ जुटाए जाते हैं ताकि घर की सूक्ष्म प्रतिकृति जैसा बन जाए, बिना किसी मुसलसल ‘पेरेंटल गाइडेंस’ के।

ज़्यादातर कुँवारों और पढ़ने-लिखने वालों के घर बिखरे हुए, किताबों से अटे हुए, धूल से सने हुए, रंग बिरंगे पोस्टरों से भरे हुए मिलते हैं जिनमें जूठे बर्तनों और मैले कपड़ों के छोटे-मोटे अरावली और शिवालिक पहाड़ भी मिल जाएंगे। जवान उत्सुकताओं के सबूत सिगरेट के खाली पैकेट और बियर की खाली बोतलों का मिलना भी लगभग तय ही समझिये।

वहीं नौकरीपेशा लोगों के डेरों में एक ठहराव दिख सकने की उम्मीद ज़रा ज़्यादा होती है। मेट्रो और बसों के खम्बों से लटकने के बाद थक-हार कर जब ये कमाऊ प्रजाति घर आती है तो अपने ठीहे में एक घर जैसी नर्मी ढूंढती है, जो ठहराव भी दे और आँखों को सुकून भी।

खैर, तो पराये शहर का डेरा कॉलेजिया मिजाज़ से सजाया हो या उसमें पारिवारिक माहौल बनाया हो, बदलना तो पड़ ही जाता है। और तलाश की क्रोनोलॉजी शुरू होती है सोशल मीडिया के ब्रोकर-फ्री पेज की पड़ताल से क्योंकि शहरों में दलाल, प्रॉपर्टी डीलर यानि ब्रोकर सिर्फ आपको अपनी स्कूटरी के पीछे बिठा कर खोलियाँ और कूचे दिखाएँगे लेकिन बतौर कमीशन, पूरे महीने का किराया, रंगदारी वाले रौब से लूट लेंगे। पर करें क्या, हैं तो यह ब्रोकर एक ‘नेसेसरी ईविल’। अख़बारों के ‘क्लासिफाइड’ अब कहाँ देखे जाते हैं, 99 एकर्स, हाउसिंग डॉट कॉम वगैरह वगैरह साइटों पर पार्ट टाइम आँखें गड़ाकर कई रातें बिताने के बाद जब एक दो ढंग के मकान मिलते हैं तो फिर से वही ब्रोकर-मकान-मकान मालिक-कमिशन-एडवांस-सिक्योरिटी का कुचक्र शुरू हो जाता है। मकान ढूंढ़ते हुए ज़्यादा महत्वकांक्षी होने से हर बार दुख की गठरी थोड़ी और भारी होकर ही वापस आती है आपके ही कंधे पर, इसीलिए सीमित उम्मीदें ही रखकर मकान का शिकार किया जाने लगता है।

कमरों में रोशनी ढूंढ़ते हुए किरायेदार को सिर्फ अँधेरा मिलने की पूरी गारंटी रहती है, क्योंकि डीबियानुमा इमारतों के अगल-बगल भी दूसरी इमारतें ऐसे सटी हुई रहती हैं जैसे मुंबई लोकल में रश-ऑवर के पैसेंजर; तो चारों तरफ़ से खिड़कियों की संभावना एकदम ख़त्म ही हो जाती है और बदरंग ट्यूब लाइटों से कमरे दिन में भी ज़बरन रोशन किये जाते हैं। नतीजतन, यह फ्लैट पहली ही नज़र में गुफानुमा लगते हैं और आलम ऐसा कि बाहर चाहे आँधी हो या धूप, अंदर चिर स्थाईभाव से अपरिवर्तनशील माहौल रहता है।

मकानों की छतों पर धूप सेंकने या कपड़े सुखाने जाना भी जोखिम भरा सौदा होता है क्योंकि खुले आसमान के नीचे और खोजी खिड़कियों के साम्राज्य से ऊपर छत ही ऐसा ख़ुफ़िया ठिकाना होती है जहाँ या तो अमूमन घरेलु औरतें गुट बनाकर अगल-बगल की चर्चाएं करती मिलती हैं या फिर चौकीदार बिल्डिंग में काम करनेवाली बाई के साथ कुछ एकांत के पल बिताता हुआ मिल सकता है। इन परिस्थितियों से खुद ही पाँव बचाते और आँख चुराते हुए इंसान अपनी कोठरी में ही लिटिल यूटोपिया दूंढने की कोशिश करने लगता है।

मकानमालिक की सुविधा और स्वाद अनुसार ही मकान की टूट-मरम्मत का मुहूर्त निकल सकता है। बेचारा किरायेदार मकानमालिक को फोन करने से इसलिए झिझकता रहता है कि गलती से उसकी दरख्वास्त को माँग समझकर कहीं मकान मालिक किराया बढ़ाने का ही फरमान न लागू कर दे। इसी बेबसी में पानी की टंकी लीक किये जाती है और उत्साह से सजाई दीवार पर सीलन की दबिश सारा एस्थेटिक बहा ले जाती है।

किरायेदार होने का दुःख अनहद है। किरायेदार पुराण असीम। पर अस्थाई ठौर ठिकाने के अपने सुख भी हैं, झोला उठाकर कभी भी चल देने की फ़क़ीराना सहूलत भी। असीम संभावनाओं के खड़े पानी में डुबकी लगाकर पुनः इसी कीचड़ में तर बतर हो जाने का मज़ा भी है। इस ‘मकान : एक खोज’ का मंझा हुआ खिलाड़ी बनकर आत्मविश्वास से नए किरायेदारों को मन्त्र देने का अपना लुत्फ़ भी है। किरायेदारी की अस्थाई अवस्था में मिलने वाले सुख को स्थाई पते वाले क्या जानें !

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