मर्डर मिस्ट्री ऋतुपर्ण घोष का क्षेत्र नहीं था, लेकिन उन्होंने सदा अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर निकल कर काम किया है। वैसे वे अपने कम्फ़र्ट ज़ोन से पूरी तरह बाहर गए भी नहीं हैं, क्योंकि इस फ़िल्म में भी वे स्त्रियों को केंद्र में रख कर फ़िल्म बना रहे हैं। इस विषय में वे निष्णात हैं। स्त्री और उसके दूसरे लोगों से रिश्तों को परिभाषित करने में फ़िल्म निर्देशक ऋतुपर्ण घोष कुशल हैं। स्त्री-मनस का ऐसा सुंदर चित्रण करने केलिए ऋतुपर्ण घोष को लेडीज डायरेक्टर कहा जाता है। इनकी अधिकाँश फ़िल्में – ‘उन्नीसे एप्रिल’, ‘दहन’, ‘बाड़ीवाली’, ‘उत्सव’, ‘तितली’, ‘चोखेर बाली’, ‘अंतरमहल’, ‘दोसर’, ‘अबोहमान’, ‘नौका डूबी’ स्त्री केंद्रित हैं। इन फ़िल्मों में स्त्रियों के मन-मस्तिष्क, भावनाओं और संवेदनाओं, व्यवहारों का बहुत संवेदनशील फ़िल्मांकन हम देखते हैं। ‘शुभ मुहूर्त’ भी स्वतंत्रचेता स्त्रियों का कोलाज है।
अपनी 2003 की फ़िल्म ‘शुभ मुहूर्त’ में भी वे यही कर रहे हैं। हालाँकि इस फ़िल्म की कहानी उन्होंने किसी भारतीय साहित्य से नहीं ली है। न ही उनकी अपनी लिखी कहानी है। हाँ, उन्होंने कहानी का पुनर्लेखन किया है और इसमें वे पूरी तरह सफ़ल भी रहे हैं। इसमें उन्होंने कहानी उठाई है, एक समय की प्रसिद्ध मर्डर मिस्ट्री लेखिका अगाथा क्रिस्टी की और उसे पूरी तरह से भारतीय या यूँ कहें बंगाली जामा पहना दिया है। हालाँकि वे अगाथा क्रिस्टी का नाम कहीं नहीं देते हैं, लेकिन फ़िल्म को उनके गढ़े एक चरित्र ‘मिस मेपल’ को समर्पित करते हैं। इंग्लिश लेखिका अगाथा क्रिस्टी की कहानी पर स्क्रिप्ट तैयार करना आसान काम नहीं है, मगर यह काम घोष ने बड़े सलीके से किया है।
अब जिन्होंने अगाथा क्रिस्टी को पढ़ा या उनके काम पर बनी फ़िल्में देखी हैं, उन्हें तो ‘शुभ मुहूर्त’ का पूरा रहस्य और हत्यारा फ़िल्म की शुरुआत में ही मिल जाएगा। क्योंकि यह फ़िल्म अगाथा के ‘द मिरर क्रैक्ड फ़्रॉम साइड टू साइड’ (1980) का बाँग्ला संस्करण है। फ़िर भी फ़िल्म देखने का मजा किरकिरा नहीं होता है, क्योंकि एक तो खूबसूरत लोगों ने इसमें अभिनय किया है, दूसरे इसके डॉयलॉग आपको बाँधे रखते हैं। जब पूछा जाता है, ‘क्या हम एक साथ दो लोगों को प्यार नहीं कर सकते हैं?’ तो दर्शक सोचने-विचारने पर मजबूर हो जाता है। और इस फ़िल्म में आकर्षित करता है, बंगाल के उच्च-मध्यम वर्ग, खासकर स्त्रियों का रहन-सहन, उनका पहनावा, उनका शृंगार, केश-विन्यास। वैसे यह सब ऋतुपर्ण का हॉलमार्क है। फ़िल्म किसने हत्या की है, से अधिक हत्या क्यों की गई है, पर केंद्रित रहती है। अपराध को मनोवैज्ञानिक रुख दिया गया है, जो अगाथा क्रिस्टी की भी विशेषता है। वैसे बाँग्ला फ़िल्म जगत में जासूस एवं जासूसी फ़िल्मों की समृद्ध परम्परा रही है। यहाँ घोष चरित्रों की आंतरिक उथल-पुथल को दरशाते हैं। वे प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, नफ़रत जैसी जटिल भावनाओं को प्रौढ़ता के साथ फ़िल्माते हैं।
