अगर आप राजधानी में रहते हैं या यहां आते-जाते हैं तो आपने जनपथ में लाल बहादुर शास्त्री स्मारक को अवश्य देखा होगा। यहीं शासत्री जी पहले नेहरू सरकार में मंत्री और फिर देश के प्रधानमंत्री के रूप में रहे। वे 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। उनके जीवन की सादगी का एक प्रमुख उदाहरण उनका सरकारी आवास था। यहां पर ही उनका परिवार भी रहा करता था।
कब से कब तक रहे
लाल बहादुर शास्त्री का दिल्ली में प्रधानमंत्री काल के दौरान निवास 1, मोतीलाल नेहरू प्लेस (पूर्व में 1, यॉर्क प्लेस) था, जो जनपथ रोड के निकट स्थित है। यह सारा एरिया लुटियंस दिल्ली का हिस्सा है। शास्त्री जी 1952 से 1966 तक इस घर में रहे। शास्त्री जी का यह घर लगभग 2 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था, जिसमें मुख्य भवन, गेस्ट हाउस, स्टाफ क्वार्टर्स और एक बड़ा लॉन शामिल था। शास्त्री जी जब प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने इस घर को अपने सरकारी आवास के रूप में चुना।
किस-किस से मिलते थे
शास्त्री जी ने 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान राष्ट्र से अपील की कि लोग एक समय का भोजन छोड़ दें, और खुद अपने परिवार से इसकी शुरुआत की। उनके घर के लॉन में अनाज उगाया जाता था, जो उनकी आत्मनिर्भरता की नीति का प्रतीक था। शास्त्री जी घर की आंतरिक सज्जा बेहद सरल थी—लकड़ी के फर्नीचर, भारतीय कला के कुछ टुकड़े और किताबों की अलमारियां। कोई विलासिता नहीं, बस जरूरी सामान। शास्त्री जी यहां अपने कार्यालय से जुड़े काम भी करते थे, और अक्सर मंत्रियों या नेताओं से मिलते थे।
मां जैसी ललिता जी
शास्त्री जी के घर में इस लेखक को 1988 में उनकी पत्नी ललिता शास्त्री जी का हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए इंटरव्यू करने का मौका मिला। तब ललिता जी एक कमरे में मौजूद थीं। उनके पास कुछ और भी महिलाएं बैठी थीं। उस सारे माहौल को देखकर कोई कह ही नहीं सकता था कि ये देश के पूर्व प्रधानमंत्री का सरकारी आवास था। शास्त्री जी के निधन के बाद उनका सरकारी आवास ललिता जी को आवंटित कर दिया गया था। ललिता जी में कोई भी अपनी मां को देख सकता था।
नारा “जय जवान, जय किसान” का
शास्त्री जी का घर जनपथ और अकबर रोड के चौराहे पर है। ये इंडिया गेट से कुछ मिनट की दूरी पर है। इसके आसपास कई सरकारी भवन हैं। शास्त्री जी के समय यह क्षेत्र शांत और हरा-भरा था, जो उनकी शांतिप्रिय प्रकृति से मेल खाता था। उनका घर न केवल रहने की जगह था, बल्कि राष्ट्रीय निर्णयों का केंद्र भी। यहां से उन्होंने “जय जवान, जय किसान” का नारा दिया, जो आज भी प्रासंगिक है।
कौन-कौन रहता था शास्त्री जी के घर में
उनकी पत्नी ललिता शास्त्री के अलावा उनके बच्चे भी रहते थे। शास्त्री जी के राजनीतिक जीवन का मजबूत सहारा थीं ललिता जी। शास्त्री परिवार के निजी चिकित्सक डॉ. आर.के. करौली बताते थे कि शास्त्री जी रोज ललिता जी और अपने बच्चों के साथ कुछ वक्त अवश्य बिताया करते थे। शास्त्री जी और ललिता जी के छह बच्चे थे: चार बेटे और दो बेटियां। उनके सबसे बड़े बेटे हरि कृष्ण शास्त्री आगे चलकर सांसद भी बने। वे मंदिर मार्ग के हरकोर्ट बटलर स्कूल में पढ़ते थे।

