शैलेंद्र का असमय निधन बहुत दुःखद घटना है। रेणु की दोस्ती, राजकपूर का साथ, वहीदा रहमान जैसी नायिका। शैलेन्द्र अगर चाहते तो और गीतकारों की तरह बम्बई में बने रहते पर उनके दिमाग में तो ‘मारे गये गुलफाम’ का नशा चढ़ा था। सोचनेवाली बात है कि कैसी अद्भुत होगी वो कहानी, जिसके पुनर्सृजन के क्रम में एक लेखक अपनी जान गंवा बैठता है? शैलेन्द्र डूब गए पर आज तीसरी कसम दुनिया की दस बेहतरीन फिल्मों में एक है..। ‘तीसरी कसम’ यानी वह कहानी, जिसे सैलूलायड पर पुनर्सृजित करने की जिद और ललक शैलेंद्र को ले डूबती है… गीतकार से निर्माता बनने की उनकी यह यात्रा आखिर इसे ही तो रचकर पूर्णाहुति को प्राप्त होती है।
‘मारे गए गुलफाम’ की कहानी सुनकर वहीदा रहमान की आंखें नम हो गई थी। हीराबाई का किरदार निभाने की चुनौती उन्होंने स्वीकार ली। शैलेंद्र ने शोमैन राजकपूर को ‘तीसरी कसम फिल्म में हीरामन का किरदार निभाने के लिए कहा। राज कपूर ने फिल्म में काम करने का मेहनताना एडवांस मांगा- एक रुपया, मात्र एक रुपया!
राज कपूर ने शैलेन्द्र को झांसी के एक कवि सम्मेलन में सुना था और उनकी प्रतिभा के कायल हो अपनी ‘आग’ फिल्म के गीत लिखने के लिए आमंत्रित किया था। शैलेन्द्र ने उनके आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था। फिर अपनी शादी के बाद वे स्वयं राज कपूर के पास गए थे और मांगकर फिल्म के लिए गीत लिखा। सवाल गृहस्थी चलाने और जमाने का था। फिल्म थी ‘बरसात।’
तीसरी कसम के सिलसिले में राज कपूर पर अक्सर लगाए जाने वाले आरोप झूठे हैं। वे तब भी अपने चेंबूर में किराए के घर में रहते थे और शैलेंद्र का लिंकिंग रोड, खार में अपना खुद का आलीशान बंगला ‘ रिमझिम’ था! राज कपूर और वहीदा रहमान ने तो उन्हें अधिकतम सहयोग दिया …. और फिल्म की कामयाबी को ध्यान में रखते हुए राज कपूर ने उन्हें हमेशा सही सलाह दी! पहले तो राज कपूर ने इस कहानी पर खुद फिल्म बनाने से इनकार किया… और फिर शैलेंद्र को भी मनाही की। शैलेंद्र भला कहाँ मानने वाले थे। तो फिर उन्होने इस फिल्म का अंत बदलने की सलाह दी-‘ हीरामन और हीराबाई को मिला दो, नहीं तो…? नहीं तो, ऐसी भयावह ट्रेजेडी कौन देखने आएगा सिनेमाघरों में? एक साल, दो साल, तीन साल…शूटिंग थी कि खत्म ही नहीं हो रही थी, तीन लाख खर्च का अनुमान था और … ” शैलेंद्र राज कपूर को समझाने की कोशिश करते हैं- “यह कहानी मेरी लिखी नहीं है। फणीश्वरनाथ से पूछ लेते हैं।“ रेणु असहमत हैं- ” हीरामन की भौजी मानेगी? नाचनेवाली हीराबाई को गोतनी (देवरानी) मानकर रहने देगी? बसने देगी क्या?”

