मुंबईः महाराष्ट्र के उत्तरी जिले नंदुबार की 4 आदिवासी गांवों में आजादी के बाद पहली बार तिरंगा फहराया गया। राजधानी मुंबई से करीब 500 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इन गांवों में अभी तक बिजली नहीं पहुंची है। वहीं मोबाइल नेटवर्क के लिए भी काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है।
एक एनजीओ की मदद से आजादी के 78 वर्ष पूरे होने के बाद गांव में तिरंगा फहराया गया। इस इलाके में करीब 400 लोग रहते हैं। यहां पर कोई सरकारी स्कूल नहीं है। गांव के रहने वाले गणेश पावरा ने 30 बच्चों और स्थानीय लोगों की उपस्थिति में पहली बार तिरंगा फहराया। गांव में एक एनजीओ यंग फाउंडेशन द्वारा एक अनौपचारिक स्कूल चलाया जाता है जहां पर गणेश पावरा पढ़ाते हैं।
चुनौतीपूर्ण कार्य
गणेश पावरा के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। अब यहां कभी झंडा फहराया नहीं गया था तो उन्होंने कभी-कभार नेटवर्क आने वाले क्षेत्र के बीच एक वीडियो डाउनलोड किया जिसमें झंडे को बांधने के बारे में बताया गया था जिससे वह बिना किसी बाधा के फहराया जा सके।
द हिंदू ने यंग फाउंडेशन के फाउंडर संदीप देवरे के हवाले से लिखा “यह क्षेत्र प्राकृतिक सुंदरता और उपजाऊ मिट्टी से भरपूर है और नर्मदा नदी यहां से बहकर गुजरती है। लेकिन पहाड़ी इलाके की वजह से यहां पहुंचना मुश्किल है।”
यह फाउंडेशन इस इलाके में बीते 3 वर्षों से शिक्षण संबंधी कार्यों में लगा हुआ है। इसी फाउंडेशन ने यह निर्णय लिया कि इस साल स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर उदाड्या, खपरमाल, सादरी और मंजनीपाड़ा गांवों में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाना चाहिए।
यंग फाउंडेशन यहां पर चार स्कूलों का संचालन करता है। यहां के सभी बच्चे शुक्रवार को झंडारोहण के समय मौजूद थे। इन आदिवासी इलाकों में न तो सरकार की तरफ से संचालित कोई स्कूल है और न ही ग्राम पंचायत कार्यालय है। आजादी के 7 दशक पूरे होने के बाद भी यहां पर इससे पहले यहां कभी झंडारोहण नहीं हुआ था।
लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में करना था जागरूक
संदीप देवरे ने कहा कि इसका उद्देश्य सिर्फ “प्रथम” अभिव्यक्ति हासिल करना नहीं था बल्कि स्थानीय लोगों को उनके लोकतांत्रिक अधिकार के बारे में शिक्षित करना था।
उन्होंने कहा “आदिवासी यहां बहुत स्वतंत्र जीवन जीते हैं लेकिन उनमें से सभी को हमारे संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों जैसी चीजों के बारे में जानकारी नहीं है।”
उन्होंने आगे बताया कि मजदूरी करते समय या फिर दैनिक लेन-देन में उनका शोषण किया जाता है। इन सभी आदिवासी गांवों में अभी तक बिजली के खंभे नहीं पहुंचे हैं जिससे यहां के लोग सौर ऊर्जा पर ही निर्भर हैं।
लोगों का भरोसा जीतना था मुश्किल
देवरे ने यह भी बताया कि शुरुआत में यहां लोगों के विश्वास को जीतना काफी मुश्किल था लेकिन उनका आश्वासन प्राप्त होने के बाद उनका सहयोग प्राप्त करना और आसान हो गया।
शिक्षा संबंधी अन्य कार्यों के लिए यह फाउंडेशन चंदे पर चलता है जिससे यहां के शिक्षकों का मानदेय और मूलभूत सुविधाएं पूरी होती हैं।
यहां रहने वाले लोग पावरी भाषा बोलते हैं, जो कि मराठी और हिंदी से काफी अलग है। इस वजह से बाहरी लोगों के साथ बातचीत करना मुश्किल हो जाता है।
सरकार द्वारा नियुक्त की गईं आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अक्सर इन दूरदराज इलाकों से दूर रहती हैं। वहीं, कुछ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ऐसी भी हैं जो यहीं रहकर पूरी लगन के साथ काम करती हैं।