Thursday, October 9, 2025
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पुस्तक समीक्षाः अदृश्य नहीं रहा ‘नया नगर’!

इस उपन्यास के पाठकों के लिए यह तय कर पाना मुश्किल  होगा कि इसे कहानी माना जाए, उपन्यास माना जाए या विचारों और किरदारों का कोलाज़। या इसे सिर्फ शानदार गद्य का एक पीस भर मान लिया जाये। शायरी को ईमान की तरह जीते लोगों का है यह नगर। यहां के बाशिंदों के लिए अदब की दुनिया ही असल दुनिया है। तस्नीफ हैदर सृजित इस नया नगर से हमें परिचित करवा रहे हैं सुधांशु गुप्त-

सुधांशु गुप्तः ईमानदारी से कहूँ तो तसनीफ़ हैदर को मैं पहले नहीं जानता था। मैंने उनकी लिखी कोई कहानी नहीं पढ़ी थी। हो सकता है कुछ ग़ज़लें पढ़ी हों। मुझे लेखकों को पहली बार पढ़ना पसन्द है। उन्हें लेकर मन में किसी तरह का कोई पूर्वाग्रह नहीं होता। पहली बार पढ़ने का एक यह फ़ायदा भी रहता है कि उनकी कोई छवि आपके ज़ेहन में नहीं रहती। कुछ समय बाद मैंने सुना कि उनका उपन्यास (उर्दू से अनुदित) हिन्दी में प्रकाशित हुआ है ‘नया नगर’। सहज-सी इच्छा हुई कि कैसा होगा यह ‘नया नगर’, क्या यह तसनीफ़ की कल्पनाओं का नगर होगा, क्या उनके अवचेतन में रहा कोई नगर उपन्यास की शक्ल में बाहर आया होगा या किसी देखे भाले नगर में उन्होंने अपनी कल्पनाओं, महत्वकांक्षाओं के रंग भरे होंगे? पढ़े बिना ही मैं तसनीफ़ के इस नये नगर की शक्ल बनाने लगा। मुझे याद आया इटली के इतालो काल्विनो का एक उपन्यास है ‘इनविज़िबल सिटीज़’। हालांकि पाठकों के लिए यह तय कर पाना आसान नहीं होगा कि इसे कहानी माना जाए, उपन्यास माना जाए या विचारों और किरदारों का कोलाज़। या इसे सिर्फ शानदार गद्य का एक पीस मानकर भी हमारा काम चल सकता है। मार्को पोलो को यात्राओं से लौटने के बाद मोंगोलिया के सम्राट कुबला खान का निमंत्रण मिलता है। वह कुबला ख़ान के पास जाता है और विभिन्न काल्पनिक शहरों, जिनकी संख्या लगभग 55 है का काव्यात्मक वर्णन सुनाता है। ये सभी वर्णन स्मृतियों, भाषा, मृत्यु और समाज के विषय में टिप्पणी करते हैं। काल्विनो की इस रचना में इन्हीं शहरों के बारे में संवाद-मार्को पोलो और कुबला ख़ान के बीच-हैं। मार्को पोलो से उसकी यात्राओं के दौरान देखे गए विभिन्न शहरों के वृतांत सुनकर कुबला ख़ान सम्मोहित हो जाता है। लेकिन उसे आश्चर्य होता है कि पोलो ने अपने शहर वेनिस के विषय में कुछ नहीं बताया। दरअसल मार्को पोलो के ज़रिए काल्विनो अपने अंतर्मन में बसे वेनिस शहर के विषय में ही बता रहे हैं। यह बात एक संवाद में इस रूप में आती हैः

पोलो कहता है- जहाँपनाह, अब तक मैं आपको उन सभी शहरों के विषय में बता चुका हूँ, जिन्हें मैंने देखा है।

कुबला ख़ान कहते हैं- लेकिन फिर भी एक शहर ऐसा है, जिसका ज़िक्र तुमने अब तक नहीं किया, वेनिस।

पोलो जवाब देता हैः हर बार किसी शहर के बारे में बताते हुए मैं दरअसल वेनिस के बारे में ही कुछ बता रहा होता हूँ।

तो काल्विनो, मार्को पोलो और कुबला ख़ान के बीच हुए संवादों के ज़रिए दरअसल अपने वेनिस शहर का ही वर्णन कर रहा था।

