शैलेन्द्र की मृत्यु के बाद उसके बारे में जब भी कुछ लिखने बैठा एक मुजरिम की सफाई– ‘प्लीडिंग नाट गिल्टी’ का दस्तावेज बनकर रह जाता। अतः कभी कुछ नहीं लिख सका। श्रीमती शकुन अथवा बाँटू (हेमंत अब शैली शैलेन्द्र) के नाम सम्वेदना का न कोई तार भेजा, न ही कोई पत्र ! एक अपराध भाव से पीड़ित, अपनी आस्तीन दिखला कर स्वंय को समझाता रहा, “नहीं, मेरी आस्तीन पर लहू का दाग नहीं। मैंने शैलेन्द्र का खून नहीं किया। मैं शैलेन्द्र का हत्यारा नहीं…!”
और, ऐसे प्रत्येक अवसर पर मेरी आँखों के सामने श्रीमती शकुन की हा हा खाती हुई तस्वीर उभर जाती। वह मेरी ओर ऊँगली उठाकर चीख उठती–“यही है… यही है… मेरे पति का हत्यारा….!”
तब मैं मुँह छिपाकर भागता। ‘तीसरी कसम’ का नाम सुनते ही भय से थर-थर काँपने लगता। रेडियो से प्रसारित होते हुए- ‘सजन रे झूठ मति बोलो’–गीत का गला घोंट देता। किंतु गीत और भी तेज आवाज में गूंजने लगता। मैं पागलों की तरह चिल्लाने की चेष्टा करता–“नहीं, नहीं… मैं झूठ नहीं बोल रहा…’
ऐसे में उसकी, यानी मेरे ‘बैरी सजनवा’ की मुस्कुराती हुई प्यारी छवि ‘फेड इन’ होती। तन-मन की ज्वाला को शान्त करने वाली उसकी मुस्कुराहट के साथ उसका परिचित स्वर गूंज उठता–“चिठिया हो तो हर कोइ बाँचे, भाग न बाँचे कोई, सजनवा बैरी हो गये हमार…’

इसके बाद मैं स्वयं स्वीकार लेता- “हाँ, कविराज ! मैंने ही तुम्हारी हत्या की। सिर्फ मैंने… शकुन, दी ! मैने ही तुम्हारा सुख-सुहाग लूटा है। बाँटू बेटे ! मैंने ही तुम सब को पितृहीन बनाया है। तुम लोग मुझे कभी क्षमा मत करना। कभी नहीं…
उसकी करीब तीन दर्जन चिट्ठियाँ मेरे पास थीं। उसके गुजरने के बाद स्थानीय कई फिल्मी पत्रकारों की कृपा से बहुत सारी चिट्ठियाँ और तस्वीरें गायब हो गयीं। यानी, न कहीं प्रकाशित हुई और न ही मुझे वापस मिलीं। अब करीब डेढ़ दर्जन पत्र पास रह गये हैं। जब कभी उसकी याद बेहद सताने लगती है, पत्रों के पैकेट को खोलकर पढ़ने लगता हूँ। मैं पढ़ता रहता हूँ और वह मेरे पास आकर बैठ जाता है। खंजनी बजाकर गाता रहता है–“कैसे मनाऊँ पियवा, गुन मोरे एकहु नाहीं…
धीरे-धीरे उसकी ‘सगुन छवि’ बिला जाती है। रह जाता है सिर्फ ‘निरगुन’ का वह अमर अनहद नाद, जिसके सहारे मन का हंस पंख पसार कर अंतहीन आकाश में उड़ने लगता है। उड़ता रहता है ! उसका दूसरा गीत शुरू होता है–“चली कौन से देश गुजरिया तू सज-धज के…”
और अंत में–“बहुत दिया देने वाले ने तुझ को, आँचल ही न समाय, तो क्या कीजै !”
