Saturday, December 6, 2025
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थार की कहानियांः थार का नर नाहर– ठाकुर बलवंत सिंह बाखासर 

बलवंत सिंह बाखासर भी ऐसे ही व्यक्तित्व रहे, जिन्हें सरकार कभी डकैत मानती थी, फिर वही डाकू किस प्रकार वॉर हीरो बन जाता है। और अब उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर उनकी मूर्ति का अनावरण देश के रक्षा मंत्री करेंगे। इससे बड़ा सम्मान किसी देश के रक्षक के लिए क्या ही होगा !

अभी कुछ दिन पहले अखबार में खबर पढ़ी कि देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जी भारत पाक बॉर्डर पर स्थित गाँव बाखासर आयेंगे। यहाँ रेगिस्तान के रॉबिनहुड नाम से ख्यात बलवंत सिंह बाखासर की मूर्ति अनावरण कार्यक्रम में।

दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूँ तो प्रत्येक घटना स्वतः ही जीवन दर्शन से जुड़ जाती है। विचारने लगा कि एक व्यक्ति के जीवन में ही अनेक उतार–चढ़ाव नहीं आते बल्कि उसके विदा हो जाने के बाद भी उसका जीवन चरित किस प्रकार संसार को प्रभावित करता रहता है।

बलवंत सिंह बाखासर भी ऐसे ही व्यक्तित्व रहे, जिन्हें सरकार कभी डकैत मानती थी, फिर वही डाकू किस प्रकार वॉर हीरो बन जाता है। और अब उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर उनकी मूर्ति का अनावरण देश के रक्षा मंत्री करेंगे। इससे बड़ा सम्मान किसी देश के रक्षक के लिए क्या ही होगा !

बाखासर वाले हमारे रिश्तेदार भी है तथा इनके पोते रतन सिंह जी सामाजिक और राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय है। पारिवारिक मेल मुलाकात में उनसे ठाकुर साहब की वीरगाथाएं सुनने को मिलती ही हैं। अतः खबर पढ़ने के बाद बलवंत सिंह का जीवन चक्र एक चलचित्र की भांति दिमाग में चलने लगा।

वंश वृक्ष और जागीरदारी

चौहानों की नाडोला शाखा में 1925 को आपका जन्म हुआ। इनकी नौ पीढ़ी पहले जनक सिंह भवातड़ा से आकर यहाँ बसे थे और जनक सिंह की चौदह पीढ़ी पहले राजू सिंह गुजरात स्थित वाव से आकर भवातड़ा में स्थापित हुए थे। इनके पास राजस्थान और गुजरात के पाकिस्तान से लगते सीमांत क्षेत्र के 52 गाँवों की जागीरी थी ।

1954 में जागीरदारी उन्मूलन अधिनियम लागू हो जाता है। इसके तहत जागीरदारों के पारंपरिक,कानूनी और राजस्व के अधिकार समाप्त कर दिए गए। भारत समेत सारे संसार में जागीरदार व्यवस्था के स्थान पर लोकतांत्रिक व्यवस्था लागू हो रही थी। उस वक्त और आज भी तमाम अव्यवस्थाओं के बावजूद भी यह व्यवस्था अपने आपको ठीक साबित किए हुए है। किंतु हर व्यवस्था की अपनी खूबियां और खामियां भी होती है। ऐसी ही खामी का शिकार बॉर्डर का यह क्षेत्र हो रहा था। देश के टुकड़े हो गए थे तथा पीढ़ियों से जनता की रक्षा का जिम्मा उठाए जागीरदारों के पास भी कानूनन कोई शक्तियां नहीं रह गई थी। नए नए बने देश के पास सुदूर बॉर्डर पर कानून व्यवस्था बनाए रखने के इतने चाक चौबंद इंतेजामात नहीं थे। कानून की पकड़ ढीली थी।इसी का फायदा उठाकर सीमा पार से सिंधी लुटेरे आते और धन,धान और पशुओं को लूटकर ले जाते और विरोध करने पर हत्याएं भी हो जाती थी। 

व्यवस्था बदली, दायित्व नहीं 

गाँव के लोग बलवंत सिंह की कोटड़ी आकर अपना हाल सुनाने लगे। बलवंत सिंह को भी बड़ा दुःख हुआ कि मेरे क्षेत्र की जनता इतने कष्ट में है। पर क्या किया जा सकता था नए कानून ने हाथ जो बांध दिए थे। एक दिन बैठे बैठे विचार करने लगे कि

व्यवस्था बदली तो क्या हुआ इससे मेरा प्रजा के साथ संबंध और उसके प्रति दायित्व तो समाप्त नहीं हो गया। 

