बाबर ने फ़ैसला किया कि वो अपना सामान वहीं स्टेशन मास्टर की निगरानी में छोड़कर पैदल ही अपने गाँव चला जाए।
चाँदनी रात है और ज़्यादा से ज़्यादा दो-ढाई मील का फ़ासला है…चलो!…उसने अपने आपको हुक्म दिया और मुस्कुराने लगा…अरे भाई, रिटायर होकर आ रहे हो, अब भी हुकुम-वुकुम चलाते रहोगे तो औरों को तो छोड़ो, अपना कहना ख़ुद भी न मानोगे।
स्टेशन मास्टर से मिलकर वो रेलवे प्लेटफ़ार्म से बाहर आ गया और उसकी आँखों से निकल कर उसके सामने एक सड़क दूर-दूर तक सीधी बिछती चली गई। सड़क के दोनों किनारों पर बरगद के पेड़ जड़ें लटकाए चुपचाप जैसे हथियार डालकर निहत्थे खड़े थे।
ख़बरदार! भागने की कोशिश की तो गाड़ के रख दूँगा।
बाबर के नाम से बड़े-बड़े डाकू कानों पर हाथ रखते थे।
नहीं, कानों तक नहीं, एक दम सीधे ऊपर उठाओ।
बरगद का वो पेड़ तो बिल्कुल पराराम सिंह दिखाई दे रहा था। बाबर की आँखों की दुनाली बंदूक़ के सामने दोनों हाथ ऊपर उठाए!…
बाबर हँसने लगा। जब तक आज़ाद था चारों तरफ़ उत्पात मचाए हुए था, पर अब जब गड़ गया है तो दाढ़ी खोल कर फ़क़ीर बन गया है… नहीं… बाबर ने ज़रा गंभीर होकर अपने आप से सहमत होने से इन्कार कर दिया… राम सिंह तूफ़ानी ज़रूर था लेकिन शुरू से ही दिल का गहरा और मँझा हुआ फ़क़ीर था।
वो सड़क पर उतर आया और उसके क़दम तेज़ी से अपनी हवेली की तरफ़ उठने लगे… मैंने अच्छा ही किया कि ख़बर दिए बिना चला आया हूँ, निशू को हमेशा शिकायत रहती है कि मैं बिना ख़बर दिये अचानक ग़ायब हो जाता हूँ… और बिना ख़बर के आ जाता हूँ, तब… ? तब भी यही लगता है कि किसी डाकू की क़ैद से एक-आध घंटे की मोहलत लेकर आए हो… चलो अच्छा हुआ, इस धंधे से छुटकारा मिल गया है। अब मज़े से सारी उम्र अपने गाँव की हवेली में गुज़ार देंगे, जो मन में आया, करेंगे… पर जो कुछ भी करना है वो तो तुम कर चुके हो बाबर। नहीं, अभी हमें बड़े-बड़े डाके डालने हैं निशू, और फिर इकट्ठा सूली पर चढ़ना है… तो ठीक है मेरे डाकू, मैं अभी जाकर तुम्हारी गुफ़ा की झाड़ फूँक करती हूँ… अभी…? और क्या? इतनी बड़ी हवेली है, दो-चार महीने भी पहले गाँव न गई, तो क्या हम चमगादड़ हैं कि वहाँ चैन से उल्टा लटक कर गुजार देंगे? तुम अपनी रिटायरमेंट पर चले आना, मैं अभी जाकर हवेली को रहने के क़ाबिल बनाती हूँ… तो फिर मुझे कौन इस क़ाबिल बनाएगा कि मैं तुम्हारी हवेली में रह सकूँ?… वहाँ पहुँचो तो, फिर देखो कैसे इस क़ाबिल बनाती हूँ…
बाबर सोच रहा था कि चौकीदार को समझा कर बाहर हवेली के गेट पर ही रोक दूँगा और दबे पाँव निशू के सोने के कमरे की तरफ़ चला जाऊँगा और फिर रोशनदान से दरवाज़े की अंदरूनी चटख़नी खोल कर चुपके से उसके साथ जा पडूँगा। निशू इस उम्र में भी खुली आँखों से सपने देखने की आदी है। जाग भी पड़ी तो ख़्वाब में डूबी पड़ी रहेगी और जब ख़्वाब से उभरेगी तो मुझे सच में वहाँ पाकर ख़ुशी से काँपती हुई गले से चिमटा लेगी… डाकू!… डाकू!… उसे अपना डी॰एस॰पी॰ पति इसलिए अज़ीज़ था क्योंकि उसे डाकू सा लगता था।