यहां पर शास्त्री जी की सबसे बड़ी बेटी कुसुम शास्त्री और दूसरी बेटी सुमन शास्त्री भी रहीं। उनके पुत्र सिद्धार्थ नाथ सिंह भाजपा के नेता हैं। शास्त्री जी के दो पुत्र अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री भी यहां रहे। इनका एक भाई अशोक शास्त्री भी था। उनका बहुत पहले निधन हो गया था। डॉ. करौली बताते थे कि शास्त्री जी खुद अपने बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देते थे। उदाहरण के लिए, जब शास्त्री जी ने कार खरीदने के लिए बैंक से लोन लिया, तो परिवार ने इसमें सहयोग किया। घर में कोई नौकर नहीं, बल्कि परिवार खुद काम करता था। ललिता जी रसोई संभालतीं, जबकि बच्चे पढ़ाई और घरेलू मदद में लगे रहते।
शास्त्री स्मारक: इतिहास और स्थापना
शास्त्री जी के निधन के बाद, उनका निवास उनके स्मारक में बदल दिया गया। ट्रस्ट की स्थापना उनकी स्मृति को संरक्षित करने के लिए की गई। यह अब जनता के लिए खुला है। यह स्मारक शास्त्री जी की मृत्यु के बाद उनके योगदान को याद करने के लिए बनाया गया, विशेष रूप से 1965 के युद्ध और उनकी “जय जवान, जय किसान” नीति को।
स्मारक में क्या-क्या
शास्त्री जी की फिएट कार (जिसके लिए उन्होंने लोन लिया), उनकी डायरी, चश्मा और “जय जवान, जय किसान” का मूल पोस्टर। ताशकंद समझौता की कॉपी, युद्धकालीन पत्र और उनके भाषणों की रिकॉर्डिंग। ललिता जी और बच्चों की तस्वीरें, जो उनके पारिवारिक जीवन को दर्शाती हैं। शास्त्री जी की किताबें और गांधीवादी साहित्य। ऑडियो-विजुअल रूम: शॉर्ट फिल्में उनके जीवन पर। इधर एक छोटा सा ऑडिटोरियम भी है जहां सेमिनार होते हैं। प्रवेश निशुल्क है, समय सुबह 10 से शाम 5 बजे तक। यहां आकर आगंतुक शास्त्री जी की उपस्थिति को महसूस करते हैं। शास्त्री स्मारक न केवल एक म्यूजियम है, बल्कि प्रेरणा का स्रोत है।
दिल्ली बद्ररहुड सोसायटी के प्रबंधक सोलोमन जॉर्ज कहते हैं कि यहां आकर आप सीखते हैं कि सत्ता में रहकर भी सादगी कैसे बरती जा सकती है। सोलोमन जॉर्ज अपने सोनीपत में स्थित सेंट स्टीफंस कैम्ब्रिज स्कूल के स्टिूडेंट्स को भी शास्त्री जी के स्मारक में लेकर जा चुके हैं ताकि बच्चों को उनके बारे में पता चल सके।

बता दें कि दिल्ली ब्रदरहुड सोसयटी ने ही राजधानी में सेंट स्टीफंस कॉलेज की स्थापना की थी। शास्त्री जी का घर और स्मारक दिल्ली के इतिहास का हिस्सा हैं। आज यह स्थान युवाओं को राष्ट्रसेवा की प्रेरणा देता है। कुल मिलाकर, यह घर और स्मारक शास्त्री जी के जीवन का जीवंत चित्रण हैं, जो हमें उनकी विरासत से जोड़ते हैं।
क्यों नहीं रहे तीन मूर्ति
देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद लाल बहादुर शास्त्री किसी भी सूरत में तीन मूर्ति भवन में रहने के पक्ष में नहीं थे। कहते हैं कि पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद तीन मूर्ति भवन लालबहादुर शास्त्री को आवंटित हुआ। लेकिन उन्होंने वहां शिफ्ट करने से मना कर दिया था। शास्त्री जी तीन मूर्ति भवन में मोटे तौर पर दो कारणों के चलते जाने के लिए तैयार नहीं थे। पहला, शास्त्री जी का तर्क था कि वे जिस पृष्ठभूमि से आते हैं,उसे देखते हुए नका तीन मूर्ति में रहना ठीक नहीं रहेगा। दूसरा, वे तीन मूर्ति भवन में इस आधार पर भी जाने के लिए राज़ी नहीं हुए क्योंकि वे मानते थे कि देश तीन मूर्ति भवन को नेहरू जी से भावनात्मक रूप से जोड़कर देखता है। इसलिए वहां पर उनका कोई स्मारक बने।
