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मोदी की पूर्णिया रैली के बहाने घुसपैठ और राजनीति के अपराधिकरण की पुरानी बात!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूर्णिया रैली से भाजपा नेताओं की बांछें खिली हुई हैं। हालांकि मोदी की बड़ी-बड़ी बातें वोटरों का दिल जीतने में कितना कारगर साबित हो पाती हैं, ये तो विधानसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चल पाएगा।

हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बड़ी सभा बिहार के पू्र्णिया शहर में हुई थी। लाखों की संख्या में पू्र्णिया और आसपास के कई जिलों से लोग उनकी सभा में पहुंचे थे। माना जा रहा है कि बिहार विधानसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने प्रधानमंत्री की इस सभा के जरिए राज्य में चुनावी रैली की शुरुआत कर दी।

बिहार के सीमांत जिलों की राजनीति प्रधानमंत्री की इस सभा से प्रभावित हुई है। प्रधानमंत्री ने भले ही पूर्णिया से हजारों करोड़ की योजनाओं को हरी झंडी दिखाई हो लेकिन उन्होंने घुसपैठिये को लेकर जो बयान दिया वह सबसे अधिक चर्चा में है।

सीमांत जिले की चुनावी राजनीति को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में घुसपैठिये शब्द पर सबसे अधिक जोर दिया। उन्होंने कहा, “बिहार में एक भी घुसपैठिया नहीं रहेगा। ये कांग्रेस और राजद वाले लोग घुसपैठिए को बचाने में लगे हैं। ये लोग बेशर्मी की हद भी पार कर चुके हैं। ये राजद और कांग्रेस वाले लोग देश की सुरक्षा और सम्मान को भी दाव पर लगा दे रहे हैं। ये राजद और कांग्रेस वाले जितना कर ले पर यह मोदी की गारंटी है कि यहां जो भी घुसपैठिए हैं उन्हें बाहर जाना ही पड़ेगा।”

गौरतलब है कि बिहार के सीमांत इलाके में किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जिले आते हैं और ये इलाका पश्चिम बंगाल और असम से सटा हुआ है। इन जिलों में 24 विधानसभा सीटें आती हैं। अररिया जिले में 6, किशनगंज में 4, पूर्णिया 7 और कटिहार में 7 विधानसभा सीटें हैं, जो चुनावी समीकरण को बनाने और बिगाड़ने का काम करती हैं। यहां खासबात ये है कि मुस्लिम आबादी ज्यादा है, जिसके चलते राजनीतिक दल अपने दांव-पेंच से उन्हें अपने पाले में करने में जुटे रहते हैं।

साल 2011 की जनगणना के मुताबिक अररिया में 43 फीसदी, किशनगंज में 68 फीसदी, पूर्णिया में 38 फीसदी, कटिहार में 44 फीसदी मुस्लिम वोटर हैं। इसके अलावा यादवों और अति पिछड़े वर्गों (ईबीसी) की अच्छी-खासी उपस्थिति है, जिसके चलते राजनीतिक समीकरण निर्णायक बन जाता है।

वैसे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूर्णिया रैली से भाजपा नेताओं की बांछें खिली हुई हैं। हालांकि मोदी की बड़ी-बड़ी बातें वोटरों का दिल जीतने में कितना कारगर साबित हो पाती हैं, ये तो विधानसभा चुनाव के परिणाम से ही पता चल पाएगा लेकिन फिलहाल मोदी की इस रैली ने एनडीए में जान फूंकने का तो काम कर दिया है।

लेकिन इन सब बातों के बीच यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि कभी राजनीति के अपराधिकरण को लेकर कुख्यात पूर्णिया अंचल अब विकास की राजनीति पर भरोसा करने लगा है।

हवाई अड्डे से लेकर एक्सप्रेस वे की खबरों को लेकर पूर्णिया इन दिनों सबसे अधिक सुर्खियां बटौर रहा है।

एक दौर वो भी था जब यहां की राजनीति रक्तरंजित हुआ करती थी। जब यहां अपराध और राजनीति आपस में मिलकर चुनावी नैया पार कराती थी। वह पूर्णिया का ‘राजनीति के अपराधीकरण’ का दौर था।