शैलेंद्र को अनुभवी राज कपूर की बात मान लेनी चाहिए थी! अगर निर्देशन की डोर बासु भट्टाचार्य के बदले राज कपूर के हाथ में होती तो क्या शैलेंद्र के जीवन की कहानी कुछ और होती? इस फिल्म को ज्यादा दर्शक मिले होते? शायद हाँ, शायद नहीं…अगर राज कपूर में किसी फिल्म को हिट या फ्लॉप करने की क्षमता होती तो वे अपनी फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ को तब हिट करवा सकते थे। गुरुदत्त की ‘कागज के फूल’ भी हिट हो जाती फिर? यह सबकुछ जो घटित हुआ घोर अव्यवहारिकता और दूरंदेशी दृष्टि के अभाव के कारण…फिल्म निर्माण की कोशिश में पानी की तरह पैसा बहने के कारण…ये कृतियां समय से आगे की कृतियां थीं और वो सभी अपनी कृति का हश्र लगभग जानते और बूझते थे, लेकिन इनके कलाकार की जिद, उसका हठ इनकी हार का परिणाम बना। और फिर क्रूर दंड गुरुदत्त ने भी भोगा, राजकपूर ने भी और शैलेंद्र ने भी … इसमें से कौन उठकर फिर-फिर खड़ा हो सका, कौन नहीं, यह बात दीगर है- ‘सब भाग गए अपने-पराये, दोस्त यार। यहाँ तक कि ‘तीसरी कसम’ के कथाकार रेणु भी। इसलिए कि तीसरी कसम को पूरा करने का श्रेय शायद मुझ अकेले को मिले। रोऊँ या खुश होऊँ, कुछ समझ नहीं आता। पर तीसरी कसम पर मुझे नाज रहेगा हमेशा, पछतावा नहीं…’(शैलेंद्र)
शैलेंद्र और रेणु…! रेणु और शैलेंद्र, एक ही मिट्टी से गढ़ी गयी दो सूरतें- विद्रोही, स्वाभिमानी, देशभक्त और संघर्षशील! शैलेंद्र की एक चिट्ठी उन्हें मिली थी- ” आपकी कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर फिल्म बनाना चाहता हूं। आप की सहमति हो तो समय निकालकर मिलें।“
“फिल्म ?… शुभ काम में विलंब कैसा!”
रेणु जी ने शैलेन्द्र को पत्र लिखा- “दिल्ली आ रहा हूं, वही मिलेंगे।”
पटना रेडियो स्टेशन के सौजन्य से पटकथा लेखन के एक वर्कशॉप में शिरकत करने फणीश्वरनाथ दिल्ली पहुंचे। रेडियो स्टेशन के कार्यालय में शैलेंद्र और रेणु की वह यादगार मुलाकात हुई। फिल्म निर्माण की बात पक्की हो गई। शैलेंद्र ने फिल्म में पैसा लगाने का वादा किया, रेणु ने फिल्म निर्माण में उनका साथ देने का। रेडियो स्टेशन की नौकरी छोड़कर रेणु मुंबई पहुंचे, शैलेंद्र ने भी खूब सत्कार किया, रेणु का। भावना और प्रेम के भूखे रेणु गीतकार शैलेंद्र के कायल हो गए। फिल्म निर्माण की योजना बनने लगी। बासु भट्टाचार्य को शैलेंद्र ने डायरेक्टर चुना, नवेंदु घोष स्क्रिप्ट लिखने लगे। डायलॉग लिखने की जिम्मेदारी रेणु ने अपने पास रखी, सुब्रत मित्र कैमरामैन बने। “मिट्टी की सोंधी हांडी के स्वादिष्ट रसगुल्ले खा-खाकर रात-रात भर जागकर तीसरी कसम फिल्म के गीत और डायलॉग लिखे गये।‘ हसरत जयपुरी और शैलेंद्र गीत लिख रहे थे – ” सजनवा बैरी हो गये हमार….. “सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है…! सन् 1960 ई. के जनवरी महीने में फिल्म की शूटिंग शुरू हो गई, मकर संक्रांति के दिन।औराही हिंगना गांव में पहुंचे फिल्मकारों ने शूटिंग का उद्घाटन करने के लिए बैलगाड़ियां दौड़ाई! रेणु जी के आंगन में सबके फोटो खींचे गए। ‘इमेज मेकर्स’ के बैनर तले फिल्म निर्माण का वास्तविक कार्य शुरू हुआ। कमाल स्टूडियो में ‘तीसरी कसम’ फिल्म का एक-एक दृश्य फिल्माया जाने लगा, हू-ब-हू कहानी की तरह! रेणु के हीरामन और हीराबाई को राज कपूर और वहीदा रहमान अपने अभिनय से जीवंत करने लगे। लच्छू महाराज वहीदा रहमान को डांस सिखा रहे, वहीदा नाच रही है- “पान खाये सैंया हमार हो….. सांवली सुरतिया होंठ लाल-लाल…राय ढलने लगी, चांद छुपने लगा, आआ आ भी जा…” बंबई पहुँचकर रेणु ने कमाल स्टूडियो में जब कदम रखा तो हू-ब-हू पूर्णिया के गुलाबबाग मेले जैसा दृश्य! ‘द ग्रेट भारत नौटंकी कंपनी’ का मंच, टप्परवाली बैलगाड़ी पर बैठी गुलबदन वहीदा रहमान…. सिया सुकुमारी की चरण- सेवा में लगा पलटदास …! मारे गए गुलफाम, अजी हां मारे गए गुलफाम….. उल्फत भी रास न आई, अजी हां मारे गए गुलफाम …” की गूंज है चहुं तरफ।
दिन पर दिन बीते जा रहे, लोग कटाक्ष करने लगे हैं -‘”क्यों फनीसर बाबू, फिल्म का क्या हाल है?… बंबै में ही रहेगी या पटना भी आएगी कभी आपकी फिलिम?”