बाबर किसी ऑटोमोबाइल की तरह स्पीड में उड़ा जा रहा था कि उसे बेचैनी का एहसास होने लगा कि कोई उसका पीछा कर रहा है। दरअसल जिस दिन से वो अपनी पोस्ट से रिटायर हुआ था उसे कई बार महसूस हो चुका था कि कोई उसके पीछे लगा हुआ है। वो बुज़दिल न था और पेशे की ट्रेनिंग और धैर्य के कारण उसमें इतनी हिम्मत थी कि सामने से दस आदमी भी टूट पड़ें तो वो उनके मुक़ाबले में डट जाए, लेकिन कोई आगे हो न पीछे, बस कहीं छुप कर हर पल आप की टोह में हो। इस हालत में आप पर असमंजस और डर की कैफ़ियत तारी हो ही जाती है। बाबर ने अपने डर पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए लगातार आगे बढ़ते रहना चाहा, पर वो बरगद का पेड़ अपनी जड़ें हिला-हिला कर उस पर हँसने लगा… बाबर, अपने पीछे देखने से क्यों घबरा रहे हो?… देखो…!…वो देखो, कौन आ रहा है?… बाबर ने तेज़ी से अपना सर मोड़ लिया। पीछे कोई भी नहीं आ रहा था….नहीं, वो…वहाँ थोड़े फ़ासले पर… नहीं! वो तो कुत्ता है… कुत्ता उछल-उछल कर चाँदनी में फँसे हुए अपने ही साए से लड़ रहा था, या शायद खेल रहा था, बाबर को अपनी तरफ़ देखते हुए पाकर वो रुक गया और उसकी तरफ़ सर उठाकर शायद सोचने लगा कि भौंकना शुरू कर दे या उसे जाने दे। बाबर ने उसे पुचकार कर अपने पास बुलाना चाहा जिससे कुत्ते को ग़ुस्सा आ गया और वो भौंकने लगा। उसके भौंकने की आवाज़ सुन कर बाबर चौंक पड़ा।… ये तो… ये तो ग़फ़्फ़ार के कुत्ते की आवाज़ है। ग़फ़्फ़ार एक निहायत क्रूर मुजरिम था। एक बार बाबर ने उसे उसके घर से दबोच लिया तो कहीं से यही कुत्ता… अरे हाँ, यही तो था… उसे काट खाने के लिए कूद पड़ा… और… और बाबर ने उसे शूट करके वहीं ठंडा कर दिया। ये कुत्ता… ये… ये तो… बाबर ने बड़े ग़ौर से देखा तो उसे मालूम हुआ कि कुत्ता दरअसल चुपचाप खड़ा है और उसका इतना बड़ा साया चाँदनी में से उछल-उछल कर भौंक रहा है… ऐसे कैसे?… नहीं, साया भी ख़ामोश था… और कुत्ता भी… लेकिन उसके कानों में भौंकने की आवाज़ ज्यों की त्यों आ रही थी… बाबर को अपने पाँव बड़े वज़नी महसूस होने लगे लेकिन वो हिम्मत करके अपने रास्ते पर तेज़-तेज़ चलने लगा। तीन चार बरगदों के ठहाकों ने उसका पीछा किया और आगे के कई बरगद हड़बड़ाकर जाग उठे और जागने के बावजूद ख़्वाब की कैफ़ियत में अपनी जड़ें नोचने लगे… बाबर अंजाने में मुस्कुराने लगा और मुस्कुराते-मुस्कुराते उसे याद आया कि एक बार मैंने निहायत ग़ुस्से की हालत में एक मुजरिम की दाढ़ी ऐसे नोची थी कि मेरे हाथ आ गई।
हाएँ! तुम?…
हाँ, क्या करता बाबर साहब? आपको मेरी असली शक्ल पसंद नहीं तो मुझे ख़याल आया कि साधू महात्मा क्यों न बन जाऊँ, लोग साधू कहेंगे तो अपने-आपको साधुओं सा ही लगूँगा…
लेकिन महात्मा जी, मेरी जानकारी में तो आप जेल भुगत रहे थे… मैं बड़ी फुर्ती से उसे पिस्तौल के निशाने पर रखे हुए था… उसने मुझे बड़ी नर्मी से बताया, जेल मुझे भुगत रही है बाबर साहब…
