अमेरिका और जापान के तीन वैज्ञानिकों को इस साल फिजियोलॉजी या मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार 2025 से सम्मानित किया गया है। इन वैज्ञानिकों- मैरी ई. ब्रुनकोव (अमेरिका), फ्रेड राम्सडेल (अमेरिका) और शिमोन साकागुची (जापान) ने यह खोज की कि शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) खुद को कैसे नियंत्रित रखती है, ताकि यह अपने ही शरीर के अंगों पर हमला न करे। इस खोज को ‘पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस’ (Peripheral Immune Tolerance) नाम दिया गया है। इन तीनों वैज्ञानिकों को 10 दिसंबर को स्टॉकहोम में 9 करोड़ रुपये (11 मिलियन स्वीडिश क्रोनोर) की पुरस्कार राशि, एक गोल्ड मेडल और प्रमाण पत्र प्रदान किया जाएगा।
कैरोलिंस्का संस्थान में नोबेल असेंबली ने घोषणा की कि इन वैज्ञानिकों को ‘पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस’ के तंत्र को उजागर करने के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया गया है। यह वह तंत्र है जो प्रतिरक्षा कोशिकाओं को शरीर को नुकसान पहुँचाने से रोकता है। यानी शरीर की इम्यून सिस्टम खुद के अंगों पर हमला क्यों नहीं करती, इस मौलिक रहस्य को तीनों वैज्ञानिकों ने सुलझाने का काम किया है।
नोबेल समिति के अध्यक्ष ओले कैम्पे ने कहा, “इन खोजों ने यह समझने में निर्णायक भूमिका निभाई है कि हमारी इम्यून सिस्टम कैसे काम करती है और क्यों हम सभी गंभीर ऑटोइम्यून बीमारियों से नहीं पीड़ित होते।”
क्या है वैज्ञानिकों की खोज
हर दिन, हमारा इम्यून सिस्टम हजारों वायरस और बैक्टीरिया जैसे रोगाणुओं से हमारा बचाव करता है। लेकिन कई बार यह गलती से हमारे ही स्वस्थ ऊतकों को दुश्मन मान लेता है। इससे ऑटोइम्यून बीमारियां होती हैं, जैसे टाइप-1 डायबिटीज, रूमेटॉयड अर्थराइटिस (गठिया) और लूपस।

ब्रंकॉ, राम्सडेल और साकागुची ने इस जटिल प्रक्रिया को समझने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने इम्यून सिस्टम के ‘सुरक्षा गार्ड’ रेगुलेटरी टी-सेल्स की खोज की। ये खास कोशिकाएं सुनिश्चित करती हैं कि इम्यून सिस्टम हमारे अपने शरीर पर हमला न करे।
इन्हीं रेगुलेटरी टी-सेल्स की खोज ने कैंसर और ऑटोइम्यून रोगों के इलाज में नई दिशा दी है। इसके साथ ही अंग प्रत्यारोपण को भी अधिक सफल बनाने में यह सिद्धांत मददगार साबित हो रहा है।

तीन चरणों में पूरी हुई खोज
इस खोज की यात्रा 1995 में शुरू हुई, जब शिमोन साकागुची ने सबसे पहले इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोध किया। उन्होंने उस समय की प्रचलित सोच को चुनौती दी कि इम्यून टॉलरेंस केवल थाइमस ग्रंथि में हानिकारक कोशिकाओं को समाप्त करने से होती है। उन्होंने दिखाया कि इम्यून सिस्टम कहीं अधिक जटिल है और उन्होंने एक बिल्कुल नए प्रकार की इम्यून कोशिकाओं की खोज की, जो शरीर को ऑटोइम्यून रोगों से बचाती हैं।
इसके बाद, 2001 में मैरी ब्रुनको और फ्रेड राम्सडेल ने आनुवंशिक शोध से इस काम को आगे बढ़ाया। उन्होंने पाया कि ऑटोइम्यून रोग से ग्रस्त चूहों में Foxp3 नामक जीन में उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) था। उन्होंने यह भी साबित किया कि मनुष्यों में भी इसी जीन में म्यूटेशन एक गंभीर ऑटोइम्यून बीमारी, आईपेक्स (IPEX) सिंड्रोम का कारण बनता है।

दो साल बाद यानी 2003 में साकागुची ने इन निष्कर्षों को जोड़ते हुए साबित किया कि Foxp3 जीन ही उन नियामक टी कोशिकाओं के विकास को नियंत्रित करता है, जिनकी पहचान उन्होंने 1995 में की थी। ये कोशिकाएँ ही इम्यून सिस्टम की निगरानी करती हैं और तय करती हैं कि वह अपने ही ऊतकों को नुकसान न पहुँचाए। नोबेल कमेटी ने कहा कि “उनकी खोजें यह समझने के लिए निर्णायक रही हैं कि हम सभी गंभीर ऑटोइम्यून बीमारियों से क्यों नहीं पीड़ित होते हैं, और इसने चिकित्सा विज्ञान को नई दिशा दी है।”
तीनों वैज्ञानिकों के बारे में
मेरी ई. ब्रंकॉ का जन्म 1961 में हुआ था। उन्होंने अमेरिका की प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से पीएचडी की और वर्तमान में सिएटल के इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी में सीनियर प्रोग्राम मैनेजर के रूप में कार्यरत हैं।
फ्रेड राम्सडेल का जन्म 1960 में हुआ। उन्होंने 1987 में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, लॉस एंजेलेस से पीएचडी प्राप्त की और इस समय सैन फ्रांसिस्को स्थित सोनोमा बायोथेराप्यूटिक्स में साइंटिफिक एडवाइजर हैं।
शिमोन सकागुची का जन्म 1951 में हुआ। उन्होंने जापान की क्योटो यूनिवर्सिटी से 1976 में एमडी और 1983 में पीएचडी की डिग्री हासिल की। वर्तमान में वे जापान की ओसाका यूनिवर्सिटी के इम्यूनोलॉजी फ्रंटियर रिसर्च सेंटर में डिस्टिंग्विश्ड प्रोफेसर के पद पर हैं।
‘पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस’ क्या है?
आसान भाषा में, पेरिफेरल इम्यून टॉलरेंस का मतलब है- हमारे शरीर की वह क्षमता जिससे इम्यून सिस्टम समझ पाती है कि कौन सी कोशिकाएं अपनी हैं और कौन सी बाहरी। अगर कोई टी-सेल गलती से शरीर के अपने ऊतकों पर हमला करने की कोशिश करे, तो यह प्रणाली उसे निष्क्रिय या नष्ट कर देती है।
इसी सिद्धांत पर आधारित शोध ने आज कैंसर, ऑटोइम्यून बीमारियों और ट्रांसप्लांट सर्जरी के क्षेत्र में नए इलाजों की नींव रखी है। इन पर आधारित कई दवाएं अब क्लिनिकल ट्रायल में हैं जिससे मरीजों के परिणाम बेहतर होने की उम्मीद है।
बता दें कि 2024 में यह पुरस्कार अमेरिकी वैज्ञानिकों विक्टर एम्ब्रोस और गैरी रुवकुन को मिला था। उन्होंने माइक्रो आरएनए (microRNA) की खोज की थी, जो जीन की गतिविधियों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।