Friday, October 10, 2025
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दृश्यम: तमस का अतीत और अतीत का तमस

15 अगस्त को इस बार मैं दिल्ली में थी। दिल्ली में होने का यह संयोग इसलिए दुहरा-सुखद हो गया कि ठीक पंद्रह अगस्त की दोपहर, कुछ बहुत पुराने दोस्तों के साथ बहुप्रतीक्षित नाटक ‘विभाजन की विभीषिका ‘तमस’ देखने का मौका मिला। इसके बहुप्रतीक्षित होने की अपनी एक लम्बी चौड़ी दास्तां है। चितरंजन त्रिपाठी के निर्देशन और अभिनय की प्रशंसक मैं ‘ताजमहल का टेंडर’ के जमाने से रही हूं।  तो यह नाटक अगर तमस न भी होता तो मैं इसे जरूर देखती। पर यह ‘तमस’ था और यह होना मेरे लिये एक सुखद संयोग रहा। 

चित्तरंजन त्रिपाठी और आसिफ अली ने इस ख्यात उपन्यास को नाटक में परिवर्तित और परिवर्द्धित किया है और इनका यह दावा भी शत-प्रतिशत सही है कि उपन्यास के 90 प्रतिशत पाठ का उपयोग इसके संवाद के रूप में किया गया है।

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इस नाटक में समन्वयवादी रीति और नीति के तहत कबीर दास के दोहे के साथ-साथ, स्वानंद किरकिरे के गीत, फैज अहमद फैज़ के नज़्म और अटल जी की कविता को भी शामिल किया गया; जो नाटक की गति, सौंदर्य और संदेश को आगे बढ़ाने का काम  तो करते ही  हैं, इनके उक्त समन्वयवादी रवैये की पहचान भी है। इस नाटक में  अलग-अलग समुदायों के मनोविज्ञान की मार्फत दंगों की स्थिति को समझा गया है और इसमें व्यक्ति नहीं, कौमों के चरित्र दिखाई देते हैं।

निर्देशक का बयान

हालांकि 15 अगस्त की उस दोपहर चितरंजन जी ने सिर्फ इतना कहा था कि–‘ मुझे कुछ नहीं कहना, सिर्फ इतना कहना है कि ‘हमें नाटक करने दिया जाये।’   लेकिन प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने यह भी कहा  था कि- ‘यह नाट्य प्रस्तुति अंतहीन दर्द का चित्रण है… यह भारत के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के सबसे अंधेरे हिस्से की अभिव्यक्ति है…सन् 1947 का विभाजन केवल सीमाओं का एक पुनर्वितरण नहीं था – यह भारत देश की आत्मा का अलगाव था। यह सिर्फ देश के लिए सिर्फ स्वतंत्रता प्राप्ति का दिन नहीं था। स्वतंत्रता दिवस के उत्सव के पीछे एक विशाल मानवीय त्रासदी थी। करोड़ों विस्थापित लोग, लाखों का वध, अनगिनत महिलाओं का चीर-हरण, और भी बहुत कुछ…

भले ही स्कूली पुस्तकों में, विभाजन एक पैराग्राफ भर बन कर रह गया हो पर यह आज भी लाखों परिवारों के लिए पीड़ा बना हुआ है…

यह सहज नायकों और खलनायकों की कहानी मात्र नहीं है –  यह बताता है कि कैसे प्रचार, झूठ और राजनीतिक महत्वाकांक्षा दोस्त को दुश्मन, पड़ोसी को हत्यारे में बदल सकती है…

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‘विभाजन विभीषिका तमस’ सिर्फ एक नाटक नहीं है, यह विभाजन के दंश को झेलनेवाले अनगिनत पीड़ितों को समर्पित है। यह एक चेतावनी भी है; वे हथियार जो एक बार हमें अलग कर चुके हैं – धार्मिक भ्रम, सांस्कृतिक व्युत्पत्ति, और राजनीतिक तुष्टिकरण आदि-आदि – अभी भी, आज भी हमारे बीच किसी न किसी रूप  में विद्यमान है। 

अतीत की ओर खुलती खिड़की

वह 2023 के अगस्त का ही माह था, जब ‘तमस’ के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रस्तुति की खबर आई थी। टिकट भी ऑन और ऑफ लाइन बिकने शुरू हुये थे कि इसके मंचन को रोक दिया गया था। प्रत्यक्ष में तो इसकी वजह कुछ और बताई जा रही थी लेकिन अंदरूनी बात यह थी कि किसी भाजपा सांसद को एक ‘वामपंथी लेखक’ के उपन्यास के मंचन पर घोर आपत्ति थी। उस वक्त राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक रमेशचंद्र गौड़ थे, जिन्होंने कोई अतिरिक्त हिम्मत और हिमाकत न दिखाते हुये इसे रद्द कर देना ज्यादा उचित समझा था। लेकिन अब  जबकि चितरंजन त्रिपाठी खुद राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक हैं, ठीक उसी माह में स्वतंत्रता दिवस के  उसी मौके पर नई रिहर्सल के बाद ‘विभाजन विभीषिका‘ तमस’ की  प्रस्तुतियाँ अभिमंच सभागार में संभव हो सकी हैं।

