हम बिहार के जिस इलाके में रहते हैं, वहां के दो छोर पर हिंदी के दो बड़े कवियों का गाम-घर है। एक तरफ बाबा नागार्जुन का गाम तरौनी है, तो दूसरे छोर पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का गांव सिमरिया है। इन दिनों बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर अपनी चुनावी यात्रा के बीच हम राजनीति की कथा छोड़कर पहुंच गए दिनकर जी के गाम-घर!
बचपन से ही हम सब पढ़ते आए थे कि यदि कहीं साहित्यिक तीर्थभूमि है तो वह है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मभूमि सिमरिया।
सिमरिया अपनी पौराणिक, धार्मिक विशिष्टताओं के लिए भी चर्चित है। यहां लोग कार्तिक मास में एक माह तक गंगा किनारे गंगा स्नान और कल्पवास करते हैं। सिमरिया को काशी की तरह ही मुक्तिधाम माना जाता है, जहां लोग दूर-दूर से शवदाह करने आते हैं। लोक प्रचलित विश्वास है कि यहां दाह-संस्कार करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां कुंभ मेला भी लगता है।
इसे हिंदी का सौभाग्य ही कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति की लिखी कविताओं की वजह से मुक्तिधाम सिमरिया की मिट्टी को नमन करने हर साल देश के नामचीन साहित्यकार, कवि, आलोचक, साहित्य प्रेमी यहां आ ही जाते हैं।
पूर्णिया से हमारी यात्रा जब बेगूसराय के लिए निकली तो पहले कुर्सेला में हम उस इलाके में थोड़ी देर के लिए रुके जहां गंगा और कोसी नदी का संगम है। हमने सोचा कि जब दिनकर के गांव की तरफ निकल ही रहे हैं तो कोसी और गंगा के संगम को दूर से ही लेकिन निहार लें।
मेरा मानना रहा है कि हमें उन गांवों की यात्रा करनी चाहिए, जिनसे अपनी हिंदी समृद्ध हुई है। कुर्सेला से आगे खगड़िया में चाय की चुस्की लेते हम निकल पड़े राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव की ओर।
बिहार के बेगूसराय जिला स्थित गंगा किनारे एक ऐसे गांव को देखने, जिसकी माटी में हिंदी रची बसी है।
आप कल्पना कीजिए एक ऐसे गांव की, जिसके हर घर पर कविता की कोई न कोई पंक्ति लिखी हो! क्या आपने कभी ऐसे किसी गांव की यात्रा की है, जिसके हर घर की दीवार पर काव्य पंक्तियाँ लिखी हुई हों?

सच कहूं, मुझे तो ऐसा गांव देखने का सौभाग्य मिला है। मैं मौजूद हूं राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के गांव में, सिमरिया ग्राम में! जिसके बारे में खुद दिनकर लिख गए हैं-
‘हे जन्मभूमि शत बार धन्य!
तुझसा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य”
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जन्मस्थली सिमरिया बिहार में बेगूसराय और मोकामा के बीच में है। अलौकिक छटा है यहां की। खेतिहर समाज है। अब भी यहां खपरैल के घर दिख जाते हैं। हालांकि आधुनिकता ने गांव को भी हर जगह अपने मोह-पाश में ले ही लिया है। अब तो सिमरिया का नाम ‘दिनकर ग्राम सिमरिया’ पड़ चुका है, जहां उनका जन्म 23 सितंबर 1908 को हुआ था। उनकी अमर लेखनी ने इसे भी अमर बना दिया। अपनी माटी के बारे में दिनकर कहते थे-
गंगा-पूजन का साज सजा,
कल कंठ-कंठ में तार बजा;
स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ;
पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय,
अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ।
सिमरिया गांव में रामधारी सिंह दिनकर का बचपन बीता। इस छोटे से गांव में पले बढ़े दिनकर का राष्ट्रकवि तक का सफर काफी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है।