“क्यों शैलेंद्र जी पूरी हो गयी फिल्म?”
विमल रॉय और उनके कैंप ने उनका साथ अंतिम वक्त में इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि विमल रॉय की बेटी रिंकी ने घर से भागकर उनके असिस्टेंट बासु भट्टाचार्य से शादी कर ली थी। और इसमें शैलेन्द्र ने भी उनकी मदद की थी। इस कारण विमल रॉय उनसे नाराज थे। विमल रॉय के साथी डरते थे कि शैलेन्द्र से संबंध रखा तो विमल दा नाराज हो जाएंगे। लेकिन यह शैलेंद्र की महानता ही थी कि फिर भी उनसे विमल रॉय का खयाल न छूटा था। शैलेंद्र ने गुलजार को उनके पास भेजा, गुलजार को ब्रेक मिला और बाद में गुलजार उनके असिस्टेंट बनें।
अंततः ‘तीसरी कसम’ भी रिलीज हो ही गई | परंतु फिल्म- वितरकों को यह फिल्म समझ नहीं आ रही थी? फिल्म रिलिज होने के महीनों बाद तक पटना के सिनेमाघरों में फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो पाया। तीसरी कसम बन गई परन्तु शैलेन्द्र डूब गए। सचमुच मारे गए गुलफाम, उल्फत उन्हें भी भी रास नहीं आई… इस कहानी से, इस फिल्म से, दोस्तों से, परिवार से…
बीमार शैलेंद्र ने चिट्ठी लिखा, ” प्रिय रेणु, बहुत बीमार हूँ | अंतिम बार मिलने आ जाओ… बंबई ! ” पीएमसीएच के प्राइवेट वार्ड के बेड नंबर 21 पर बीमार पड़े फणीश्वरनाथ शैलेंद्र से मिलने नहीं जा पाये थे। सीने में दर्द… . खून की उल्टियां…! वे स्वयं दो-कदम भी चलने में असमर्थ।
रेणु को भी ‘तीसरी कसम’ फिल्म न सिर्फ शैलेंद्र की मृत्यु का कारण लगती है वरन कहीं वह इसके जड़ में स्वयं को भी बतौर कारक पाते हैं… काश!… और यह काश उनके सीने में किसी फांस कि तरह चुभता रहता है रह रहकर – ‘शैलेंद्र की मृत्यु के बाद जब भी कभी लिखने बैठा एक मुजरिम कि सफाई– ‘प्लीडिंग नॉट गिल्टी’ का रिकार्ड का दस्तावेज़ बनकर रह जाता… एक अपराध-भाव से पीड़ित अपनी आस्तीन दिखलाकर स्वयं को समझाता रहता– ‘नहीं मेरी आस्तीन पर लहू का दाग नहीं… मैंने शैलेंद्र का खून नहीं किया। मैं शैलेंद्र का हत्यारा नहीं’ … उसे शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि एक धर्मयुद्ध में वह लड़ता हुआ शहीद हुआ… सोचता हूँ अगर उसकी पहली चिट्ठी का जबाब मैं नहीं देता अथवा नकारात्मक उत्तर देता तो शैलेंद्र प्रोड्यूसर बनने का इरादा छोडकर गीत लिखता रहता। अपने परिवार के साथ सुख-चैन से सौ बरस तक जीता रहता…’ (रेणु अपने लेख ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे’ में)
