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कातते-बुनते: मर्द की जात, औरत की लात

एक ही बात को कविता में कहा जाए, लेख में कहा जाए और कहानी-किस्‍से की तरह सुनाया जाए तो न सिर्फ सौंदर्य में फर्क आ जाता है, बल्कि सुनने या पढ़ने वाले के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव भी बदल जाता है। कोई भी बात कैसे कही जाए- जिसे गालिब का अंदाज-ए-बयां कहते थे- जिससे कि वह सुनने वाले के ऊपर अपेक्षित असर डाल सके, यह लिखने और बोलने वालों के लिए सबसे अहम मौजू है। संचार के स्‍थापित सिद्धान्‍त इसमें काम नहीं आते, फिर भी अपनी बात को हम किस्‍से से शुरू करते हैं। 

इसी हफ्ते एक पारिवारिक शादी के बुकिंग समारोह में जाना हुआ। दिल्‍ली में आम तौर से ऐसे समारोहों को रोका कहते हैं। उत्‍तर प्रदेश में इसका समकक्ष बरच्‍छा कहलाता है जिसमें लड़के का टीका कर के उसे बुक कर लिया जाता है। यह परिवारों की सहमति से हुआ एक मध्‍यवर्गीय अंतरजातीय मामला था। इस चरण तक पहुंचने से पहले तक लड़की को बीते तीन बरस में उसकी जाति के कोई दर्जन भर लड़के दिखाए गए, कुछ तो मिलवाए भी गए। एकाध परिवारों के सामने उसे प्रस्‍तुत किया गया। कई में बात काफी आगे भी बढ़ी। अंतत: लड़की ने खूंटा गाड़ दिया और उसके पिता के पास कोई विकल्‍प नहीं बचा। 

हो सकता है यह लड़की की मुक्ति का आखिरी संघर्ष हो, हम भविष्‍य नहीं जानते। मैं इतना जरूर जानता हूं कि पहले इंटरमीडिएट के बाद चुने जाने वाले पेशेवर कोर्स, फिर कोर्स कर के अपने शहर से बाहर नौकरी, नौकरी के दौरान अकेले रहने और नौकरी में रहते हुए दफ्तर के काम से विदेश जाने- हर एक चरण पर उसे इतना नहीं तो इससे कम भी संघर्ष नहीं करना पड़ा था। ये कुछ अहम चरण थे संघर्ष के, लेकिन इनके अलावा रोज का संघर्ष अपनी जगह था- जैसे, कमरे से दफ्तर जाने, वापस आने, खाना खाने और छुट्टी के दिन कहीं घूमने जाने से लेकर तकरीबन पल-पल की सूचना से दूसरे शहर में रह रहे पिता को अपडेट रखने की बाध्‍यता। हर त्‍योहार की छुट्टी में घर जाने की बाध्‍यता। घर से आए हर फोन पर शादी के लिए लड़के के प्रस्‍ताव पर सकारात्‍मक जवाब देने की बाध्‍यता, और ऐसे फोन रोज दो-चार तो होते ही थे। 

अगर पिता की सत्‍ता को लड़की की ओर से चुनौती नहीं मिलती या कामयाब नहीं होती, तो उसकी शादी अपनी जाति में होती। शादी अब जाति से बाहर हो रही है, बावजूद इसके रस्‍मों की तैयारी से लेकर उसके पूरे होने तक पिता की पकड़ बेहद मजबूत है। यह जाति की टूटन से पैदा हुई अतिरिक्‍त प्रतिक्रिया है जो न सिर्फ आखिरी दम तक पितृसत्‍ता को कायम रखने की कोशिश करेगी, बल्कि जाति तोडने का थोड़ा-मोड़ा श्रेय भी अपने नाम कर के अहसान लाद देगी। ऐसा नहीं कि शादी के बाद यह पकड़ ढीली पड़ जाएगी। लड़का और लड़की मिलकर महीने का डेढ़ लाख कमाते हैं, फिर भी लड़की के पिता ने उसके बेहतर आर्थिक भविष्‍य के लिए अपने संचित धन से योजनाएं बनानी शुरू कर दी हैं। लड़के का पिता और परिवार इन सब से गाफिल और केवल प्रेक्षक की मुद्रा में हैं। 