वो कैसे?…
ऐसे!… वो किसी छलावे की तरह उल्टी छलांग लगा कर पीछे की खुली खिड़की से कूद गया… इतना निडर और साहसी आदमी था कि उसका पीछा करने को इसलिए जी चाहा कि उससे एक और मुलाक़ात हो जाएगी।
बाबर अंधाधुंध सड़क पर चला जा रहा था। उसकी आँखें खुली थीं मगर मालूम नहीं वो कहाँ देख रहा था। उसके ठीक सामने… वो… बड़ा सा पत्थर पड़ा था और पत्थर पर चाँदनी औंधी होकर लेटी हुई थी और उसकी रग-रग में समा गई थी जिससे उसमें जान पड़ गई थी… उनकी वो सारी रात इसी तरह बीत जाती तो शायद सुबह को वहाँ पत्थर की बजाए कोई सचमुच का सजीव पड़ा होता: कोई आदमी, चौपाया, परिंदा या साँप, लेकिन… अर…र! तेज़ी से चलते हुए बाबर का पाँव पत्थर से टकरा गया। चाँदनी बाबर के साए से हड़बड़ाकर अलग हो गई, पत्थर फिर पत्थर हो गया और बाबर गिरते-गिरते मुश्किल से बचा… हा हा हा!… पीछे से किसी के हँसने की आवाज़ आई… बाबर ने अपने कोट की अंदरूनी जेब में हाथ डालकर पिस्तौल निकालना चाहा लेकिन उसे याद आया कि पिस्तौल तो उसके सूटकेस में रखा है जो वो स्टेशन मास्टर के पास छोड़ आया है… वो मुड़ कर खड़ा हो गया और अपनी आँखों को सर्च लाइट की तरह सावधानी से घुमाने लगा… और घुमाते-घुमाते उन्हें फ़ौरन एक जगह पर जमा लिया… वो… वहाँ चाँदनी के पीछे पेड़ के साए में कोई इंसानी ख़ाका मुस्कुरा रहा है! बाबर की नज़रें अपने ऊपर पड़ते ही वो ख़ाका पेड़ के गहरे साए की तरफ़ उछल गया। लेकिन बाबर ने शायद उसे पहचान लिया था… नहीं, ये मेरा वहम है। ऐसे कैसे हो सकता है?… अपना पाँव सहलाकर उसने फिर उजाड़ सड़क पर चलना शुरू कर दिया और कुछ दूर जाकर उसका मानसिक तनाव कम हुआ तो वो ढीली-ढीली नज़रों से आस-पास देखने लगा। लेकिन बाहर की वीरानी का असर था या क्या था कि उसकी आँख बार-बार अपने ज़ेहन की तरफ़ उठ रही थी।
बाबर का दिमाग़ एक भीड़ भरी सड़क बना हुआ था और कई मुजरिम जिन्हें वो फाँसी दिलवा चुका था उस सड़क पर चैन और आज़ादी से घूम रहे थे कि लगता था यहीं कहीं से कटे हुए रास्तों की बस्तियों के वासी थे। उनकी किसी तरह की हरकत पर यहाँ कोई पाबंदी न थी। कोई सोच भी न सकता था कि वो ख़ूनी और डाकू हैं। किसी को मर के कहीं पहुँचना नसीब हो तो वो अपनी अच्छाइयों के सिवा वहाँ कुछ नहीं ला सकता। बाबर को यक़ीन था कि सब के सब यहाँ बड़ी नेक ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं… ये लालू… वो रूपा… वो बंतो… मोहना… राघव… सब के सब इतने सीधे और साफ़ हैं कि अपनी बजाए अपने भूत दिखाई देते हैं…
इन भूतों को हर दम सर पर चढ़ा के रखोगे… पिछली बार भी आदत के चलते वो अपनी बीवी से उनकी बातें करने लगा, तो उसने चेताया कि… तो एक दिन ये तुम्हें तुम्हारे दिमाग़ से बाहर हाँक देंगे। ज़िंदा थे तो तुम्हारी जान के दुश्मन थे, और अब मर-खप चुके हैं तो यही डर लगा रहता है कि तुम्हें पागल बना कर छोड़ेंगे… उन्हें छोड़ो और अपनी बातें करो…