तसनीफ़ हैदर का ‘नया नगर’ मेरे हाथ में आया तो पहला सवाल ज़ेहन में यही था कि क्या इस उपन्यास में वर्णित नगर पूरी तरह काल्पनिक होगा या वह कौन-सा ऐसा नगर होगा जिसने लेखक को उपन्यास के लिए नया नगर का परिवेश मुहैया कराया होगा। उपन्यास से भी पहले किताब के बैक पेज पर लिखा पढ़ाः ये नया नगर है जहाँ सड़कों पर आँखों के सामने हुए एक्सीडेंट को लोग जल्दी तवज्जो नहीं देते जितनी जल्दी अचानक कानों में पड़ गए किसी शेर और वाह वाह को देते हैं। ग़ज़लें यहाँ परिन्दों की तरह उड़ती हैं, बरसाती पानी की तरह नालियों में बहती हैं और जहाँ चाहें वहाँ बैठकर नशिस्त (महफ़िल) जमा देती हैं। यहाँ के लोग शायरी की ईमान की तरह जीते हैं, ऐसा अक्सर नहीं होता कि ज़िन्दगी की बाहरी ज़रूरतें उन्हें भटकाकर किसी दफ़्तर में जाकर बिठा दें, बिठा भी दें तो वहाँ से उठाकर वे फिर किसी शेरी नशिस्त में आकर बैठ जाते हैं, या किसी रेस्तराँ या चाय की टपरी पर जम जाते हैं। ये कहानी उसी नगर की है। अगर यह नगर वास्तव में मौज़ूद है तब भी और अगर पूरी तरह काल्पनिक है तब भी यह नगर देखना, इसमें जाना सुखद होगा।

शायरी को ईमान की तरह जीते लोगों का है यह नगर। इस नगर की धुरी चौड़ी सड़कें, ऊंची इमारतें या भव्य मॉल नहीं हैं बल्कि ऐसे लोगों की मौज़ूदगी है जो शायरी और अदब को हर सांस में जीते हैं, जिनकी आँखों में ग़ज़लें लिखना, फिल्मी गीत लिखना, फिल्में बनाना, फिल्म का निर्देशन करना, नॉवेल लिखना, रिसालों में छपना, मुशायरों में शिरकत करना जैसे ख़्वाब हर समय तैरते हैं। और साथ ही इन सब ख़्वाबों को पूरी करने की तिकड़में भी हैं जो रिसालों में छपने और मुशायरों में अपना नाम शामिल करवाने के लिए की जाती हैं। यहाँ लोगों के लिए आर्थिक हालात से लड़ना अहम मुद्दा नहीं है, इनके लिए अदब की दुनिया ही असल दुनिया है। और यहाँ रहने वाला सिर्फ इस दुनिया में प्रवेश चाहता है। ‘नया नगर’ की धुरी हैं मजीद साहब। मजीद साहब ख़ुद शायर और युवा उभरते शायरों के उस्ताद हैं। इस नगर में उनकी ख़ासी इज्ज़त है। उनके शागिर्दों की संख्या भी काफ़ी है। चूंकि वह शायरी की दुनिया से कई दशकों से (लगभग छठे-सातवें दशक से) जुड़े हैं तो उनके पास बड़े बड़े शायरों से जुड़े दिलचस्प किस्से भी हैं। साथ ही यह दुख भी उनके साथ निरंतर चलता रहता है कि जिनके साथ उन्होंने कभी मंच शेयर किया था, आज वो कहाँ से कहाँ पहुँच गए हैं। और वह आज भी युवा शागिर्दों के साथ शायरी को आगे ले जाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

भौगोलिक लिहाज़ से देखें तो, अदब के इस नये नगर का नक्शा कुछ इस तरह बनता है। यहाँ चौड़ी सड़कें हैं, चौक पर एक सब्ज रंग की शिया मस्ज़िद मौज़ूद है, बाज़ार के बीच में भी एक बड़ी मस्ज़िद है। अदब के इस नगर में, बाज़ार में बहुत-सी दुकानों के साथ रेस्तराँ और किताबों की दुकानें भी जल्वा-अफ़रोज़ है। ऐसी ही एक किताब की दुकान है-शोहरत बुक शॉप। यहाँ से अदब की दुनिया के लोग उर्दू-हिन्दी डाइजेस्ट के साथ-साथ जेम्स हेडली चेज़, अगाथा क्रिस्टी, सिडनी शेल्डन, इब्ने सफ़ी और कई अन्य लेखकों की किताबें खरीदते हैं। इन खरीददारों में मजीद साहब का बेटा नज़ीब भी है। युवा शायर अदब की बदल रही दुनिया पर भी नज़र रखना चाहते हैं।

