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डॉक्टरों को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम से बाहर रखना चाहिए? 1995 के किस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने पुनर्विचार की बताई है जरूरत

दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि मेडिकल पेशे को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में लाने वाले उसके 1995 के फैसले पर अब पुनर्विचार करने की जरूरत है। कोर्ट ने हालांकि साथ ही ये भी साफ किया कि वकीलों को उनकी ‘गलत सेवा’ के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में नहीं लाया जा सकता है। डॉक्टरों के मामले पर जस्टिस बेला एम त्रिवेदी और जस्टिस पंकज मिथल की पीठ ने कहा कि तीन जजों की पीठ के पुराने फैसले पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए और बड़ी पीठ को इस मसले पर सुनवाई करनी चाहिए।

बेंच ने कहा, ‘हमारी राय में, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के इतिहास, उद्देश्य और योजना को ध्यान में रखते हुए और हमारे द्वारा व्यक्त की गई राय को ध्यान में रखते हुए उक्त निर्णय पर दोबारा विचार किया जाना चाहिए’। यह कहते हुए पीठ ने इस मामले को विचार के लिए भारत के चीफ जस्टिस के पास भेज दिया।

क्या है 1995 का डॉक्टरों के पेशे पर दिया गया फैसला

साल 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वीपी शांता मामले में एक निर्णय दिया था। इस फैसले ने चिकित्सा पेशे को उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2(1)(0) के दायरे में ला दिया था।

शीर्ष अदालत की ताजा टिप्पणी उस फैसले को सुनाते समय आई, जिसमें कहा गया कि वकील उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में नहीं आते हैं। उन पर उपभोक्ता अदालतों में ‘सेवा में कमी’ के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। पीठ ने स्पष्ट किया कि इसका मतलब यह नहीं है कि पेशेवरों पर उनके कथित कदाचार या कपटपूर्ण या आपराधिक कृत्यों के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है या उन्हें उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।

पीठ ने कहा, ‘हमने ‘पेशे’ को ‘व्यवसाय’ और ‘व्यापार’ से अलग किया है। हमने कहा है कि किसी पेशे के लिए एजुकेशन या साइंस की किसी ब्रांच में एडवांस एजुकेशन और ट्रेनिंग की जरूरत होगी। काम की प्रकृति अलग है, जिसमें शरीर के बजाय दिमाग पर ज्यादा जोर पड़ता है। किसी पेशेवर के साथ किसी व्यवसायी या व्यापारी की तरह समान व्यवहार नहीं किया जा सकता।’

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