कौन डरता है तमस से

सिर्फ वर्तमान परिदृश्य में ही नहीं अस्सी के दशक में  भी इसी उपन्यास पर बने टीवी सीरियल पर काफी विवाद हुआ था और इसको प्रतिबंधित किये जाने की मांग भी की गयी थी। कार्यकर्ताओं ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किए थे और इसके लेखक-निर्देशक के पुतले भी फूंके गये थे। इल्जाम यह था कि  ‘तमस’  हिंदूवादी राजनीति के विरोध में लिखा गया उपन्यास है, जैसा कि उनके हिसाब से किसी कम्युनिस्ट लेखक या लेखन का एजेंडा हुआ करता है। हालांकि तब यह धारवाहिक प्रतिबंधित नहीं हो सका था, क्योंकि इस बात में कोई सच्चाई नहीं थी। भीष्म साहनी राजनीतिक एजेंडे के लिए लिखने वाले लेखक नहीं थे, बल्कि वे स्वयं विभाजन की विभीषका के गवाह रहे थे, उन्होंने भारत के विभाजन के अपने कष्टप्रद अनुभवों और पाकिस्तान के निर्माण  के कारकों को खोजने और जन समुदाय से उसे बस साझा  करने की कोशिश की थी। उन्होंने एक लेखकीय तटस्थता के साथ उन सारे कारकों पर ऊंगली रखी, जो इसके होने का वायस थे। वह चाहे धर्म हो, कट्टरता हो, मनुष्य के भीतर छिपी वैमनस्यता हो या फिर छिछली-अंधी राजनीति।

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भीष्म साहनी ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने स्वतंत्रता-पूर्व एवं स्वातंत्र्योत्तर काल के बदलते हुए जीवनको बड़े ही करीब से देखा था। वे इस उपन्यास से साहित्य जगत में बहुत लोकप्रिय हुए थे। उनकी लेखकीय संवेदना का मुख्य आधार जनता की पीड़ा थी, न कि कोई राजनैतिक एजेंडा। इस उपन्यास का प्रकाशन 1973 में हुआ था और इसे 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

तमस में ऐसा क्या है?

यह भीष्म साहनी का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है और  इसकी पृष्ठभूमि भारत विभाजन का समय है। साहनी ने आज़ादी से पहले हुए सांप्रदायिक दंगों को आधार बनाकर इस समस्या का सूक्ष्म विश्लेषण किया है और उन मनोवृत्तियों को उघाड़कर सामने रखा है, जो अपनी विकृतियों का परिणाम जनसाधारण को भोगने के लिए विवश करती हैं।

भारत में सांप्रदायिकता की समस्या युगों पुरानी है और इसके दानवी पंजों से अभी तक इस देश की मुक्ति नहीं हुई है। बल्कि इसकी जड़े  दिनानुदिन और गहरी हुई हैं। यह किताब कहती है कि ऐसे दंगों का शिकार निर्दोष और गरीब लोग बनते हैं। वे न हिंदू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इंसान हैं और इस देश के नागरिक।

नाटक की खूबियाँ

इस नाटक में निर्देशक और उनकी टीम ने मानव संबंधों की कई परतों की खोज की है। उन्होने इन दंगों के होने और कायम रखने में ब्रिटिशों की गंभीर रूप से असंवेदनशील भूमिका को भी बखूबी उजागर किया गया है। उपन्यास के बिल्कुल शुरू में ही नत्थू जिस व्यक्ति के कहने पर सूअर को मारता है, उसका नाम ‘मुराद अली’ है। यही सूअर बाद में मस्जिद में पाया जाता है। दंगे दोनों तरफ तेजी से भड़कते हैं और यही मुराद अली अंत में कांग्रेस की अमन कमेटी में पहुँच जाता है। इन दोनों स्थितियों के बीच दंगों के माहौल के वाकये और मनःस्थितियाँ ही हैं जो उपन्यास को विस्तार देते हैं और जिन्हें चितरंजन त्रिपाठी ने पूरे शिद्दत से इस नाटक में प्रस्तुत किया है। 