कहने वाले कहते हैं कि तीन मूर्ति भवन पीएम हाउस के लिए सबसे मुफीद रहता। ये राजधानी के बीचों-बीच होने के अलावा संसद भवन और केन्द्रीय सचिवालय के भी बहुत करीब है। विशाल क्षेत्र में फैला होने के कारण यहां पीएम हाउस में काम करने वाले अधिकतर मुलाजिमों के रहने की भी व्यवस्था की जा सकती थी। कनॉट प्लेस के आर्किटेक्ट रोबर्ट टोर रसेल ने ही इसका डिजाइन तैयार किया था।
एक बंगले से निकले तीन बंगले
शास्त्री जी की 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में मृत्यु के बाद श्रीमती ललिता शास्त्री उसी जनपथ स्थित बंगले में रहती रहीं,जो शास्त्री जी को प्रधानमंत्री के रूप में मिला हुआ था। हालांकि उस बंगले से बाद में दो और बंगले निकाले गए। उनमें से एक में अब सोनिया गांधी रहती हैं। ललिता शास्त्री जी कहती थी कि सरकार को उनकी मौत से जुड़े दस्तावेज सार्वजनिक कर देने जाने चाहिए। शास्त्री जी के दोनों पुत्रों क्रमश: अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अपने पिता की मौत से जुड़े दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की मांग करते रहे हैं।

क्यों आए थे अयूब खान
कुछ जानकार सवाल करते हैं कि पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति और सैनिक तानाशाह अयूब खान शास्त्री जी की मृत्यु के बाद उनके परिवार से मिलने क्यों आए थे? जिस पाकिस्तानी तानाशाह ने 1965 में भारत पर आक्रमण किया था वह भारत और शास्त्री जी के प्रति इतना उदार क्यों हो गया? 1965 की जंग में युद्ध विराम के बाद भारत और पाकिस्तान के नेता ताशकंद गए, वहां पर ही शास्त्री की मौत हो गई थी।जनरल अयूब खान (1907-1974) पाकिस्तान के पहले सैन्य तानाशाह थे, जिन्होंने 1958 में तख्तापलट कर सत्ता हथियाई। वे 1951-1958 तक पाकिस्तानी सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ रहे और 1958-1969 तक राष्ट्रपति। पश्तून मूल के, उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और सैंडहर्स्ट में शिक्षा प्राप्त की। 1965 के भारत-पाक युद्ध में उनकी भूमिका विवादास्पद रही। सुधारों के बावजूद, मताधिकार प्रतिबंध और कश्मीर मुद्दे पर विफलता ने उनकी लोकप्रियता घटाई।
ताशकंद जाने से पहले स्वस्थ
ललिता जी कहती थीं कि ताशकंद जाने से पहले शास्त्री जी पूरी तरह से स्वस्थ थे। तो फिर उन्हें वहां पर अचानक से क्या हो गया कि उनकी जान ही चली गई। यह बात तो शास्त्री जी के निजी चिकित्सक डॉ. आर.के.करौली बात कहते हैं। वे तब विलिंगडन अस्पताल ( अब राम मनोहर लोहिया अस्पताल) से जुड़े हुए थे। लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कालेज से पढ़े डॉ. करौली कहते थे कि शास्त्री ताशकंद जाने से पहले स्वस्थ थे। उन्होंने उनके स्वास्थ्य की जांच की थी। शास्त्री जी की सेहत पर अस्पताल के चीफ डॉ. आर.एन. चुग भी नजर रखते थे। डॉ. चुग की एक सड़क हादसे में मौत हो गई थी। इस कारण शास्त्री जी की मौत की गुत्थी उलझ गई। ललिता शास्त्री जी का सीधा आरोप होता था कि उनके पति की मृत्यु संदिग्ध हालातों में हुई। वे कहती थी कि पति की मौत के बाद वे कभी सामान्य नहीं हो सकी। उस चोट से उनका परिवार कभी उबर ही नहीं सकीं। ललिता शास्त्री इस बंगले में 1993 तक यानी अपनी मृत्यु तक रहीं।
धन्यवाद जानकारी के लिए। मुझे भी एक बार उस बंगले में जाने और ड्राइंग रूम में सुनील शास्त्री के साथ बतियाने का अवसर मिला था।