Friday, October 10, 2025
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चिठिया हो तो हर कोई बांचे

किसी एक का खत मोहन राकेश के नाम

तुम्हें जो चाहिए था, वह तुम्हें मिल गया, पर में जो चाहती थी, वह मुझे नहीं मिला।

उजली धूप में भीगी घाटियों में घूमना चाहती थी, मैं सागौन के स्वरों से पुलकायमान होना चाहती थी, हिमालय के उच्च शिखर के गुहास्थित मंदिर की गहन घंटा-ध्वनि को अंतर में भर लेना चाहती थी। वह नहीं हो सका। उसका सुयोग नहीं मिला।

कुछ हल्की-सी निराशा, कुछ उन्मुखता है। क्या दुनिया में कहीं भी शारीरिकता विरहित कुछ नहीं? फिर अंतर में क्यों ऐसी अनुभूति होती है? क्या अपनी कल्पना के दिव्य भाव की प्राप्ति के लिए पत्थर के देवता के आगे ही सिर रगड़ना होगा? उस पत्थर के देवता में पुलक कहां होगी? वह पुलक भक्त के अंतर की क्या अपनी ही होती है? इन दिनों गीता पढ़ रही हूं। कभी शांति, कभी उद्वेग और कभी करुणा उमड़ती है, पर यह जलकण बहुत शीतल हैं। इनमें कोई क्षोभ, कोई उपालंभ, कोई पश्चात्ताप नहीं।

mohan rakesh

एक बात तुम्हें बताना चाहती थी। तुम्हारी मेरी रेखा लांघने में मुझे कुछ नया नहीं मिला और मैंने सिवा एक प्रिय मानव की निर्बलता को करुणा के अवलंब के दिया भी कुछ नहीं।

तुम्हें कुछ मिला, या तुमने पा लिया, या ले लिया, यह तुम्हीं जानो।

इन पंक्तियों को पढ़ कर लौटा देना। आाज तुम्हारा जन्मदिन है। मां को मेरी ओर से मुबारक देना।

मैं भी प्रोफेशनल राइटर बनना चाहती हूं। क्या बन सकती हूं?

               राकेश का पत्र-उसी एक के नाम

जालंधर

५.१२.

आज रात दो जरूरी काम किये-बांयें से दायें करवट ली।
और दायें से बायें‌।

तुम्हारा पत्र मुझे मिल गया है। मैंने जो पहले के पत्रों में लिखा है कि मैं अपने अंतर में कुछ भरा-भरा-सा महसूस करता हूं। अब यदि तुम सोचो कि यह भरना स्थूल उपलब्धि को ले कर है, तो मेरे साथ न्याय नहीं होगा। स्थूल की उपलब्धि कहां संभव नहीं है? परंतु किसी स्थूल की आत्मा में वह वायव्य कुछ नहीं होता, जहां आत्मीयता रहती है। मैंने जो अभाव भरा, वह था किसी की आत्मीयता में डूब जाने का… मेरी दृष्टि में शारीरिक पुलक में आत्मीयता भी दीप्त हो सकती है। उस दीप्ति के अभाव में शारीरिक पुलक पाशविकता है। मैने पाशविकता का जागरण कई बार देखा है। परंतु इतमा दिग्भ्रांत नहीं हूं कि उसमें और इसमें अंतर न कर सकूं। फिर भी, मैं तब ही से जानता हूं कि तुम्हें ऐसा लगा है, मुझे श्रेय है, तुम्हें दोष क्यों कर दूं? तुमने क्या दिया, क्या नहीं दिया, इसका लेखा-जोखा मैं नहीं कर सकता, परंतु कुछ क्षणों की दुर्बलता को मेरो उपलब्धि मान कर तुमने उचित नहीं किया। मैंने तुम्हें पुनरावृत्ति के अतिरिक्त कुछ न दिया हो, पर जो तुमसे प्राप्ति हुई, वह आत्मीय तत्व मेरे लिए अनुपलब्ध था। और विश्वास करना चाहता हूं कि अछूता भी था। करुणा का अवलंब भी अंततः अवलंब तो है।

mohan rakesh letter

एक बात कहूंगा। अप्राप्त की प्राप्ति कल्पना में नहीं होती, भावना में होती है, क्रिया में होती है। क्या तुममें अपनी कामना को-अमूर्त की चाह को, भावना और क्रिया देने की शक्ति है? तुम जो हो, वह भी बनी रहना चाहो और अतिरिक्त भी लेना चाहो, यह क्यों कर होगा? यह नहीं कि ‘उजली धूप में भीगी घाटियों तक जाने के रास्ते’ नहीं है। लेकिन रास्तों के अतिरिक्त चरण भी तो चाहिए। और विश्वास अपने पर, मार्ग पर, संबल पर। यूं अपनी असमर्थता को दूसरों की देन मान लेने से असंतोष कुछ हल्का भले हो जाये।‌ परंतु सिद्धि क्या हो पायेगी? तुमने अपनी पंक्तियां लौटा देने को कहा है। तुम्हारे विश्वास की यह परिणति है, तो उन्हें रोक कर रखूंगा भी नहीं। लेकिन एक बार फिर मांगो, लौटा दूंगा।

किसी दूसरे को उपादान के रूप में कभी मत ग्रहण करो। पुरुष हो, भावना हो, या पत्थर। अपने से बाहर उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारो। फिर उसे छुओ। तब इस तरह अनुपलब्धि का खेद न होगा, क्योंकि वेदना भी एक उपलब्धि है। उसमें भी सार्थकता है। मैंने गीता नहीं पढ़ी। इतना फिर भी कह सकता हूं कि जिधर प्रवृत्ति न हो, उधर कभी मत चलो। और जिधर प्रवृत्ति हो, उधर चले हुए हर चरण को अपनी सार्थकता मानो, जीवन में ‘तटस्थता’ कुछ नहीं है। मैं तुम्हें तुम्हारे उपादान के रूप में कभी नहीं मिलूंगा। यदि मिलूंगा, और जब भी मिलूंगा, एक इनसान के रूप में मिलूंगा।

तुम्हारे पत्र ने मुझे कहीं से छीला है, यह मैं निःसंकोच स्वीकार करता हूं। प्यार फिर भी लो। परंतु किसी रेखा के भीतर या बाहर नहीं। क्योंकि भावना में रेखा नहीं होती।

मोहन राकेश स्मृति अंक, सारिका, मार्च, १९७३ से साभार

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