बहुत मुमकिन है कि यह पिता का प्‍यार हो जो लड़की को उसकी शादी के बाद भी किसी न किसी रूप में बांधे रखना चाहता हो। इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसके पहले बीते लड़की के जीवन में हर संघर्ष का पड़ाव पिता की ओर से प्रत्‍यक्ष नियंत्रण का परिणाम था। प्‍यार हक मांग सकता है, पर बांधता नहीं है। सामने वाले को मुक्‍त करता है। इसलिए प्रेम के मुहावरे के बजाय पिता की सत्‍ता को किसी और ही परिप्रेक्ष्‍य में देखना पड़ेगा। इतिहासकार प्रो. उपिंदर सिंह पितृसत्‍तात्‍मक नियंत्रण का परिप्रेक्ष्‍य जाति को बताती हैं। यह कोई नई बात नहीं है, बहुत से लोग समझते भी होंगे कि औरतों पर नियंत्रण का सीधा संबंध जाति से है, लेकिन इसे आज फिर से कहने का एक खास संदर्भ है। 

प्रो. सिंह अपनी पुस्‍तक एन्शिएंट इंडिया: कल्‍चर ऑफ कंट्राडिक्‍शन्‍स में वर्ण और जाति के बीच अंतर समझाते हुए लिखती हैं कि वर्णों में तो फिर भी कुछ खास किस्‍म के अंतरविवाह जैसे अनुलोम विवाह को स्‍वीकृति प्राप्‍त थी, पर जाति में तो यह भी बरदाश्‍त नहीं है। वे लिखती हैं: ‘’जाति… एक जटिल प्रणाली है जिसमें भौतिक संसाधनों, मूल्‍य प्रणाली और ज्ञान के उत्‍पादन पर नियंत्रण के मसले भी शामिल होते हैं। यहां पवित्रता और दूषण के खयाल ऊंच-नीच, अलगाव और उच्‍च जातियों की स्थिति को वैधता दिलवाने में मदद करते हैं। चूंकि अपनी ही जाति के भीतर विवाह बहुत अहम चीज है, इसलिए जाति प्रथा खुद को बनाए रखने और चलाए रखने के लिए स्त्रियों की यौनिकता और प्रजनन के ऊपर नियंत्रण पर निर्भर होती है।‘’ 

ध्‍यान देने वाली बात अंतिम पंक्ति में है- ‘’जा‍ति प्रथा खुद को बनाए रखने और चलाए रखने के लिए स्त्रियों की यौनिकता और प्रजनन के ऊपर नियंत्रण पर निर्भर होती है’’। यानी, स्‍त्री जहां कहीं भी अपनी यौनिकता और प्रजनन अधिकार पर पितृसत्‍ता के नियंत्रण को चुनौती देगी, वह अनिवार्यत: जाति-प्रथा को भी चुनौती दे रही होगी। इसका मतलब यह हुआ कि स्‍त्री-द्वेषी या स्‍त्री-नियंत्रक मर्दाना व्‍यवहार (या आजकल के मुहावरे में ‘टॉक्सिक मस्‍कुलिनिटी’) की जड़ जाति में है! अब इसे भारत से बाहर निकाल कर सामान्य कर दें। जाति की जगह ऐसे ही गैर-बराबरी वाले किसी और लेकिन व्‍यापक तत्‍व को रख दें, जैसे नस्‍ल। हम पाएंगे हैं कि स्‍त्री पर नियंत्रण यानी मर्दवाद का सारा रोग नस्‍ल/जाति जैसी गैर-बराबरी वाली अवधारणाओं से जुड़ा हुआ है। यानी जब एक लड़की विद्रोह करती है, तो मर्द की आत्‍मा और जाति की आत्‍मा दोनों एक साथ आहत होती है। एक तीर, दो शिकार। 