रजपूती रक्त उबाल मारने लगा,आँखों में लाल डोरे तैरने लगे और बाखासर के ठाकुर बलवंत सिंह ने तय कर लिया कि अब व्यवस्था के भरोसे नहीं बैठकर खुद हथियार उठाऊंगा। तब से बलवंत सिंह बागी हो गए।

पुनः सारी व्यवस्था देखने लगे, गरीबों की सहायता करना और लुटेरों से क्षेत्र की रक्षा करना। एक बार पाकिस्तान से लुटेरे आए और सौ से अधिक गौ–वंश को पाकिस्तान ले गए। बलवंत सिंह को जब जानकारी हुई तो उनकी त्योरियां चढ़ी और अकेले ही अपने घोड़े और बंदूक के साथ उन लुटेरों का पीछा किया। कहते है आठ लुटेरों को उन्होंने मार गिराया और मवेशियों को वापस भारत लाए। इस क्षत्रियोचित कार्य ने बलवंत सिंह को राजस्थान, उत्तरी गुजरात और सिंध क्षेत्र में विख्यात कर दिया।

उन्हें देखने लोगों की भारी भीड़ जमा हो जाती तथा गांवों में बलवंत सिंह जी के गीत गाए जाने लगे।

“के होया के होवसी,जबरा लौंठा जोय 

         बाखासर बलवंत री होड न दूजो होय”

सांचौर में बड़ा विख्यात पशु मेला भरता था उसमें यदा कदा इन्हीं लुटेरों का डर रहता था। फिर बलवंत सिंह अपने ऊंट पर बैठकर पूरे मेले की निगरानी करने लगे और किसी लुटेरे में उस मेले की ओर आँख करने का साहस नहीं होता था।

सिलसिला चलता रहा। बलवंत सिंह अपना कर्तव्य करते रहे और सरकार अपना। लूट और डकैती के उनके मुकदमे बलवंत सिंह पर हो गए। कानून की दृष्टि में वह डाकू थे जबकि जनता के लिए वो उनके सिरदार थे। जो वक्त आने पर अपनी जनता के लिए अपना सिर भी दे सकता था।

कभी सोचता हूँ कि दृष्टिकोण के जरा–सा बदलाव होने से इतिहास कितने नए रूप में सामने आता है। हमे हर घटना को सभी दृष्टिकोण से जांचकर ही फिर कोई राय बनानी चाहिए।

1971 का युद्ध– राजा और डाकू की जोड़ी

फिर आया 1971 का साल। भारत पाक में फिर से युद्ध छिड़ा।

राजस्थान के बाड़मेर,जैसलमेर,बीकानेर और गंगानगर पाकिस्तान से लगते जिले है, सो यहाँ भी तनाव स्वाभाविक ही था। वर्तमान में जो राजस्थान की उप मुख्यमंत्री हैं दिया कुमारी जी इनके पिता जयपुर में महाराजा सवाई भवानी सिंह उस वक्त भारतीय सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल थे और 10 पैरा स्पेशल फोर्स का नेतृत्व कर रहे थे। 

भवानी सिंह जी जब सीमा पर आए तो उन्होंने बॉर्डर क्षेत्र का मुआयना किया और यह महसूस किया कि यहाँ के रास्ते बड़े दुर्गम और भटकाने वाले है। थोड़ी हवा चलते ही रेतीले धोरों पर रास्ते गुम हो जाते है। अतः उन्होंने स्थानीय लोगों से सहयोग लेने के बारे में विचार किया। इधर उधर पूछताछ की तो मालूम हुआ कि इसके लिए, बलवंत सिंह बाखासर से मुफीद दूसरा कोई नहीं हो सकता। वो इस क्षेत्र के चप्पे चप्पे से वाकिफ है। पर समस्या यह थी कि उनपर अनेकों मुकदमे थे, सेना के मिशन में उनका किस प्रकार सहयोग ले ? भवानी सिंह ने मुकदमों की जानकारी जुटाई और स्थानीय लोगों से भी पूछताछ की तो ज्ञात हुआ कि इनकी छवि मारवाड़ के रॉबिनहुड सरीखी है। जनता बोल पड़ी ” डकैत नहीं, हमारे देवता हैं।” 

भवानी सिंह ने अपने उच्च अधिकारियों और राजनेताओं से वार्ता कर सारा वृतांत सुनाया। ऊपर से हरि झंडी मिलने के बाद बलवंत सिंह को अपने विश्वस्त सहयोगी के रूप में अपने साथ शामिल किया।