अतीत में जाने से अच्छा है कि जरा वर्तमान में दाखिल हुआ जाए! राष्ट्रकवि दिनकर से जुड़ी यादों को सहेजने के लिए सिमरिया गांव के लोगों ने अनोखा उपाय ईजाद किया है।
दरअसल, यहां के लगभग सभी भवनों पर दिनकर का नाम है। सरकारी और गैर सरकारी भवनों पर दिनकर जी की रचनाएं और कविताएं उकेरी गई हैं। जैसे ही आप गांव में प्रवेश करेंगे, उनकी कविताओं को पढ़कर रोमांचित हो उठेंगे और तब आपको लगेगा कि जिनसे हिंदी अपनी समृद्ध हुई, उनकी हिंदी को उनका गांव असल में कितनी शिद्दत से जी रहा है।
हर साल दिनकर की स्मृति में उनकी जन्मभूमि के जिला मुख्यालय बेगूसराय में सरकारी कार्यक्रम होता है, जिसका अच्छा – खासा बजट है लेकिन उनके गांव में ग्रामीण सरकार के सहयोग से नहीं बल्कि जन सहयोग से कार्यक्रम आयोजित करते हैं।
गांव घूमते हुए मैंने यह भी देखा कि सिमरिया का एक भी घर ऐसा नहीं था जिसकी दीवार पर दिनकर की काव्य पंक्तियाँ न लिखीं हों।
सितंबर महीने में दिनकर की स्मृति में आस-पास के स्कूलों में दिनकर काव्य प्रतियोगिता कराई जाती है और सफल विद्यार्थियों को पुरस्कृत किया जाता है।
जब यह सब कुछ मुझे स्थानीय प्रवीण प्रियदर्शी जी बता रहे थे, मैं चुपचाप सुन रहा था और सोच रहा था कि काश भारत का हर गांव सिमरिया होता।
ग्रामीणों ने दिनकर जी की स्मृति में ‘राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति’ का गठन किया है। यह समिति हर साल 12 सितंबर से 24 सितंबर के बीच कार्यक्रम आयोजित करती है। सिमरिया के आसपास जितने भी स्कूल हैं, उनमें दिनकर साहित्य का प्रचार प्रसार किया जाता है और फिर एक प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। पिछले साल इसमें 600 बच्चों ने हिस्सा लिया था।
गांव में दिनकर के नाम से एक समृद्ध पुस्तकालय भी है, जिसमें 20 हजार से अधिक किताबें हैं। इसका संचालन ग्रामीण करते हैं।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि दिनकर जयंती के अवसर पर सिमरिया गांव में आयोजित होने वाले कार्यक्रम का खर्च ग्रामीण उठाते हैं, जो भी अतिथि आते हैं, उनके आने जाने के खर्च से लेकर ठहरने तक का खर्च ग्रामीण वहन करते हैं।
अपने ग्रामीण कवि के नाम पर ये लोग सरकार से किसी तरह की सहायता नहीं लेते हैं।
दिनकर के गांव सिमरिया में उनके घर में आज भी राष्ट्रकवि से जुड़े सामान रखे हुए हैं, जिसमें खासकर जिस बिछावन पर दिनकर जी सोते थे, वह बिछावन उसी तरह लगा हुआ है। दिनकर के घर के अंदर दिनकर से जुड़ी तस्वीर लगी हुई है।

दिनकर के गांव के लोग अपने कवि को आपार स्नेह देते हैं। यही वजह है कि दिनकर के गांव सिमरिया के हर मकान पर और गली मोहल्लों में दिनकर की लिखी कविताएं लिखी हुई हैं। गांव का हर बच्चा दिनकर की कविताओं को पढ़ता है और उसे याद भी रखता है।
वैसी कविता जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे, ऐसा बहुत ही कम हिंदी कविताओं में देखने को मिलता है। कुछ कवि जनकवि होते हैं तो कुछ को राष्ट्रकवि का दर्जा मिलता है। मगर एक कवि राष्ट्रकवि के साथ जनकवि भी हो, यह इज्जत बहुत ही कम को नसीब हो पाती है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ऐसे ही कवियों में से एक हैं, जिनकी कविताएं उनके गांव के हर बच्चों की जुबान पर है।
स्थानीय लोगों से बात करते हुए यह भी सुनने को मिला कि राजनीतिक लोग सिर्फ दिनकर जी के नाम का इस्तेमाल करते हैं। लोगों का कहना है कि सिमरिया गांव को आदर्श ग्राम घोषित कर दिया गया लेकिन जो विकास होना चाहिए, वो नहीं हुआ। लोगबाग दिनकर के नाम पर बेगूसराय में विश्वविद्यालय खोलने की मांग भी कर रहे हैं।