अब आइए ताजा खबरों पर। मुंबई के एक होटल में एक 41 वर्षीय युवक हफ्ते भर पहले फांसी पर लटक गया था। पीछे छोड़ी चिट्ठी में उसने अपनी पत्‍नी को जिम्‍मेदार ठहराया है। उससे चार दिन पहले पत्‍नी को ही जिम्‍मेदार ठहराते हुए मुंबई में आगरा का एक युवक लटक गया था। दिसंबर में बंगलुरु के एक युवक अतुल की भी ऐसी ही खुदकशी राष्‍ट्रीय सुर्खियों में छा गई थी। उसके बाद दिल्‍ली में एक कैफे के मालिक ने जान दे दी थी। देश भर में शादीशुदा मर्दों का मरना जारी है। वे अपने अंतिम औजार के तौर पर पत्नियों को दोषी बताकर निकल ले रहे हैं। ऐसा केवल एक ही जाति के भीतर हुई शादियों में नहीं हो रहा, अंतरजातीय विवाहों में भी हो रहा है। क्‍यों? क्‍योंकि जाति का बंधन ऊपर से तो टूट जा रहा है, लेकिन उसकी बरसों की पोषित की हुई पितृसत्‍ता अंतरजातीय विवाह के भीतर मर्दों में बच जा रही है। 

मैं जहां गया था, वहां लड़के के परिवार के एक दामाद भी आए हुए थे। अमूमन वे पूरे समारोह में ऐंठे ही रहे, अपने लैपटॉप पर काम करते रहे या बैठे रहे, लेकिन बीच में एक प्रसंग उनकी पत्‍नी को लेकर आया। उन्‍होंने मजाक करते हुए अपनी पत्‍नी के सामने खुद को बेचारा दिखाया, जैसा कि आजकल चल रही दस में से छह रीलों में पति खुद को पत्‍नी का शिकार दिखाते हैं। इस बात पर वहां अंतरजातीय प्रेम विवाह किए हुए एक युवक ने गंभीरता से कहा- अब तो पुरुष आयोग बना ही देना चाहिए। 

प्रेम बेशक जाति को प्रत्‍यक्षत: तोड़ रहा है, स्‍त्री को एक हद तक मुक्‍त भी कर रहा है, लेकिन पुरुषों को उनकी मर्दानगी के संबंध में रत्‍ती भर समझ नहीं दे पा रहा। उन्‍हें यह बात कौन समझाएगा कि उनकी ऐंठन, उनका विक्टिम कार्ड, उनकी उलाहना और उनकी खुदकशी, सब कुछ जातिबोध से पोषित उनके भीतर बैठे मर्द का परिणाम है? और स्त्रियों को यह बात कैसे समझाई जाए कि केवल बाप के बंधन को तोड़ना ही मुक्ति नहीं, अपने पति और साथी को विजातीय और मनुष्‍य बनाना भी एक कार्यभार है? अब सब कुछ की तो आप औरतों से अकेले उम्‍मीद नहीं कर सकते! वह अगर एक बार नियंत्रण को तोड़कर एक प्रेम विवाह का हिस्‍सा बनी है तो दोबारा ऐसे किसी नियंत्रण को प्रेम के मारे जबरन पोसेगी नहीं! या लड़ेगी या छोड़ देगी। फिर जाहिर है, आदमी अपनी जान ही देगा क्‍योंकि वह तो जात से भी गया और पांत से भी।       

सवाल कठिन हैं। स्थितियां और कठिन। जो कहानी हम अपने आसपास परिवारों और समाजों में देखते हैं, इतिहासकार भी वही सब समझाता है। और अब तो ऐसी बातें खुलकर स्त्रियां कविताओं में भी लिख रही हैं। हाल में पत्रकार भाषा सिंह का एक कविता संग्रह आया है, उसमें एक बेहतरीन कविता इस शीर्षक से है: ‘’मेरी माहवारी मेरी जाति है’’। इस कविता को पढ़ा जाना चाहिए, जिसकी आखिरी पंक्तियां तकरीबन मुनादी के स्‍वर में कहती हैं, ‘’जाति ही मेरी माहवारी है’’। यह बिलकुल वही बात है जो प्रो. उपिंदर सिंह लिख रही हैं। जाति, नस्‍ल, लैंगिकता, हर किस्‍म की असमानता एक-दूसरे के साथ अनिवार्यत: नत्‍थी है। इस नेक्‍सस को समझना ही इससे मुक्ति की पहली सीढ़ी है।

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