उसने एक पत्र में लिखा था–“सब कुछ पिछले जन्म की भूली-बिसरी बात मालूम होती है… खबरें ‘सिने एडवांस’ या’स्क्रीन’ में कहाँ से मिलेंगी। इतनी सारी खबरें और उन पर अफवाहें– सब मिलाकर छापने के लिए कई वर्षों के लिए किसी अखबार में सीरिअलाइज (धारावाहिक) करना होगा…

सचमुच, उसकी ‘पहली चिट्ठी’ और ‘आखिरी खत’ के बीच-छः वर्षों में–इतनी घटनाएँ घटी हैं और इतने किस्म के लोग आये हैं कि वर्षों तक किसी अखबार में सीरियलाइज करना होगा, तभी उसकी कहानी और ‘तीसरी कसम’ के बनने-बनाने की कहानी पूरी हो सकेगी। तभी लोग यह जान पायेंगे कि उसे शराब या कर्ज ने नहीं मारा, बल्कि वह एक ‘धर्मयुद्ध’ में लड़ता हुआ शहीद हो गया।
उसने लिखा था–” सब भाग गये अपने पराये, दोस्त-यार। यहाँ तक कि ‘तीसरी कसम’ के कथाकार ‘रेणु’ भी। इसलिए कि, फिल्म ‘तीसरी कसम’ को पूरा करने का श्रेय शायद मुझ अकेले को मिले। रोऊँ या खुश होऊँ कुछ समझ में नहीं आता। पर, ‘तीसरी कसम’ पर मुझे नाज रहेगा, पछतावा नहीं।”
मैं यहाँ सबसे पहले उसकी ‘पहली चिट्ठी’ और ‘आखिरी खत’ प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसके बाद ‘पहली मुलाकात’ से लेकर ‘अंतिम विदा-संभाषण’ तक विस्तारपूर्वक सब कुच्छ लिखने की इच्छा है। छःह वर्षों में उसके साथ बिताये हुए दिनों के एक-एक क्षण, हर छोटी-बड़ी घटनाएँ और सारे संवाद मुझे अक्षरशः याद है। किन्तु, लिखते समय महसूस कर रहा हूँ कि अपने कलेजे के रक्त में लेखनी को डूबो-डूबो कर ही उसके बारे में सब कुछ लिखना संभव हो सकेगा। और यह मुझे ही लिखना पड़ेगा। अन्यथा मैं पागल हो जाऊँगा।
पहली चिट्ठी, अक्तूबर 23, 1960
बंधुवर फणीश्वरनाथ,
सप्रेम नमस्कार। ‘पाँच लम्बी कहानियाँ पढ़ीं। आपकी कहानी मुझे बहुत पसंद आयी। फिल्म के लिए उसका उपयोग कर लेने की अच्छी पासिबिलिटीज (संभावनाएँ) हैं। आपका क्या विचार है? कहानी में मेरी व्यक्तिगत रूप में दिलचस्पी है।
इस संबंध में यदि लिखें तो कृपा होगी। धन्यवाद!
अक्तूबर 23, 1960
आपका
शैलेन्द्र
आखिरी खत
29.9.66
प्रिय भाई रेणु जी,
सप्रेम नमस्कार।
फिल्म आखिर रिलीज हो गई, मालूम ही होगा। जो नहीं मालूम वह बताता हूँ। दिल्ली यू० पी० के डिस्ट्रिब्यूटर और उसके सरदार फायनेन्सियर्स का आपसी झगड़ा–छः अदालतों में Injuctions–मेरे ऊपर वारन्ट- कोई पब्लिसिटी न होते हुए फिल्म लगी। मुझे अपनी पहली फिल्म का प्रीमियर देखना भी नसीब नहीं हुआ। यह तो उन सरदार फायनेन्सियर्स का ही दम था कि चित्र प्रदर्शित हो सका, अन्यथा यहाँ से दिल्ली सपरिवार गये हुए राज साहब अपमानित लौटते। मुझे यहाँ आपने इस बार देखा है, कल्पना कर सकते हैं क्या हालत हुई है।
इस सबके बावजूद पिक्चर की रिपोर्ट बहुत अच्छी रही। रिव्यूज तो सभी ‘टाप क्लास’ मिले।
सी. पी. बरार में भी रिलीज हो गयी। वहाँ भी एकदम बढ़िया रिपोर्ट है। कल सी. आई. राजस्थान में हो जायेगी।
कम-से-कम बम्बई रिलीज पर तो आपको अवश्य बुला सकूँगा।
पत्र दीजियेगा। लतिका जी को मेरा नमस्कार दीजिएगा।
शेष कुशल
आपका भाई
शैलेन्द्र
सोचता हूँ, अगर उसकी पहली चिट्ठी का जवाब में नहीं देता अथवा नकारात्मक उत्तर देता तो, शैलेन्द्र प्रोड्यूसर बनने का इरादा छोड़कर गीत लिखता रहता। अपने परिवार के साथ सुख-चैन से सौ बरस तक जीवित रहता। दरअसल, मैंने ही, सिर्फ मैने उसकी जान अकारथ ले ली !
… अब क्या कीजै ?
साभार-
किताब- प्राणों में घुले हुये रंग
संपादक- भारत यायावर
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली