Friday, October 10, 2025
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विरासतनामा: चल मेले नूं चलिए

इक़बाल सुहैल अपनी ग़ज़ल में फरमाते हैं,

“मिल-जुल के ब-रंग-ए-शीर-ओ-शकर दोनों के निखरते हैं जौहर
दरियाओं के संगम से बढ़ कर तहज़ीबों का संगम होता है।”

मेल-जोल का बहाना बनकर मेलों ने सदियों से तहज़ीबों को जोड़ कर रखने का काम किया है। चाहे कुम्भ मेला हो या दशहरा का मेला, गोवा का कार्निवल हो या बिहार का सोनपुर मेला, लोक संस्कृति और सामूहिक उत्तेजना के प्रतीक के रूप में मेलों का महत्त्व अद्वितीय रहा है। 

नदियों किनारे लगने वाले मेलों में सबसे प्रख्यात है अर्ध कुम्भ और महाकुम्भ मेला, जो हर छः और बारह सालों के अंतराल में गंगा, यमुना, शिप्रा और गोदावरी नदी के किनारे लगता है। कुम्भ मेला सनातन धर्म की एक विशाल झांकी के समान होता है, जिसमें प्रचंड जनसमूह, बतौर दर्शनार्थी और श्रद्धालु हिस्सा लेता है। कुम्भ मेले की भीड़ को लेकर मिलने-बिछड़ने की लोकोक्तियाँ भी मशहूर हैं। साधुओं के अखाड़ों का शक्ति प्रदर्शन, आपसी टकराव, भगदड़ और जनसैलाब कुम्भ मेले से जुड़ी विशिष्टताएँ हैं। 

इसी तरह मान्यता है कि बिहार के सिमरिया में आयोजित होने वाले कुम्भ मेला का इतिहास वैदिक काल से जुड़ा है और जिन 12 स्थानों पर कुम्भ लगता था, उनमें से सिमरिया एक स्थान था। इस मान्यता को लेकर अखाड़ों में मतभिन्नता है लेकिन मिथिलावासी इस मेले को मोक्ष धाम के रूप में देखते हैं और श्रद्धालुओं का भारी हुजूम यहाँ जुटता है। 

मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ में मेले का ज़िक्र याद दिलाता है कानपुर में ईद पर लगने वाले अर्र, टर्र और पर्र के मेलों की, जो पिछले 120 सालों से यहाँ नई सड़क, चमनगंज और इफ्तिख़ाराबाद में लगते आ रहे हैं। मेले में अब भी बच्चे मिट्टी के खिलौने, खील बताशे और बाजे-सीटियाँ खूब चाव से खरीदते हैं। 

राजस्थान की पुष्कर झील के किनारे लगने वाले सालाना मेले में लोग स्नान करने और पशुओं की खरीद फरोख्त करने आते हैं। घुमंतुओं का जमावड़ा जब यहाँ लगता है और ऊँट, गधे, घोड़ों की बोलियाँ लगाई जाती हैं तो बंजर रेगिस्तान भी गुलज़ार हो उठता है। रेतीली ज़मीन पर तम्बू गाड़ कर कोई बेचता है करामाती जड़ी-बूटियाँ तो कोई लोहार लगाकर बैठ जाता है हासिये, चाकूओं की नुमाइश। बहुरूपिये और नट दिखाते है खेल-तमाशे, वहीं बंजारनें बनाती मिलती हैं कबीलाई गोदने। 

ऐसे ही मेलों में शुमार होता है लाहौर में मनाया जाने वाले ‘मेला चिराग़ाँ’ का, जो मुग़लकाल से चला आरहा है, जब लोग दीयों से अपने घर-आँगन रोशन कर सूफी शायर ‘शाह हुसैन’ को याद किया करते थे। दरगाह पर उर्स होता है, चढ़ाई जाती हैं चादरें, मलंग झूमते हैं ढोल की ताल पर और दुआ में उठते हैं तलबगारों के हाथ। 

मेलों का किस्सा छिड़ते ही याद आता है 1919 का बैसाखी वाला मेला, जब अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में इकट्ठे हुए लोगों का अंग्रेज़ी हुकूमत ने नृशंस हत्याकांड करवाया। मेले में लहराती लाल-पीली झण्डियाँ तार-तार कर दी गयीं और ज़मीन सुर्ख़ हो गयी थी बेगुनाहों के खून से। 

ऐसी ही एक और स्मृति को ज़िंदा रखने की मंशा से पंजाब में मनाया जाता है शहीदी जोड़ मेला, जो सिखों के दशम गुरु गोबिंद सिंह के दो साहिबज़ादों की शहादत को समर्पित होता है। ट्रक-ट्रैक्टरों में सवार होकर श्रद्धालु दूर-पार से इस मेले में आते हैं और लंगर, कीर्तन और दस्तार -बंदी की अलग-अलग प्रतियोगिताओं में बढ़-चढ़ कर शिरक़त करते हैं। 

हिमाचल प्रदेश की संस्कृति में मेलों की अपनी एहमियत है । बिलासपुर में लगने वाला नलवाड़ी पशु मेला हो या रामपुर बुशहर का लवी मेला, कुल्लू का दशहरा मेला हो या चम्बा का मिंजर मेला, सुस्ताती अल्साती पहाड़ियों में रौनक का सबब बनते हैं यहाँ के स्थानीय मेले, जिनसे लोक संस्कृति को ज़िंदा रखने की ऊर्जा मिलती है। देवी-देवताओं की पालकी कन्धों पर उठाए स्थानीय लोग ढोल नगाड़े की धुन पर झूमते हैं, लहराते हैं। ऊनी कपड़े, रेशमी रूमाल, टोकरियाँ और मिठाइयाँ बेचते हुए लोग सैलानियों को आकर्षित करते हैं। ढोलक और तालियों की थाप पर नाटी (नृत्य ) करते पहाड़ी लोग आपसी भाईचारे और अंचलीय रीति-रिवाज़ों का जश्न मनाते हैं।

नए ज़माने में भी मेले अपना प्रभाव क़ायम रखे हुए हैं, जिसका सबूत है पुस्तक मेला, रेख़्ता मेला, आर्ट फेयर और साहित्यिक मेलों में हज़ारों की तादात में लोगों का शामिल होना। मेले तोड़ते हैं दस्तूरी ज़िन्दगी की एकरसता को। मेले जोड़ते हैं मानवीय संबंधों को। मेले होते हैं बंजर ज़िन्दगी में उगती हुई इंतज़ार की दूब जैसे। जटिल जीवन से संघर्ष के बाद राहत की एक बयार होते हैं मेले। मेले शाश्वत हैं, सदियों से थे, स्वरुप बदल कर आज भी मौजूद हैं और आम जन की बेरंग कैनवास सी ज़िन्दगी में में रंग भरने के लिए लगते रहेंगे बार-बार।

यह भी पढ़ें- विरासतनामा: काठ कथा- ‘चंडीगढ़ चेयर’ का यात्रा वृत्तांत

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