अपनी बातों के लिए ही उनकी बातें कर रहा हूँ निशू… नहीं, पहले पूरा क़िस्सा सुन लो… हाँ, तो जब मुझे ख़बर मिली कि लालू अपनी महबूबा के यहाँ पहुँच गया है तो मैं तुरंत पच्चीस जवान लेकर वहाँ पहुँच गया… तुम लालू को नहीं जानती, पच्चीस तो क्या पच्चीस सौ में से भी ललकार कर साफ़ निकल जाता, लेकिन अबकी बार ये हुआ कि लाउडस्पीकर पर मेरी आवाज़ सुनते ही वो बाहर आ गया और मुझसे मुख़ातिब होकर कहने लगा… अगर विश्वास कर सकते हैं बाबर साहब, तो अपनी पोनी से मिलने के लिए एक घंटे की मोहलत माँगता हूँ… मैं पूरे छ: बजे अपने आप को गिरफ़्तारी के लिए पेश कर दूँगा… और वो पूरे छ: बजे आ गया निशू…
पर अब इसके सिवा उसके पास और चारा ही क्या था?
मैंने कहा, तुम लालू को नहीं जानती। अगर वो अपने वादे का पक्का न होता तो किसी भी जहन्नुम की दीवारें उसके लिए कोई इतनी लंबी न थीं… उसने गिरफ़्तारी के बाद वापसी पर मुझे बताया, मैं बहुत बुरा आदमी हूँ बाबर साहब, लेकिन अपनी पोनी के सीने पर सर टिका लूँ तो कम से कम चार-पाँच दिन तक पूरा फ़रिश्ता बना रहता हूँ। पहले ही आप मेरी ये कमज़ोरी खोज लेते तो आपको परेशानी न होती… और निशू, आज तक वो मेरे दिमाग़ में मोहब्बत के फ़रिश्ते के समान आबाद है। कई बार… हँसो मत। कई बार तुमसे मिले एक अरसा बीत जाता है तो मुझे लगता है, मैं नहीं, मेरा लालू तुमसे मिलने को बेताब है और जी चाहता है कि काम-वाम से बिना झिझक इस्तीफ़ा देकर तुम्हारे पास चला आऊँ।
नहीं भई, भूल के भी ऐसा न करना। करोगे तो उन आख़री दिनों का क्या होगा जो तुम्हारी पेंशन पर हमें गाँव की हवेली में साथ गुज़ारने हैं…
तुम मेरा मज़ाक़ उड़ा रही हो निशू, लेकिन यही तो मैं कह रहा हूँ, जो मोहब्बत करते हैं वो घंटे भर के जल्द मेल-जोल की ख़ातिर सूली से भी नहीं डरते।
नहीं बाबा, तुम दो-दस ऐसे और मोहब्बत करने वालों को सूली पर चढ़वाकर उस वक़्त मुझसे मिलने आओ जब तुम्हारी एक महीने की छुट्टी जमा हो जाए… ये तो तुम्हारे बड़े भाई ने जायदाद के बारे में वकील का नोटिस भेजा है।
बाबर अचानक उदास हो गया और आदमी ग़ुस्से या ख़ुशी में झूठ बोल सकता है, लेकिन उदासी में वो हमेशा सच बोलता है…
हम भी कैसे भाई हैं निशू… मुझे याद आ रहा है कि एक बार हमने एक क़ातिल को ये मशहूर करके फँसा लिया था कि उसका छोटा भाई अचानक हादसा पेश आ जाने से अस्पताल में पड़ा है। क्या ये कमीनगी नहीं कि किसी को बुराई की सज़ा देने के लिए उसकी अच्छाई का इस्तेमाल किया जाए? मेरे ज़्यादातर मुजरिमों को अपनी बुराइयों की सज़ा अपनी अच्छाइयों के कारण मिली है निशू… निशू, मैं कई बार सोचता हूँ कि मेरी क़ुदरती मोहब्बतें… मेरी ज़िंदगी के बुनियादी मूल्य दम तोड़ चुके हैं, दस्तूर और क़ानून की आदतों से मेरी ज़िंदगी का ऊपर-ऊपर तो सब ठीक है लेकिन मेरे अंदर इंसानियत की रूह मर चुकी है।
उसकी बीवी हँस पड़ी…
मेरे अब्बा को हमारी शादी के वक़्त यही तो एक एतराज़ था मौलवी साहब, कि आप पुलिस के आदमी हैं।
हाँ, निशू, मैंने अपनी ज़िंदगी से मज़ाक़ ही किया है कि सिर्फ़ पुलिस का आदमी बना रहा। मैंने ज़िंदगी में क़ानून और उसूलों को तो बरता है, लेकिन इंसाफ़ नहीं बरत पाया।
बाबर अपने आस-पास से बेख़बर उस जंगल के बीचों बीच सीधी राह पर चला जा रहा था और अपने दिल ही दिल में बीवी से पुरानी मुलाकातें दोहराने के बाद इस वक़्त उसकी ग़ैर मौजूदगी में उससे यहीं मिल रहा था…
मैं खरा आदमी नहीं हूँ निशू, बल्कि उम्र भर उन खरे लोगों के शिकार में लगा रहा हूँ जो महज़ अनुशासन में धोखा खाकर अपने-अपने मक़ाम से उखड़ गए, वो जो भी थे, खरे तो थे, लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं जो भी हूँ खरा नहीं हूँ। मैंने हमेशा अपने पेशे को निभाया है, तुमसे भी यही किया है। तुम्हें सारी उम्र इंतज़ार करना पड़ा कि कब मेरी पेंशन हो और कब मैं फ़ुर्सत से तुमसे मोहब्बत करूँ, अनुशासन की इस त्रासदी पर ग़ौर करो निशू, कि हमने अपनी मोहब्बतों को बुढ़ापे तक रोके रखा… कि मेरा भाई कौड़ी-कौड़ी का मोहताज है। लेकिन मैं उसे हिसाब-किताब से एक कौड़ी भी ज़्यादा नहीं देना चाहता हूँ… डाकू बड़े भोले होते हैं निशू और महज़ ऊपरी डाके की खटाखट से बदनाम हो जाते हैं। असल डाका तो ये है कि डाकू मानवता की नस-नस काटकर भी क़ानून की रक्षा करने वाला बना रहे… निशू, जब मेरी माँ मर रही थी तो मैं नौकरी हासिल करने के लिए बड़ी मेहनत से प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठा हुआ था, और जब घर पहुँचा तो मुझे दो ख़बरें मिलीं, माँ की मौत की और अपनी नौकरी की, और मैं खुश था कि चलो नौकरी तो मिल गई… डाकू मैं हूँ निशू, मुहब्बतों का…और नफ़रतों का भी निशू… जिससे भी मैंने नफ़रत की है उसे मुहब्बत से इतनी ज़ोर से भींचा है कि वो लुट-पुट जाए… तुम्हें मालूम है मैं तुम्हारे अमीर बाप से नफ़रत करता हूँ, लेकिन पिछले साल जब मुझे पता चला कि वो अपनी वसीयत लिख रहा है तो मैं उससे निहायत मुहब्बत से पेश आता रहा और सच्चे दिल से महसूस करता रहा कि जिसे मैं नफ़रत समझता था उस में दरअसल मेरी यही मुहब्बत काम कर रही थी… तुम्हारे अब्बा की सेहत अब कैसी है निशू? ख़ैरियत की चिट्ठी तो आती रहती है ना? तुम चुप क्यों हो गई हो? शायद नाराज़ हो गई हो कि मैंने तुम्हारे अब्बा के बारे में अपनी नफ़रत का ज़िक्र क्यों किया है। मैं तो… मैं तो महज़ बात करने के लिए बात कर रहा था निशू… मैं… मैं तुम्हारे अब्बा की इज़्ज़त करता हूँ, लेकिन तुम्हें समझाना चाह रहा था कि मैं निहायत छोटा आदमी हूँ… मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ निशू, कि मुझमें डाकू बनने की भी हिम्मत नहीं। मैं एक मामूली चोर हूँ और इसी वजह से मुझे क़ानून का समर्थन और डाकुओं को सज़ा देने का हक़ हासिल है… तुम अभी तक मुझसे नाराज़ हो… है ना?
