अब जब चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा कर दी है, तो पुराने ज़माने की कुछ चुनावी फंडिंग की कहानियां फिर से प्रासंगिक हो गई हैं।
मैं उस समय जयपुर में पोस्टेड था। गुजरात के पूर्व गृहमंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके प्रभोध रावल 1993 के राजस्थान विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी के प्रभारी थे। वे खासा कोठी (वीआईपी गेस्ट हाउस) में एआईसीसी सचिव राजूभाई परमार के साथ ठहरे थे। अहमदाबाद में मेरी पोस्टिंग के दौरान से ही हम दोनों एक-दूसरे को जानते थे, इसलिए मैं रोज़ाना सुबह नाश्ते पर उनसे मिलने जाता था।
एक सुबह देखा कि उनके कमरे के बाहर हरियाणा पुलिस के दो लम्बे-चौड़े जवान तैनात हैं। पता चला कि भजनलाल दो बड़े स्टील के बक्सों में नकदी भेज चुके हैं, जो पार्टी प्रत्याशियों में बांटी जानी थी। सुबह 10 बजे के बाद उम्मीदवार या उनके प्रतिनिधि खासा कोठी पहुंचने लगे। पार्टी दफ्तर से उम्मीदवारों को टेलीग्राम भेजे जाते थे, और वही रकम लेने के पहचान-पत्र की तरह काम करता था। राजूभाई परमार की ड्यूटी थी- टेलीग्राम देखकर नोटों के बंडल सौंपना। रकम हर प्रत्याशी और उसके क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग होती थी।
इस दौरान पार्टी के बड़े नेता- प्रणब मुखर्जी, प्रियरणजन दासमुंशी और सुधाकर रेड्डी भी जयपुर में मौजूद थे। वे पांच सितारा होटलों में ठहरे थे और अजमेर रोड स्थित हरीदेव जोशी के फार्महाउस में रणनीति बैठकें होती थीं। उम्मीदवार श्रीगंगानगर, सूरतगढ़ और सवाई माधोपुर जैसे दूरदराज़ इलाकों से आते थे।
ओडिशा में “खजाना”
भुवनेश्वर में नंदिनी नंदिनी सत्पथी का यूनिट-VI स्थित बंगला कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए असली “खजाना” था। वे इंदिरा गांधी की बेहद करीबी मानी जाती थीं। उन्होंने मुझे दो बड़ी स्टील अलमारियां दिखाईं और बताया कि चुनाव के वक्त ये दोनों नकदी से भरी रहती थीं। उद्योगपतियों से चंदा जुटाकर एस. निजलिंगप्पा ने उन्हें रकम वितरण का अधिकार दिया था। उम्मीदवार रजिस्टर में हस्ताक्षर करके अपनी रकम वहीं उनके सामने लेते थे, और यह सुनिश्चित किया जाता था कि एक भी रुपया बंडल से गायब न हो।
बिहार का तरीका
बिहार में पैसा बांटने का सिस्टम कुछ अलग था-पूरी प्रक्रिया विकेंद्रीकृत थी। रातों-रात टैक्सियों में पैकेट भेजे जाते। कई बार उम्मीदवारों ने शिकायत की कि रकम में “कट” लग चुका है, यानी रास्ते में कुछ हिस्सा गायब हो गया।
और अब…
2010 के बाद से लोकसभा उम्मीदवारों के लिए चुनावी खर्च की सीमा लगभग दोगुनी से भी ज़्यादा बढ़ चुकी है।
2011 में बड़े राज्यों में सीमा 40 लाख रुपये और छोटे राज्यों में 22 लाख रुपये थी।
2014 के चुनावों से पहले इसे बढ़ाकर 70 लाख रुपये (छोटे राज्यों में 54 लाख रुपये ) कर दिया गया।
2020 में 10% की और बढ़ोतरी हुई।
2022 में इसे बड़े राज्यों के लिए 95 लाख रुपये और छोटे राज्यों के लिए 75 लाख रुपये कर दिया गया-यही सीमा 2024 के चुनावों में लागू थी।
कुल मिलाकर 2011 से बड़े राज्यों में 55 लाख रुपये और छोटे राज्यों में 53 लाख रुपये की बढ़ोतरी हुई। यानी 2.4 से 3.4 गुना ज्यादा।