हिमालय की गोद में बसा हिमाचल प्रदेश न केवल अपनी शांत वादियों और प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि अपनी प्रभावशाली सैन्य विरासत के लिए भी जाना जाता है। इस क्षेत्र की दुर्गम भौगोलिक बनावट हमेशा से ही एक प्राकृतिक रक्षा कवच और रणनीतिक शक्ति रही है, जिसका प्रतिबिंब यहाँ की पहाड़ियों और पर्वत श्रृंखलाओं पर स्थित किलों में दिखाई देता है। यहाँ का हर किला एक मौन प्रहरी है जो सदियों से चले आ रहे युद्धों, सत्ता संघर्षों और बदलते साम्राज्यों का साक्षी रहा है।
नूरपुर किला, कांगड़ा
यह किला कांगड़ा के उत्तर-पश्चिम में नूरपुर शहर में स्थित है। इस किले और शहर दोनों का नाम मुग़ल बादशाह जहांगीर की प्रिय रानी नूरजहाँ के नाम पर रखा गया है। इसे पहले धमेड़ी के नाम से जाना जाता था और इसकी स्थापना 11वीं सदी में राजा जेत पाल ने की थी, जिनका संबंध उस समय के दिल्ली के तोमर राजपूत शासकों से था। धमेड़ी इस क्षेत्र में शक्ति का केंद्र था और राजा बासु (शासनकाल 1580 से 1613) के शासनकाल के दौरान यह अपने चरम पर पहुँचा, जिन्होंने इस किले का निर्माण कराया था (जो पहले धमेड़ी किला कहलाता था)। आज़ादी से पहले तक, नूरपुर किला राजपूतों के पठानिया वंश के अधीन था, जिनका भी दिल्ली के तोमर राजवंश से संबंध था। इन्होंने आठ सदियों से भी ज़्यादा समय तक नूरपुर और आस-पास के क्षेत्रों पर राज किया। कहा जाता है कि जब नूरजहाँ धमेड़ी किले में रुकी थीं, तो वह इस जगह की प्राकृतिक सुंदरता से इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि उन्होंने वहीं हमेशा के लिए रहने का फ़ैसला कर लिया था। हालाँकि, जब जहांगीर ने कांगड़ा किला जीतने के बाद धमेड़ी का दौरा किया, तो स्थानीय अधिकारियों ने किले का नाम नूरजहाँ के नाम पर बदलकर “नूरपुर” कर दिया।
रघुपुरगढ़ किला, कुल्लू
रघुपुरगढ़ किला हिमाचल प्रदेश के कुल्लू ज़िले में स्थित है। किले का समृद्ध इतिहास 17वीं शताब्दी से शुरू होता है जब इसे कटोच राजवंश द्वारा बनाया गया था। किंवदंती है कि किले का नाम कुल्लू घाटी के एक प्रमुख शासक राजा रघुपुर सिंह के नाम पर रखा गया था। सदियों से रघुपुरगढ़ के इस ऐतिहासिक किले ने कई लड़ाइयों और स्वामित्व में बदलाव को भी देखा है।
कांगड़ा किला
कांगड़ा किला हिमाचल प्रदेश राज्य के कांगड़ा जिले में स्थित एक ऐतिहासिक किला है। इस किले को ‘नगरकोट’ और ‘कोट कांगड़ा’ के नाम से भी जाना जाता है। कांगड़ा किले का निर्माण कांगड़ा के कटोच वंश के राजपूत परिवार ने करवाया था, जिन्होंने खुद को प्राचीन त्रिगत साम्राज्य, जिसका उल्लेख महाभारत, पुराण में किया गया है, के वंशज होने का प्रमाण दिया था। यह किला धौलाधार पर्वत श्रृंखला की तलहटी के बीच दो नदियों (मांझी और बाणगंगा) के बीच एक पहाड़ी पर स्थित है। यह किला भारतीय हिमालय में सबसे बड़ा है, और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में है।