बंगाल के कल्चर में पगे-पले ऋतुपर्ण घोष बंगाल के मध्य एवं उच्च वर्ग में उपयोग की जाने वाली साड़ियों के विषय में विशिष्ट जानकारी रखते थे। वे बंगाल की साड़ियों-आभूषणों पर घंटो बात कर सकते थे। उन्हें वर्तमान एवं अतीत दोनों की साड़ियों, उनके पहनने के ढ़ंग की गहन जानकारी थी। ऋतुपर्ण घोष की अभिनेत्रियाँ बंगाल की खूबसूरत साड़ियां बड़े सलीके से पहनती हैं और यहाँ ‘शुभ मुहूर्त’ में तो टॉप ग्रेड की हिरोइने हैं। एक ओर राखी गुलजार है, तो दूसरी ओर शर्मिला टैगोर। दोनों बाँग्ला और बॉलीवुड की खूब प्रसिद्ध और मंजी हुई अभिनेत्रियाँ हैं। और तीसरी युवती है, मल्लिका सेन (नंदिता दास)। मगर वह बंगाली स्टाइल के नहीं एक आधुनिक लड़की की तरह जीन्स-टॉप पहनती है और हाँ, सिगरेट भी फ़ूँकती है। शुरु में बाथरूम में छिप कर, लेकिन अपनी रंगा पीसीमाँ (राखी गुलजार) की नजरों से नहीं बच पाती है। मिस मैपल की भूमिका में रंगा पीसीमाँ अपनी पत्रकार भतीजी से कहती हैं, ‘बाथरूम के बाहर सिगरेट पीयो, लेकिन कम और हाँ, मुझे भी एकाध पकड़ा दिया करो।’ यह ऋतुपर्ण की प्रतिभा है, वे दो अलग माइंडसेट की स्त्रियों, दो भिन्न आयु की स्त्रियों में खुला संवाद कराते हैं और उन्हें एक-दूसरे को समझने का अवसर देते हैं। फ़िल्म में पीसीमाँ को विधवा, कोमल, मधुर बोलने वाली लेकिन कुशाग्र बुद्धि दिखाया गया है। इस केस को सुलझाते हुए वह रसोई से निकल कर सफ़ल जासूस बन जाती है।
फिल्म का नाम भले ही ‘शुभ मुहूर्त’ है, पर प्रारंभ से अशुभ होता है, हालाँकि अंत में पोयटिक जस्टिस होती है। अपराधी को दर्शक जान जाता है। उसे सजा मिल रही है पर न्यायालय द्वारा नहीं।
पीसीमाँ अपनी सफ़ेद साड़ी में भव्य लगती है और अपनी ढ़ेर सारी बिल्लियों के साथ रहती है। वह टिपिकल बंगाली विधवा लाचार बुआ नहीं है। उसके आँख-कान-नाक खूब सजग हैं। भतीजी अपनी बुआ से अपने पत्रकार जीवन की बातें साझा करती है और उन्हीं से टुकड़े-टुकड़े जोड़ कर बुआ हत्या के रहस्य का पर्दाफ़ाश करती है।
दूसरी ओर उम्र दराज, एक समय की नामी-गिरामी अभिनेत्री पद्मिनी है। आधुनिक उच्च वर्ग की, विदेश से लौटकर आई पद्मिनी चौधुरी (शर्मिला टैगोर) काफ़ी समय बाद विदेश से लौटी हैं , एक फ़िल्म प्रड्यूस करने केलिए। पद्मिनी यह फ़िल्म अपने पति संबित राय (सुमंत मुखर्जी) से निर्देशित करवा रही है। पति जो है तो प्रतिभाशाली, मगर कभी सफ़ल नहीं हो सका है। पद्मिनी खूबसूरत है, घर-बाहर दोनों स्थानों पर वह सुरूचिपूर्ण कपड़े पहनती है। उसकी बाकी साज-सज्जा कपड़ों और मौके के अनुरूप होती है।

अधिकाँश लोगों का जीवन बड़ा विचित्र होता है। सफ़लता के साथ संतोष नहीं आता है, महत्वाकांक्षाएँ पीछा नहीं छोड़ती हैं। जीवन में संत्रास बना ही रहता है। ‘शुभ मुहूर्त’ इन्हीं बातों से जुड़ी फ़िल्म है।
ऊँचाई पर पहुँची अभिनेत्री पद्मिनी परिवार में रह रही थी, मगर परिवार से उसे वह कुछ नहीं मिल रहा है, जो वह चाहती थी। जब वह ‘प्राणेर प्रदीप’ फ़िल्म में कार्य कर रही थी, उसका झुकाव फ़िल्म के युवा निर्देशक संबित राय की ओर हो जाता है और वह उससे विवाह करती है। गर्भवती होती है, गर्भावस्था में उसका संसर्ग एक संक्रामक रोगी से होता है, फ़लस्वरूप उसका बच्चा मानसिक रूप से विकलांग पैदा होता है। बच्चा 16 साल जीवित रह कर मर जाता है। बेटे की मृत्यु से व्यथित पद्मिनी तलाक ले कर विदेश चली जाती है।
और अब कई वर्षों के बाद वह फ़िल्म प्रड्यूस करने भारत लौटी है। क्या वह सिर्फ़ फ़िल्म प्रड्यूस करने लौटी है, या उसका कोई हिडेन एजेंडा भी है?