मजीद साहब इस नगर में शायरी के अच्छे उस्ताद माने जाते हैं। उनके बहुत से शागिर्द हैं। नसीम बरेलवी भी उनकी शागिर्दा हैं। मजीद साहब का बेटा तनवीर अक्सर नसीम के यहाँ जाने लगा है। नसीम को अदब की दुनिया की ‘परवीन शाकिर’ के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन तनवीर नसीम के घर उसकी छोटी बहन शहनाज़ के लिए जाता है। नसीम जिस कॉम्पलेक्स में रहती है, वह तेरहवें फ्लोर पर है। यहाँ तसनीफ़ ने प्रेम के कुछ बीज बोए हैं, इस उम्मीद से कि ये आगे चलकर पेड़ की शक्ल अख़्तियार करेंगे। मजीद साहब अपने शागिर्दों, नशिस्तों में मसरूफ़ रहते हैं। उनके शागिर्दों का हुजूम, नशिस्तों (अदबी बैठकें) का बोझ और हर वक़्त घर पर किसी न किसी की मौज़ूदगी उन्हें उलझाए रखती है। बस वह ध्यान नहीं दे पाते तो केवल अपने घर पर, अपनी बीवी पर और घर के हालात पर। उनके लिए शायरी, मुशायरा और शागिर्द ही जीवन है। यह एक ऐसा नगर है, जहाँ के लोग छोटी-छोटी बात पर हँसना जानते हैं। कोई साइकिल से गिर जाए, झूले में बैठकर डरती हुई दोशीजा या या गुप्त रोगों को ठीक करने का कोई इश्तिहार। इस नगर का हर व्यक्ति हँसना भी जानता है और जीना भी। लेकिन यहाँ का हर बाशिंदा इज्ज़त का भूखा है। तसनीफ़ ने पूरे उपन्यास की भाषा बेहद खिलंदड़ रखी है, जो शाइरी और अदब के रास्ते पर ले जाती है। उनका लहज़ा पूरे उपन्यास में यकसाँ रहा है। उन्होंने किसी बड़े नाटकीय घटनाक्रम का सहारा नहीं लिया। और ऐसा भी नहीं है कि वे गंभीर मसलों पर बात नहीं करते। या अपने घर के हालात दुरुस्त करना नहीं चाहते। इन्हें ही दुरुस्त करने के लिए मजीद साहब के यहाँ रखी किताबों से एक लाइब्रेरी खोली जाती है ताकि किताबें इश्यू करने से उन्हें कुछ आमदनी हो जाए। इससे आमदनी तो नहीं होती बस इतना होता है कि अब मजीद साहब लाइब्रेरी में नशिस्त जमाने लगे। आधुनिक शायरी और परम्परागत शायरी पर बहसें होतीं।

तसनीफ़ ने इस उपन्यास में जदीद और परम्परागत शायरी एक नज़रिया सामने रखा है। ग़ौरतलब हैः ‘तीन-चार सौ साल बीत गए, लेकिन ग़ज़ल अपनी रिवायत पर किसी बूढ़ी दादी की तरह डटी हुई है। एक इंच आगे नहीं बढ़ती और जो आधुनिक होना चाहता है, उसे यही कहकर रद्द कर दिया जाता है कि इसमें ग़ज़ल वाली बात नहीं है।? (पृष्ठ 131)’ मिसाल के तौर पर एक रोज़ तनवीर ने अपने अब्बू (मजीद साहब) को अपना शेर सुनाया, जिसमें ज़िन्दगी को पिघलती हुई आइसक्रीम की उपमा दी गई थी तो उन्होंने कहा कि जदीद (आधुनिक) शायरी का मतलब हमारे शायर ये क्यों समझते हैं कि बस अंग्रेज़ी लफ़्ज़ ठूँसकर उसे नया बना लिया जाए।

उपन्यास स्त्री के पक्ष में खड़ा भी दिखाई देता है और ग़ज़ल में औरत को देखने के दूसरा तरीक़े की वक़ालत करता है। एक जगह तसनीफ़ हैदर तनवीर के ज़रिए कहते हैं-‘ग़ज़ल की दुनिया में सब कुछ इकतरफ़ा है। शायर भी, उसका इज़हार-ए-मोहब्बत भी, उसके इशारे भी, उसका फ़न भी। देखा जाए तो ग़ज़ल का शायर पूरी ज़िन्दगी एक धोखे, एक वहम का शिकार रहता है।’ वह आगे सवाल उठाते हैं-‘किसी के होंठ अच्छे हैं तो क्या हमें उसकी नुमाइश लगाने की इजाज़त मिल जाती है? किसी के बाल अच्छे हैं तो क्या उनके साये पर हमारा कोई कॉपीराइट हो जाता है? क्या ग़ज़ल ने हमें औरत को देखने का कोई दूसरा तरीक़ा बताया ही नहीं? या ये पूरा समाज ही औरत को इसी नज़र से देखता है, जिस तरह ग़ज़ल देखती है।’ नया नगर में तसनीफ़ और भी ज़रूरी सवाल उठाते हैं, ग़ज़ल को लेकर, शोहरत को लेकर, दौलत को लेकर, इज्ज़त को लेकर। वह कहते हैं कि इन सब पर एक गिलाफ़ चढ़ा हुआ है। ‘सृजना अपने बल पर जितना नहीं बो सकती, दौलत उससे कई गुना एक लम्हे में काट सकती है। क्या इस शहर में सिर्फ़ शायर ही नकली हैं? क्या उन्हीं के चेहरों पर नक़ाब है? या डॉक्टरों, वकीलों, प्रोफेसरों की डिग्रियाँ, बनिए के सामान और नेताओं के भाषण सभी में किसी न किसी नक़ली चीज़ की मिलाव मौज़ूद है?’