बलवंत भवानी की इस जबर जोड़ी ने पाकिस्तान की सेना में हाहाकार मचा दिया था। बलवंत सिंह की क्षेत्र की भौगोलिक जानकारी के कारण ही रातों रात भारतीय सेना पाकिस्तान सीमा में लगभग 80 किलोमीटर तक घुस गई, और सुबह होते ही अचानक छाछरो चौकी पर हमला बोल दिया।

बलवंत सिंह की ही योजना अनुसार चार जोंगा जीप के साइलेंसर खोलकर चलाया गया, जिससे कि टैंक जैसी आवाज आए। इसका परिणाम यह हुआ कि सीमा पर लड़ रही पाक सेना गफलत में पड़ गई कि यह हमारे ही टैंक है जो आगे बढ़ रहे है। इतने में सामने से भवानी सिंह भी आ डटे और हमला कर दिया। आगे पीछे दो तरफा हमला पाकिस्तानी सेना झेल नहीं सकी और भाग खड़ी हुई।

इस हमले में पाकिस्तान रेंजर पोस्ट और शिविरों को तबाह कर दिया गया, कई पाकिस्तानी रेंजर मारे गए।

मिशन “छाछरो रेड” अदभुत रूप से सफल रहा। 10 पैरा को कोई विशेष क्षति नहीं हुई। चौकी में शान से तिरंगा फहराया गया। एक राजा और एक डाकू ने कमाल कर दिया था।

भारतीय सेना भी उस वक्त अचंभित रह गई जब कई किलोमीटर पैदल चलकर पाकिस्तान के लोग बलवंत सिंह को देखने आते थे। बड़ा गज़ब का व्यक्तित्व था।

सिंध क्षेत्र समेत पाकिस्तान के तकरीबन 13000 वर्ग किमी पर भारतीय सेना का कब्जा हो गया था जो 1972 में हुए शिमला समझौते तक कायम रहा। इस समझौते में जीते हुए क्षेत्र पाकिस्तान को लौटा दिए गए।

रिश्ते और सम्मान

खैर कर्नल भवानी सिंह को इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए महावीर चक्र से सम्मानित किया गया और बाद में ब्रिगेडियर की मानद उपाधि भी प्रदान की गई। कहते है युद्ध में अभूतपूर्व सहयोग के लिए बलवंत सिंह बाखासर पर लगे सारे मुकदमे हटा दिए गए और उन्हें दो बंदूक रखने का ऑल इंडिया लाइसेंस भी दिया गया।

1992 में सीमा के सजग प्रहरी का 67 साल की उम्र में देहांत हो गया। इनके पोते रतन सिंह बताते है कि जब आप बीमार थे तब 10 पैरा यूनिट ने अपने डॉक्टर भेजे थे साथ ही आपके अंतिम संस्कार के वक्त भी उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर प्रदान किया गया। ये सहज ही दर्शाता है कि भारतीय सेना के लिए ठाकुर बलवंत सिंह बाखासर कितने महत्वपूर्ण व्यक्ति थे।

गहराई से विचार करता हूँ तो एक अजीब–सी बैचेनी होने लगती है कि ऐसे कितने ही गुमनाम नायक होंगे देश में जिनके साथ न्याय नहीं हुआ। क्या वो महानायक इस एहसान फरामोशी के लिए कभी हमें माफ करेंगे ? कभी धर्म के नाम और कभी जाति के नाम पर हमने इतने खांचे बना लिए है कि मानव मात्र के लिए अपने आप को समर्पित कर देने वाले नायकों को हम भूल गए। पूर्वाग्रह कहे या षडयंत्रपूर्वक, किसी को सामंत,किसी को अत्याचारी,किसी को डाकू या किसी को विधर्मी कहकर नकार दिया गया। जो सत्ताधारी दल और तथाकथित बुद्धिजीवियों के प्रोपेगेंडा में ठीक बैठे उन्हीं को प्रचारित किया गया,बाकी सभी को उपेक्षित कर दिया गया या उनके बारे में झूठ फैलाया गया। और अब तो राजनीति भी इतनी गंदली हो गई है कि रोज नए महापुरुष गढ़े जा रहे हैं और उनके सहारे समाजों को बांटकर अपनी राजनीतिक रोटी सेकी जा रही है।

फिर से बलवंत सिंह बाखासर याद आते जो व्यवस्था का रोना रोकर घर में नहीं बैठे रहे, ठीक उसी प्रकार हमें भी यथा सामर्थ्य अपने नायकों की गौरवगाथा जन जन तक पहुंचानी होगी।

महेंद्र सिंह तारातरा
महेंद्र सिंह तारातरा
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र लेखक। भाषा, इतिहास और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को लेकर सक्रिय।
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