फ़िल्म शूटिंग के प्रारंभ में जो शॉट लिया जाता है, वह मुहूर्त शॉट कहलाता है और इसे ही बाँग्ला में ‘शुभ मुहूर्त’ नाम से फ़िल्माया गया है। अधिकतर यह पहला शॉट खूब उत्सव, ताम-झाम और समारोह के साथ किया जाता है। फ़िल्म में ऋतुपर्ण घोष भी इसे बड़े फ़ैन-फ़ेयर के साथ फ़िल्माते हैं। इस दृश्य में सेट पर वे अभिनेता सौमित्र चैटर्जी, शुभेंदु चैटर्जी, माधबी मुखर्जी, निर्देशक गौतम घोष जैसी हस्तियों को सशरीर ले आते हैं, खूब फ़ोटो क्लिक किए जा रहे हैं। इस समारोह की स्टिल फ़ोटोग्राफ़ी को मुख्य रूप से शुभंकर चौधुरी (अनिन्द्य चैटर्जी) अंजाम दे रहा है, बीच में प्रमुख लोगों का एक फ़ोटो लेने गौतम घोष भी आ जाते हैं। पत्रिका की ओर से इवेंट कवर करने मल्लिका भी आई हुई है। खूब हँसी-खुशी के बीच मुहूर्त सम्पन्न होता है। पद्मिनी ने इस फ़िल्म के लिए स्वयं अभिनेत्री चुनी है। इस फ़िल्म की होरोइन है, काकोली सिन्हा (कल्याणी मंडल)। हालाँकि इस अवसर पर अभिनेत्री बहुत नर्वस है, बाद में पता चलता है कि वह ड्रग एडिक्ट है। मल्लिका काकोली का इंटरव्यू लेना चाहती है। काकोली की तबियत खराब है, अत: काकोली मल्लिका को अपने साथ कार में अपने घर ले आती है।
कार में प्रारंभ हुआ इंटरव्यू हीरोइन के घर में भी जारी रहता है, लेकिन अचानक मुँह से झाग फ़ेंकती हुई काकोली मर जाती है। वह ड्रग से नहीं मरी है। उसकी हत्या हुई है। चूँकि उस समय काकोली के पास केवल मल्लिका ही थी, अत: वह भी हत्या की जाँच-पड़ताल की चपेट में आ जाती है। एक ओर फ़िल्मी दुनिया के लोग, दूसरी ओर पुलिस, बीच में मौत और इन सबके बीच युवा पत्रकार। फ़िल्म दिखाती है, अतीत में कई लोगों के कई लोगों के साथ प्रेम प्रसंग हैं। वर्तमान में इसी बीच मल्लिका को दो लोग अपना दिल दे बैठते हैं। फ़्रीलांस फ़ोटोग्राफ़र शुभंकर चौधुरी और पड़ताल कर रहे आईपीएस ऑफ़ीसर अरिंदम चैटर्जी (तोता राय चौधुरी) दोनों को मल्लिका भा जाती है। मल्लिका का झुकाव भी आईपीएस ऑफ़ीसर अरिंदम चैटर्जी की ओर हो जाता है, जबकि इंट्रोवर्ट शुभंकर उसका प्रेम पाने के लिए अपने तई बहुत उपाय करता है। शुभंकर पद्मिनी का रिश्तेदार भी है। रंगा पीसीमाँ शुभंकर की खूब आवभगत करती है, लेकिन स्वार्थवश। रंगा पीसी माँ भतीजी से उसकी शादी के लिए शुभंकर का लाड़-प्यार नहीं करती है। वह उससे हत्या का रहस्य सुलझाने के लिए सूत्र प्राप्त करने के लिए ऐसा करती है। और वह इसमें सफ़ल रहती भी है।