दिनकर के गांव से अब आपको थोड़ा बेगूसराय से पूर्णिया की तरफ मोड़ रहे हैं। यहां भी दिनकर की स्मृति जीवित है। जिले के पूर्णिया कॉलेज में बनी लाइब्रेरी भी ऐतिहासिक है। यहीं रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी रचना “रश्मिरथी” लिखी थी। पूर्णिया कॉलेज के पुस्तकालय में आज भी रश्मिरथी की किताबें मिलेंगी। पहले इस लाइब्रेरी की हालत खस्ता थी। लेकिन बीते कुछ साल में लाइब्रेरी का कायाकल्प कर दिया गया है। साफ सफाई से लेकर साज सज्जा और व्यवस्था भी दुरुस्त हुई है। पहले के मुकाबले अब ज्यादा बच्चे लाइब्रेरी में अपनी पढ़ाई करते दिख रहे हैं।

साल 1948 में पूर्णिया कॉलेज की स्थापना हुई थी। 15 सालों से कुछ ज्यादा समय तक हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हजारी प्रसाद झा “द्विज” यहां के प्रधानाध्यापक रहे। द्विज जी और दिनकर जी की दोस्ती की मिसाल दी जाती थी।
द्विज जी के ही प्रधानाध्यापक रहते हुए दिनकर का पूर्णिया आना हुआ। पूर्णिया पहुंचकर दिनकर जी ने एक कमरे में बैठकर रश्मिरथी की रचना की और ये जगह इतिहास के पन्नो में दर्ज हो गया।
समय बीतने के बाद जिस कमरे में बैठकर दिनकर जी ने रश्मिरथी की रचना की थी, पूर्णिया कॉलेज ने उस कमरे को पुस्तकालय बना दिया और बिहार के इस प्रांत में एक ऐतिहासिक पुस्तकालय का निर्माण हुआ।
पूर्णिया से फिर लौटकर दिनकर के गांव में दाखिल होते हैं तो लगता है कि सिमरिया अब ‘दिनकरमय’ गांव बन गया है। इस गांव में दिनकर की उपस्थिति सरकारी तंत्र के कारण नहीं है बल्कि जो कुछ है वह ग्रामीणों के दिनकर प्रेम के कारण।
गांव की साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत बहुत समृद्ध है। गांव में ‘दिनकर पुस्तकालय’ है और पुस्तकालय में एक बड़ा सभागार है, जिसमें करीब पांच सौ लोगों के बैठ सकते हैं। दिनकर परिवार के लोगों ने ही इसके लिए जमीन दी थी।

स्थानीय ग्रामीण बताते हैं कि वे लोग आपसी भाईचारा कायम करने के लिए दिनकर साहित्य को औजार के रुप में इस्तेमाल करते हैं। लगातार सांस्कृतिक व साहित्यिक आयोजनों से गांव की मानसिकता को बदलने में कामयाबी मिली। गांव में लिखने-पढ़ने वालों की संख्या बढ़ी। सृजन का वातावरण फैलने लगा। कुछ प्रगतिशील युवाओं ने प्रतिबिंब नाम से एक संस्था की स्थापना की थी। यह संस्था युवाओं को कविता लिखने के लिए प्रेरित करता है।
किसी साहित्यकार के गांव की यह तस्वीर बताती है कि शब्द में कितनी बड़ी ताकत है। गंगा नदी के तट पर स्थित दिनकर की यह जन्मस्थली हमें बार-बार अपनी ओर खींचती है। शायद ही किसी अन्य कवि के गांव में ऐसा दृश्य देखने को मिले! कवि के प्रति सम्मान का भाव कूट-कूट कर भरा है, ग्रामीणों में।
सड़कों और बड़े-बड़े पुलों के जाल से अब घिर चुका दिनकर का यह इलाका आज से नहीं बल्कि आजादी के बाद से ही विकास की रफ्तार पकड़ने लगा था। गांव से कुछ किलोमीटर पर रिफाइनरी और दूसरी ओर थर्मल पावर की चिमनियों से निकलता धुआं इस बात का इशारा करता है। करीब पचास के दशक में ही बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने यहां औद्योगिक विकास की नींव रखी थी।
यदि आपको हिंदी और हिंदी साहित्य से लगाव है तो आप भी घूम आइए, अपने आसपास के हिंदी लेखकों के गांव, ताकि समझ सकें कि जिस हिंदी की हम बात कर रहे हैं, जिस हिंदी से देश चल रहा है, आखिर उस हिंदी को समृद्ध करने वाले का गांव किस मोड़ पर खड़ा है।