आखिर वह धर्मयुद्ध क्या था जिससे शैलेंद्र लड़ते रहे अपने अंत तक? अकेले और तन्हा पड़ जाने की हद तक … फिर भी जिसका लगाव न उनसे छूटा, न उन्होंने उसे बनाने या फिर प्रदर्शित करने के निर्णय को कभी एक पल को भी छोड़ा याकि स्थगित होने दिया। पूरे छह बरस वो इस फिल्म के लिए हर पल जीते रहे और इस क्रम में इस जीने के लिए तिल-तिल मरते…. उनकी बेटी अमला जी बी.बी.सी के अपने एक इंटरव्यू में कहती हैं-‘ इस फ़िल्म को बनाने के दौरान उनके मन को ठेस पहुंची थी। वे कहती हैं- “उन्हें धोखा देने वाले लोगों से चोट पहुंची थी, बाबा भावुक इंसान थे। इस फ़िल्म को बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला। इसमें हमारे नज़दीकी रिश्तेदार और उनके दोस्त तक शामिल थे… जान पहचान के दायरे में कोई बचा ही नहीं था जिसने बाबा को लूटा नहीं। नाम गिनवाना शुरू करूंगी तो सबके नाम लेने पड़ जाएंगे।”

‘तीसरी कसम’ के निर्माण के दौरान ही शैलेंद्र इतने अवसाद में पहुंच गए थे कि उन्होंने देव आनंद को ‘गाइड’ के लिए गीत लिखने से भी मना कर दिया था। नतीजतन हसरत जयपुरी को साइन किया गया। लेकिन हसरत का काम देव और विजय को बिलकुल पसंद नहीं आया। वे फिर से शैलेंद्र के पास गए। शैलेंद्र ने व्यथित मन से गाइड के जो गीत लिखे वे फिल्म संगीत के इतिहास की धरोहर बन गए। गोल्डी फिल्म शूटिंग के साथ गाने की शूटिंग भी करना चाहते थे, क्योंकि गाने उनकी स्क्रिप्ट का जीवंत हिस्सा थे। इसलिए ज़रूरी था कि सारे गाने पहले से ही तैयार हो। गोल्डी के सिचुएशन बताने के अगले दिन ही शैलेंद्र गीत लिखकर लाते हैं, जिसके बोल हैं -‘ दिन ढल जाए हाय, रात न जाए’ गोल्डी शैलेंद्र और सचिन दा को दूसरे गाने की सिचुएशन समझाते हैं कि रोज़ी के पति मार्को ने रोज़ी को उसके संगीत, डांस और आर्ट से अलग कर दिया है। रोज़ी को राजू से मिलने के बाद एहसास होता है कि संगीत-नृत्य उसकी ज़िन्दगी है। उसने खुद को अपने शौक, अपनी कला से अलग करके बहुत बड़ी बेवकूफी की है। वह दोबारा अपनी ज़िंदगी जीने का संकल्प करती है। इस सिचुएशन के लिए शैलेन्द्र लिखते हैं- ‘ आज फिर जीने की तमन्ना है…आज फिर मरने का इरादा है।
‘शैलेंद्र के साथ यह एक समस्या थी कि मुखड़ा लिखने के बाद कई दिनों तक अंतरा नहीं लिखते थे। एकदिन गोल्डी उनके घर पहुंच जाते हैं कि ‘शैलेंद्र साब, बहुत वक़्त जाया हो रहा है। अंतरा पूरा कब करेंगे?’ शैलेंद्र कहते हैं कि ‘उन्हे़ कुछ समझ में नहीं आ रहा…सब उल्टा लग रहा है। रोज़ी कहती है, आज फिर जीने की तमन्ना है और आज फिर मरने का इरादा है । गोल्डी कहते हैं इस तमन्ना की आप अगली लाइन में कोई वजह दे दीजिए। वजह शब्द सुनते ही शैलेंद्र के दिमाग में कुछ पंक्तियां कौंधती है और वह उसी समय लिखते हैं- ‘काँटों से खींचके ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल/ कोई ना रोको दिल की उड़ान को, दिल वो चलाss…/आज फिर जीने की तमन्ना है…।‘ गोल्डी ये सुनते ही चमत्कृत हो जाते हैं। एक हिन्दुस्तानी शादीशुदा औरत, पहली बार आज़ादी से जीने का ऐलान करती है। उन्हें एहसास होता है कि क्यों शैलेन्द्र पंक्तियां लिखने में इतना वक़्त ले रहे थे।