‘शुभ मुहूर्त’ फ़िल्म है प्रेम, प्रतिकार, ब्लैकमेलिंग, श्याम-अतीत, पश्चाताप, रहस्य और हत्या की गुत्थियाँ की। यह फ़िल्म है स्मृतियों की, रिश्तों की, रिश्तों के उलझाव की, उन्हें सुलझाने की। कटु स्मृतियों और प्रतिकार के लिए किए गए अपराध की फ़िल्म है, ‘शुभ मुहूर्त’। चरित्रों का श्याम अतीत एक-एक कर खुलता जाता है। सामूहिक स्मृति के साथ व्यक्तिगत स्मृतियाँ हैं। स्मृतियाँ सदैव मधुर नहीं होती हैं। कटु स्मृतियाँ प्रतिकार के लिए उकसाती हैं, अपराध करवाती हैं।
फ़िल्म में हत्या, रहस्य, प्रेम के समानांतर एक प्रेम कथा और चलती है, हेयर ड्रेसर तथा असिस्टेंट कैमरामैन के बीच। एक समय इनके बीच प्रेम था, मगर अब हेयरड्रेसर मुसीबत में है और वह कैमरामैन से रुपए ऐंठती रहती है। अभिनेत्री की हत्या की सुई कई पात्रों पर घूमती रहती है। फ़िल्म निर्देशक संबित का भी अतीत है, इस अतीत का गवाह एक अभिनेता है, जिसे फ़िल्म से निकाल दिया गया था और आजकल वह फ़िल्म यूनिट के लिए कैटरिंग सर्विस का काम करता है। क्या वह राज का भंडाफ़ोड़ करेगा?
शक के घेरे में काकोली का पति भी आता है। हत्या किसने की है, यह रहस्य खोलकर मैं आपका नुकसान नहीं करना चाहती हूँ। उत्तर के लिए फ़िल्म खुद देखनी होगी।
ऋतुपर्ण घोष ने यह फ़िल्म बना कर उन स्त्रियों को अपनी आदरांजलि दी है, जो घर के भीतर रह कर दिन-रात परिवार की देखभाल करती हैं। उन्हीं की कर्तव्यपारायणता के फ़लस्वरूप घर के सदस्यों को समय पर भोजन मिलता है। असल में ऐसी स्त्रियाँ समाज को मजबूती प्रदान करती हैं। अक्सर उनकी लगन, उनके कार्य, कर्तव्य पारायणता, बुद्धिमता, उनके बलिदान की चर्चा नहीं होती है।
ऋतुपर्ण घोष की कई अन्य फ़िल्मों के भाँति इस फ़िल्म में भी रवीद्र संगीत है। इस फ़िल्म में कवि के एक गीत को अनिन्द्य चट्टोपाध्याय ने भी गाया है। अनिन्द्य बाँग्ला रॉक बैंड ‘चंद्रबिंदु’ के गायक हैं। इतना ही नहीं उन्होंने फ़िल्म में अभिनय भी किया है। इस फ़िल्म का म्युजिक देबज्योति मिश्र का है। देबज्योति मिश्र घोष के अच्छे मित्र थे, उन्होंने ऋतुपर्ण की कई फ़िल्म का संगीत दिया है।
इस फ़िल्म के भीतर फ़िल्म (इंटरटेक्चुअल) फ़िल्म का स्क्रीनप्ले ऋतुपर्ण घोष ने देबब्रत दत्ता के साथ मिल कर तैयार किया है। कहानी का इंग्लिश ट्रान्सलेशन सुदेशना बंधोपाध्याय का है। फ़िल्म के संवाद चुस्त-दुरुस्त हैं, बिना बड़बोलेपन के। हास्य-व्यंग्य, कटाक्ष, हल्के-फ़ुल्के संवाद दर्शक को भाते हैं। एडीटिंग अर्घ कमल मित्रा ने की है। अवीक मुखोपाध्याय का कैमरा बारीकी से घटनाओं तथा अभिनेताओं के मनोभावों को पकड़ता है। कौशिक सरकार का आर्ट डेकोरेशन कहानी के अनुरूप है। 150 मिनट की इस फ़िल्म को 2003 का सर्वोत्तम बाँग्ला फ़ीचर फ़िल्म का नेशनल अवार्ड मिला था। साथ ही राखी गुलजार को सर्वोत्तम सहायक अभिनेत्री का नेशनल अवार्ड मिला भी था।