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सम्पूर्ण नाटक अधिकाधिक रूप से समूह में घटित होता है। विभाजन की सम्पूर्ण विभीषिका को देखते हुये ऐसा होना जायज भी है और जरूरी भी।  ये कारगर भी रहा है। पर आम दर्शक शायद इससे खुद को उस तरह कनेक्ट करने में असमर्थ ही पाएगा। किसे देखे और किसे सुने की यह लाचारगी इस नाटक में बड़ी और अवश्यंभावी हुयी जाती है। वहीं कुछ दृश्य जो इस सामूहिक दृश्यों की भीड़ से अलग हैं, बरबस जैसे आपके मन में अटक जाते हैं। जैसे- नत्थू और उसके पत्नी के साथ वाले दृश्य। यहाँ प्यार भी है, एक- दूसरे की चिंता भी और पीड़ा भी। यही नहीं हर गलत-सही में साथ रहने का निजी उपक्रम और साझेदारी भी। इसी तरह हरनाम और बंतो के एहसान अली के घर पहुँचने का दृश्य और वहाँ से  निकलने का दृश्य भी बड़ा मारक बन पड़ा है। एक और अन्य प्रभावी दृश्य  जो है  वो है रिचर्ड और लीजा की बातचीत और उनके साथ का। पर सबसे प्रभावी जो दृश्य है, वो है- सिख महिलाओं का एक-एक करके कुँए में कूदने वाला दृश्य। जिसमें एक खास भूमिका ध्वनि और प्रकाशन संयोजन की भी रही, जिसके लिए क्रमशः श्री राजेश सिंह (एनएसडी रेपर्टरी प्रमुख और नाटक के दृश्य परिकल्पक),  सौती चक्रवर्ती (प्रकाश परिकल्पक) और साउंड डिज़ाइनर श्री संतोष कुमार सिंह को धन्यवाद कहा जा सकता है। वस्त्र विन्यास भी इस नाटक का एक प्रभावी अंश था, जिसका श्रेय कृति वी. शर्मा को जाता है। यही नहीं एक ही सेट का बहुआयामी-बहुअर्थी और बहुरंगी प्रयोग इस नाटक में जान डाल देता है।

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खामियां: यानी जो यूं न होता, या, यूं होता तो…

सिक्ख स्त्रियों के जौहर वाले दृश्य के ठीक पहले मन में बार-बार यह खयाल आ रहा था, पुरुष पात्र के बहुलता वाले इस नाटक में स्त्रियों की भूमिका अगर अपवाद दृश्यों कि बात छोड़ दें तो नगण्य जैसी ही है, जबकि संभावनाएं इसकी थीं और जगहें भी। हालांकि भीड़ के रूप में उनके अभिनय, उनकी संभावनाओं, उनके पोटेंशियल की झलक बार-बार उन नपे-तुले दृश्यों में भी झांक-झांक जा रहा थी। शायद  डायरेक्टर को भी यह बात खटकी हो, जिसकी अनौपचारिक खानापूर्ति उन्होने इस एक दृश्य- संयोजन  के माध्यम से की।

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नाटक के अंत में नेहरू का लेडी माउण्टबेटन को झुककर गुलाब का फूल देना, प्रस्तुति के अंत में सूत्रधार का जबरन यह कहना-‘आखिर हम कब तक कभी 26/11, कभी संसद पर हमला, कभी पहलगाम जैसी घटनाएँ झेलते रहेंगे। ‘ और ‘देश के रक्षक और आपरेशन सिंदूर को अंजाम देने वाले सैनिकों को सलाम बोलना’  जैसे दृश्य और वक्तव्य इसे जबरन कांग्रेस-विरोधी और सम्प्रदाय विशेष के लिए पूर्वाग्रही बनाते दिखते हैं। पर इस 10 प्रतिशत पर उपन्यास का वह 90 प्रतिशत किया गया इस्तेमाल हावी था और हावी रहा। इन दृश्यों के लिए इस नाटक की दबी ढकी निंदा भी लगातार जारी है और शायद जारी भी रहे। उसके लिए मुझे बस इतना कहना है कि इस थोड़े से रद्दोबदल या जोड़-घटाव से नाटक के कथ्य और उसके प्रभाव पर कोई खासा प्रभाव पड़ता नहीं दिख पड़ता। न इसकी शक्ति और सामर्थ्य में ही कोई कमी आती नजर आती है।  

बल्कि खेलने के लिए ‘तमस’ का किया गया चुनाव ही निर्देशक को  इस तरह के सारे आरोपों से ऊपर ला खड़ा करता है।…  दूसरे इसके नाट्यरुपांतरण में आसिफ अली और चितरंजन त्रिपाठी का एक साथ होना इस बात की तस्दीक करता है कि यह नाटक एकता की शक्ति पर केन्द्रित है, न कि बांटे जाने की राजनीति पर?

बल्कि मैं इसे सीधे-सीधे डायरेक्टर के अपने नाटक को जनता तक बगैर किसी रोक थाम और विघ्न-बाधा पहुँचने देने की एक छोटी सी कोशिश की तरह देखना चाहूंगी, जिसमें उसने एक सामंजस्य और संतुलन बनाए रखने की नाकाम कोशिश की है। और इसमें कोई बुराई भी नहीं। 

हर कृति को यह हक है कि वह लोगों तक निर्बाध पहुंचे और यह भी कि उसे एक श्रेष्ठ कृति की तरह देखा-पढ़ा, और परखा-समझा जाये, न कि किसी वाम- दक्षिण दृष्टि याकि चश्मे के आलोक में।

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