इस नक़लीपन से नया नगर का ही नहीं देश का भी हर आम आदमी परेशान है। तसनीफ़ हैदर ने इस परेशानी को बेहद सहज़ता से उजागर किया है। नया नगर में यह भी दिखाई पड़ता है कि मजीद इतने सालों से इस दुनिया को देखते रहे हैं और लगातार इस दुनिया को बेहतर बनाने के प्रयास करते रहे हैं। उनके पास बड़े शायरों से जुड़े दिलचस्प संस्मरण हैं और युवा शायरों को आगे बढ़ाने का जज़्बा है लेकिन ऐसा लगता है कि वह अभी भी आधुनिक होने के लिए तैयार नहीं हैं। यही वजह है कि जब वे एक बड़े मुशायरे के आयोजन की तैयारी में लगे हैं तो उनके घर की बिजली कट जाती है। लेकिन उनका बेटा नजीब भी इसके लिए अब्बू को दोष नहीं देता और उनकी पत्नी भी बेटे के सिर पर हाथ रखकर कहती हैं कि परेशान मत हो बेटा कल का जश्न हो जाए, तुम्हारे अब्बू परसों ज़रूर कोई रास्ता निकाल लेंगे। कोई रास्ता निकलेगा या नहीं, कोई नहीं जानता। इसलिए भी नहीं जानता कि अदब की दुनिया में जीने वालों की यही विडम्बना है। उनके लिए घर बार, पत्नी, बच्चे सब बाद में आते हैं। उनकी पहली और अंतिम प्राथमिकता बस शायरी, नज़्में, गद्य, रिसालें हैं। वे इन्हीं के लिए जीते हैं और इन्हीं के लिए मर जाते हैं।

उपन्यास में कोई नायक या नायिका नहीं है। बस अदब के दीवाने लोग हैं। प्रेम भी यहाँ ज़ेहनों में ही दिखाई देता है। तनवीर शहनाज़ को चाहता है कि लेकिन एक नाटकीय ट्विस्ट से वह पाता है कि उसकी संभावित माशूका सरदार नामक एक युवक से जुड़ गई है। इसके बाद भी कोई ड्रामाई घटनाक्रम नहीं है, मानो जो हो रहा है, उससे किसी का कोई सरोकार नहीं। हर व्यक्ति शायरी में लगा है-सीखने में, रिसालों में छपने में और आधुनिकता की तरफ़ कदम बढ़ाने में। कुछ शायर मुंबई में गीत लिखने के लिए जा रहे हैं और कुछ इसी नगर में शायरी की और शायरों की गति देख रहे हैं। नया नगर को पढ़ते इसमें अँधेरी, मीरा रोड़, लोकल का ज़िक्र होता है तो अहसास हो जाता है कि यह नया नगर वास्तव में मुंबई में ही है। पता चलता है कि यह नगर मीरा रोड़ का एक उपनगरीय क्षेत्र है। संभव है तसनीफ़ हैदर यहाँ कुछ समय रहे भी हों, उपन्यास पढ़कर ऐसा लगता है। लेकिन जब उन्होंने इस उपन्यास की शक्ल दी तो अपनी कल्पनाओं से जोड़कर इसे सचमुच ‘नया नगर’ बना दिया-एक ऐसा नगर जहाँ लोग विडम्बनाओं के बावज़ूद शायरी को ईमान मानते हैं। यह भी संभव है कि ऐसा कोई नगर तसनीफ़ हैदर के अवचेतन में रहा हो और मीरा रोड़ के इस नगर में रहने ने अचेतन के नगर को ठोस रूप दिया हो। ठीक उसी तरह जिस तरह काल्विनो ने मार्को पोलो और कुबला ख़ान के संवादों के ज़रिए सारे शहरों का ज़िक्र किया लेकिन वेनिस का ही ज़िक्र नहीं किया। कुबला ख़ान का कहना था कि जिन नगरों का उसने वर्णन किया वे सब वेनिस ही थे। तसनीफ़ के लिए भी यह नया नगर एक ऐसा नगर है, जो वह बनाना चाहते हैं या चाहते हैं कि अदब की दुनिया के लिए ऐसा कोई नगर बने!

उपन्यासः नया नगर

लेखकः तसनीफ़ हैदर

उर्दू से हिन्दी में तर्जुमाः अजय नेगी

प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स,

मूल्यः 250, पृष्ठः 160

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