बनासर का गोरखा किला
कसौली तहसील की बनासर पंचायत में स्थित सदियों पुराना बनासर का किला रख रखाव के अभाव में नष्ट होने के कगार पर है। इस किले का निर्माण गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने 1806 से 1815 ईसवी के मध्य में करवाया था। इस किले का निर्माण हरियाणा की ओर से आने वाली अंग्रेजों की सेनाओं पर नजर रखने के लिए किया गया था। इसी अवधी में गोरखा सेनापति ने धारों की धार, जोहड़जी, मलोण व सुबाथू किले का निर्माण भी किया था।
कोटबेजा महल
पर्यटन नगरी कसौली की ढलान पर बसी बेजा रियासत में है कोटबेजा महल, जो दो नदियों के बीच होने के कारण ‘कोट’ और रियासत में अदरक का ‘बीज’ भरपूर होने के कारण ‘कोटबेजा’ कहलाया।
बेजा रियासत की स्थापना सन 1350 में दिल्ली के साथ लगती रियासत के तंवर क्षत्रीय वंशीय राजा ढोलपाल की 43वीं पीढ़ी के राजा गर्वचंद ने की थी। यह रियासत कहलूर के अधीन भी रही, लेकिन जल्द ही यह उससे आजाद हो गई. इस रियासत पर कुल 28 राजाओं ने राज किया। इसके अंतिम शासक लक्ष्मीचंद रहे। गोरखा आक्रमण के समय इस रियासत पर मानचंद का राज था, जो जड़ी बूटियों का अच्छा ज्ञाता था। उसने गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा की जख्मी सेना का इलाज किया, जिससे खुश होकर बेजा रियासत को मुक्त कर दिया। बेजा रियासत से कुछ हिस्सा कसौली छावनी में मिलाने के कारण अंग्रेजी सरकार 80 रुपये वार्षिक शुल्क बेजा रियासत को अदा करती थी। 15 अप्रैल 1948 को यह रियासत भी हिमाचल का हिस्सा बन गई।
अर्की किला
अर्की बघाल की रियासती पहाड़ी राज्य की राजधानी थी, जिसकी स्थापना राणा अजै देव (पंवर राजपूत) ने लगभग 1643 में की थी। राणा सभा चंद ने 1650 में अर्की को इसकी राजधानी घोषित किया। अर्की का किला हिमाचल प्रदेश के सबसे पुराने किलों में से एक है। अर्की महल का निर्माण राणा सभा चंद के वंशज राणा पृथ्वी सिंह ने 1695 से 1700 के बीच कराया था। 1806 में इस किले पर गोरखों ने कब्ज़ा कर लिया। बघाल के शासक राणा जगत सिंह को नालागढ़ में शरण लेनी पड़ी। 1806 से 1815 के इस समय के दौरान, गोरखा जनरल अमर सिंह थापा ने अर्की को अपना गढ़ बनाकर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा तक आगे बढ़ने के लिए इस्तेमाल किया।
नालागढ़ किला
शुरुआत में, नालागढ़ हिंदूर रियासत की राजधानी थी, जिसकी स्थापना 1100 ईस्वी में राजा अजै चंद ने की थी। ये चंदेल राजपूत थे, जो मध्य भारत के बुंदेलखंड क्षेत्र में चंदेरी से आए थे। नालागढ़ किले का निर्माण हिमाचल प्रदेश के चंदेल राजपूत वंश के शासक राजा बिक्रम चंद ने 1421 में करवाया था। नालागढ़ के अंतिम शासक राजा सुरेंद्र सिंह थे और उनके बेटे, राजा विजयेंद्र, वर्तमान में नालागढ़ के औपचारिक प्रमुख हैं।
सदियों से, किले ने गोरखों और अंग्रेजों के साथ झड़पों सहित कई लड़ाइयाँ देखीं। इस क्षेत्र पर गोरखों का शासन था, जब तक कि 1815 में अंग्रेज़ों ने गोरखों को हराने के बाद इस क्षेत्र पर कब्ज़ा नहीं कर लिया। नालागढ़ किला अपनी प्रभावशाली वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है, जो राजपूत और मुगल शैलियों का मिश्रण है।
धारों की धार किला
सोलन शहर से करीब 18 किलोमीटर दूर ग्राम पंचायत शमरोड़ के ऐतिहासिक गांव धारों की धार में बघाट रियासत के पहले पंवर राजपूत राजा जामवान और रानी जामवंती ने धारों की धार किले का निर्माण करवाया था। किला 5 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। धारों की धार किले के जरिए शिमला, कसौली, अर्की, चायल, सिरमौर में लगने वाली रियासतों पर नजर रखी जाती थी। इसके साथ ही पहली एंग्लो गोरखा युद्ध (1814-1816) के दौरान गोरखों ने भी इस किले का इस्तेमाल किया था, जिस कारण से इसे ‘जंग बहादुर गोरखा किला’ भी कहा जाता है। जंग में अंग्रेज़ी हुकूमत की विजय के बाद से ये किला लावारिस पड़ा है।
रेहलू किला, कांगड़ा
वर्तमान में जिला काँगड़ा का भाग रेहलू अतीत में तत्कालीन चम्बा रियासत का हिस्सा हुआ करता था। इस किले का निर्माण चम्बा के तत्कालीन शासक सूर्यवंशी राजपूत राजा राज सिंह ने करवाया था।
1809 ई में कांगड़ा (त्रिगर्त) के शासक संसार चंद कटोच और सिख शासक रणजीत सिंह के बीच हुई संधि के बाद पहाड़ी रियासतों का सूबेदार देस्सा सिंह मजीठिया को नियुक्त किया गया, जिन्होंने चम्बा के रिहलू क्षेत्र पर अधिकार करने के लिए रिहलू किले का घेराव किया जिस पर चम्बा की रानी ने युद्ध न करने का फैसला लेते हुए 1821 में रिहलू तालुके को सिख सूबेदार को सौंप दिया। 1846 में जम्मू कश्मीर रियासत के शासक बनने के बाद महाराजा गुलाब सिंह ने राजौरी के अंतिम शासक रहीम उल्लाह खान के बेटे को निर्वासित कर कांगड़ा में रिहलू की जागीर प्रदान कर दी और रिहलू किले में भेज दिया और इस तरह अगले 100 साल मिर्जा परिवार रिहलू परगने में रहा।
1905 के विनाशकारी भूकंप में काँगड़ा में भीषण तबाही हुई। इस तबाही से रिहलू का किला भी अछूता न रहा। भूकंप में किला पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गया जिसमें मिर्ज़ा परिवार के 35 सदस्य मारे गए। इस तरह रेहलू किले पर राजपूतों, सिखों और मिर्ज़ा के परिवारजनों का समय-समय पर अधिकार रहा।
कोट केहलूर किला, बिलासपुर
बिलासपुर रियासत को केहलूर के नाम से जाना जाता था और इसके शासक चंद्रवंशी राजपूत कहलूरिया कबीले के सदस्य थे। इस चंदेल वंश के राजा बीर चंद ने एक किला-सह-महल बनवाया, जिसे ‘कोट कहलूर’ कहा गया। कोटकहलूर किले के परिसर के अंदर नैना देवी को समर्पित एक मंदिर है, जिसमें पत्थर से बनी एक मूर्ति स्थापित है।
सोलासिंघी किला या कुटलेहर किला, ऊना
सोलासिंघी किला, जिसे कुटलेहर किला भी कहा जाता है, हिमाचल प्रदेश के ऊना में स्थित है. इसे कांगड़ा क्षेत्र पर शासन करने वाले कटोच राजपूत वंश के राजा संसार चंद ने बनवाया था। बाद में 1809 में, इन किलों का जीर्णोद्धार (मरम्मत) सिख महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया। कहा जाता है कि कुटलेहर किला एक समय लाहौर से भी दिखाई देता था।