सचिन दा शैलेंद्र के पीछे पड़े हैं कि आख़िरी गाना लिखकर दे दो। शैलेन्द्र बहुत व्यस्त हैं और उससे भी ज्यादा अनमयस्क। एकदिन सचिन दा उनको मछली खाने अपने घर पर बुलाते हैं। मछली के शौकीन शैलेन्द्र घर पहुँचते हैं। सचिन दा फ्राई मछली और दारू शैलेंद्र के पास रखकर कमरे का दरवाज़ा बाहर से बंद कर देते हैं –‘जबतक गाना नहीं लिखेगा, दरवाज़ा नहीं खुलेगा।‘ शैलेन्द्र मजबूरीवश मछली खाते हुए कलम पेपर थामते हैं और गीत लिख डालते हैं- ‘ मोसे छल किए जा, हाय रे हाय…. सैंया बेईमान।’ यहाँ इस गीत की प्रेरणा में सामने सचिन दा का यह भोला सा छल भले हो, पूर्वपीठिका में न जाने क्या कुछ और और कितना कुछ है।
वह चाहे ‘मोसे छल हो’, ‘वहाँ कौन है तेरा हो’ या फिर ‘दिन ढल जाये’ शैलेंद्र ‘गाईड’ के सारे गीतों में जैसे अपनी आत्मा उड़ेल रहे थे और अपनी ही आत्मकथा लिख रहे थे। अपना विषाद, अपना अकेलापन, अपना पीछे छूट जाना और छला जाना। यही नहीं उबरने और फिर से जीतने की तमाम नाकाम कोशिशें भी… दरअसल इन गीतों को एक मार्मिक कवि के अंतिम बयान की तरह भी सुना और गुना जा सकता है। जहां जीने की नाकाम कोशिशें है, छले जाने कि पीड़ा है और साथ है अपनी नाकामियां और जिद।
शैलेंद्र को सचमुच किसी ने भी नहीं मारा, या कहे कि किसी एक ने प्रत्यक्षतः नहीं मारा, उन्हें उनकी जिद ने मारा था। जिसे लेखक रेणु उनका ‘धर्मयुद्ध’ कहते हैं। यहां टूट जाना, अकेले छूट जाना मुनासिब और स्वीकार था; पर अपने प्रण, अपनी ‘तीसरी कसम’ को पीछे छोड़ देना, उसके साथ कोई समझौता करना या छूट लेना कत्तई नहीं। उसे वैसे ही और बिलकुल वैसे ही बनाना था उन्हें, जैसा कि वो चाहते थे, या जैसा उनका स्वप्न था।
लेख केवल संस्मरण भर नहीं है, बल्कि शैलेंद्र के जीवन की अंतर्ध्वनियों को पकड़ने वाला एक मार्मिक दस्तावेज़ है। इसमें उनके सपनों और जिद के बीच का द्वंद्व, ‘तीसरी कसम’ की त्रासदी और आत्मीय मित्रताओं की जटिल परतें अत्यंत संवेदनशीलता से उभरती हैं। गीतकार से निर्माता बनने की उनकी यात्रा कला के प्रति अटूट आस्था का प्रतीक है, और उनकी जिद को युद्ध का रूप देती है—एक ऐसा युद्ध, जिसने उन्हें काल का शिकार बनाकर भी कालजयी बना दिया। लेख पढ़कर शैलेंद्र का व्यक्तित्व और भी गहन, करुण और प्रेरक प्रतीत होता है।
शुक्रिया उर्वशी जी!
शुक्रिया उर्वशी!