अच्छा बाबा माफ़ कर दो… मैं तुम्हारे अब्बा से भी माफ़ी माँग लूँगा… ख़ुदा मुझे माफ़ करे, जो शख़्स हमसे इतना जुड़ा हुआ है कि वसीयत में अपनी बेहिसाब दौलत का सबसे बड़ा हिस्सा हमारे नाम लिख दे, वो यक़ीनन हमारी सारी मुहब्बतों का हक़दार है… लेकिन मैं मानता हूँ निशू, कि मैं बहुत बुरा आदमी हूँ… मैं स्वीकार करता हूँ… निशू, मैं अपने सभी गुनाहों को सच्चे दिल से स्वीकार करता हूँ।
कहा जाता है कि चाँदनी आदमी को पागल बना देती है, शायद इसलिए कि चाँदनी में आदमी को सच बोलने और सोचने की असहनीय चाह होने लगती है… बूढ़े बरगदों ने मुजरिम का क़बूलनामा सुन कर चाँद का शुक्रिया अदा किया जिसे ज़रा सा सर हिलाकर स्वीकारने के बाद वो बादलों की तरफ़ बढ़ने लगा। एक बार फिर अपने क़दमों की आवाज़ सुनते हुए बाबर को एहसास हुआ कि कोई उसका पीछा कर रहा है… कौन…?
वही धुँधला सा इंसानी ख़ाका! बाबर को रुकते हुए पाकर वो भी ठहर गया।
तुम?
बाबर किसी को अपने ज़ेहन की सड़क में ढूँढने लगा और फिर वहाँ से इधर-उधर कटी हुई सभी राहों का चप्पा-चप्पा उसने छान मारा और जिसे वो ढूँढ रहा था वो कहीं न मिला तो फिर अपने सामने खड़े ख़ाके पर निगाह जमा ली।
मैं अगर वाक़ई मैं हूँ तो फिर तुम कौन हो?… बोलो, कौन हो?… क्या… क्या…?
बोलो बाबर… बाबर को जवाब दो… फ़रार होना चाहते हो?… लेकिन फ़रार होना चाहते हो तो मेरा पीछा क्यों कर रहे हो?… तुम्हें डर है कि मैं ख़ुदकुशी कर लूँगा तो तुम कैसे बचे रहोगे… जाओ, जाओ बाबर, मैं तुम्हारे बग़ैर ही अच्छा हूँ… क़ातिलों और हत्यारों की सच्चाइयाँ मुझे हमेशा बचाए रखेंगी… जाओ बाबर! बाबर का पीछा छोड़ो। जाओ…ओ… लालू… रामू… रूपे… मोहने सब आओ! आओ, इस शख़्स को मार-मार कर भगा दो… जान से मार दो… मोहने… रामू… देखो बाबर मेरी तरफ़ बढ़ रहा है… तुम्हारी तरह मुझे भी गिरफ़्तार करना चाहता है… ख़बरदार! एक क़दम भी और आगे बढ़ाया तो तुम्हारा गला घोंट दूँगा… बचाओ…
चाँद बादलों में छुप गया तो चारों तरफ़ अंधेरा छा गया।
ख़बरदार…
बाबर अपनी जान बचाने के लिए सरपट दौड़ने लगा… और बरगदों ने सलाह-मशविरा ख़त्म करके आख़िरी फ़ैसला किया और अपनी जगहों से उखड़-उखड़ कर उसके चारों तरफ़ घेरा डाल लिया… बचाओ… घेरा तंग होता गया… और तंग…
बचाओ… और तंग…
बहुत ड्रामा हो चुका बाबर… अब हाथ ऊँचे कर लो… हमने तुम्हारे ससुर के क़त्ल के सारे सुबूत इकट्ठे कर लिए हैं…
यह कहानी पाठक को बाहरी घटनाओं से अधिक भीतर की छायाओं और स्मृतियों में डुबो देती है।