पुराने दिनों के आंकड़ों पर नजर दौड़ाने पर पता चलता है कि पूर्णिया एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र रहा है जहां दो विधायकों की हत्या उनके कार्यकाल के दौरान हुई है। यहां के दो विधायकों की हत्या ने बिहार की राजनीति में बड़ा भूचाल ला दिया था। 14 जून 1998 को पूर्णिया सदर से माकपा विधायक अजीत सरकार की दिनदहाड़े गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी गई थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि उन्हें 107 गोलियां मारी गई थीं। इस राजनीतिक हत्या का आरोप पप्पू यादव पर लगा। मामले की जांच सीबीआई को सौंपी गई। 2008 में सीबीआई कोर्ट ने पप्पू यादव को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, हालांकि, 2013 में हाई कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।

अजीत सरकार के बाद 4 जनवरी 2011 को पूर्णिया सदर से ही भाजपा विधायक राजकिशोर केशरी की उनके आवास पर दिनदहाड़े चाकू से गोदकर हत्या कर दी गई। हत्यारी रूपम पाठक थी, जो एक निजी स्कूल की संचालिका थी। उसने हत्या से करीब 7 महीने पहले विधायक केशरी और उनके पीए विपिन राय पर यौन शोषण का मामला दर्ज कराया था। इस हत्या के मामले में रूपम पाठक को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। इन दोनों घटनाओं ने पूर्णिया की राजनीतिक जमीन को रक्तरंजित कर दिया और यह जिला बिहार का एकमात्र ऐसा जिला बन गया जहां दो विधायकों की उनके पद पर रहते हुए हत्या हुई।

सीमांत जिले में अपराध की राजनीति और चुनाव में राजनीति के अपराधिकरण की कहानी यदि सुनाई जाए तो उसमें पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र के धमदाहा विधानसभा का भी जिक्र आता है। जानकार बताते हैं कि 90 के दशक में, पूर्णिया जिले में अपराध की दुनिया में लड्डू सिंह और बूटन सिंह (मधुसूदन सिंह) की जोड़ी कुख्यात थी। बूटन सिंह ने अपराध का रास्ता छोड़ राजनीति में कदम रखा।

1995 में, उन्होंने धमदाहा विधानसभा सीट से बिहार पीपुल्स पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन बाहुबली छवि वाले जनता दल के प्रत्याशी दिलीप कुमार यादव से हार गए।

साल 2000 में, बूटन सिंह ने अपनी पत्नी लेशी सिंह को समता पार्टी के टिकट पर मैदान में उतारा। इस बार, लेशी सिंह ने दिलीप यादव को हराकर जीत हासिल की। इसी बीच, 19 अप्रैल 2000 को, जेल में बंद बूटन सिंह की अदालत परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस घटना को एक राजनीतिक हत्या माना गया और इसका आरोप दिलीप कुमार यादव पर लगा, हालांकि बाद में न्यायालय ने उन्हें इस आरोप से बरी कर दिया।

फरवरी 2005 के चुनाव में लेशी सिंह फिर जीतीं, लेकिन नवंबर 2005 के चुनाव में उन्हें दिलीप यादव से हार का सामना करना पड़ा। उसके बाद से, जेडीयू से लेशी सिंह लगातार जीत हासिल कर रही हैं। भले ही लेशी सिंह की खुद की कोई बाहुबली छवि नहीं है, लेकिन उन्हें हमेशा स्वर्गीय बूटन सिंह की राजनीतिक वारिस माना जाता है।

हालांकि बिते दिनों की बातों को पीछे छोड़ते हुए बिहार का यह इलाका इन दिनों अपनी तकदीर खुद लिख रहा है। मक्का और मखाना ने इस इलाके की छवि बदल दी है। लेकिन राजनीति अभी भी मतों के ध्रुवीकरण पर टिकी हुई है। भाजपा को मतों के ध्रुवीकरण से फायदा मिलता रहा है और शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने घुसपैठ के मुद्दे को सामने लाकर भविष्य की चुनावी राजनीति का संकेत दे दिया है। भाजपा जानती है कि ऐसे मुद्दे से मतों का ध्रुवीकरण होगा, जिसका लाभ उसे मिल सकता है।

गिरीन्द्र नाथ झा
गिरीन्द्र नाथ झा ने पत्रकारिता की पढ़ाई वाईएमसीए, दिल्ली से की. उसके पहले वे दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक कर चुके थे. आप CSDS के फेलोशिप प्रोग्राम के हिस्सा रह चुके हैं. पत्रकारिता के बाद करीब एक दशक तक विभिन्न टेलीविजन चैनलों और अखबारों में काम किया. पूर्णकालिक लेखन और जड़ों की ओर लौटने की जिद उनको वापस उनके गांव चनका ले आयी. वहां रह कर खेतीबाड़ी के साथ लेखन भी करते हैं. राजकमल प्रकाशन से उनकी लघु प्रेम कथाओं की किताब भी आ चुकी है.

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