हरिपुर किला, कांगड़ा
हरिपुर किला राजा हरि चंद ने बनवाया था, जिन्होंने 1405 ईस्वी में हिमाचल प्रदेश के एक पूर्व रियासती राज्य गुलेर की स्थापना की थी। राजा हरि चंद कटोच राजपूत वंश के थे, जो कांगड़ा पर शासन करता था, लेकिन उन्होंने गुलेर में अपना अलग राज्य स्थापित करने का फैसला किया। हरिपुर और गुलेर जुड़वां शहर हैं, जो गुलेर रियासत की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. एक नदी इन दोनों शहरों को अलग करती है। हरिपुर अपनी पारंपरिक कांगड़ा और पहाड़ी पेंटिंग्स के लिए भी प्रसिद्ध है, जो शाही संरक्षण में इस क्षेत्र में शुरू हुईं और फली-फूलीं।
मलौण का गुरखा किला, नालागढ़
1800 ईसवी में चंदेल राजपूत राजा ईश्वर चन्द नालागढ़ रियासत के राजा थे और मलौण किले पर भी इन्हीं का आधिपत्य हुआ करता था। अमर सिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने 1804-1815 के बीच स्थानीय राजाओं और छोटे सरदारों को हराने के बाद वर्तमान हिमाचल प्रदेश में कई किलों पर कब्ज़ा किया, जिनमें से ज्यादातर सोलन जिले में थे। मैदानी इलाकों पर नजर रखने वाले गोरखा किले निगरानी टावर के रूप में भी काम करते थे और कभी पहाड़ियों में नेपाली शासन के प्रतीक हुआ करते थे। इसके बाद गोरखों और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ जिसमें सर डी ओक्टरलोनी ने गोरखों को हराया। इस दौरान अमर सिंह थापा का विश्वसनीय शूरवीर भक्ति थापा युद्ध में मारा गया और गोरखा सैनिकों को अंग्रेजी सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसी मलौण किले पर ही अंग्रेज़ी फौज की नसीरी रेजिमेंट का गठन किया, जिसमें प्रमुखत: गोरखा सैनिक शामिल किए गए।
डाडा सिबा किला, कांगड़ा
सिबा एक छोटा राज्य था, जिसकी स्थापना 14वीं सदी के मध्य में गुलेर के शाही राजपूत घराने के वंशज राजा सिबर्न चंद ने की थी। 18वीं सदी में, कांगड़ा के कटोच राजा संसार चंद सिबा को अपने साम्राज्य में मिलाना चाहते थे, लेकिन 19वीं सदी में गोरखों के आने से हुई गड़बड़ी के बाद, इसके बजाय गुलेर के राजा ने सिबा को अपने साथ मिला लिया। हालाँकि, सिखों की मदद से सिबा के राजा गोविंद सिंह को सिबा का सिंहासन वापस मिल गया, लेकिन सिबा का एक हिस्सा सिखों की जागीर बन गया। लेकिन सिबा के शासक राजा राम सिंह ने सिखों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और सिबा किले पर फिर से कब्ज़ा कर लिया।
जसवां किला, ऊना
राजपुर जसवां में करीब 300 वर्ष तक कटोच कुल के राजपूत जसवाल परिवार के शासकों ने राज किया। बताते हैं कि जसवाल वंश के शासकों की सत्ता पंजाब के जेजों से लेकर कांगड़ा की ब्यास नदी के किनारे तक रही। इस अवधि में राज पूर्व चंद्र और रघुनाथ सिंह लोकप्रिय राजा रहे। 1572 ई. में जब कांगड़ा के राजा जयचंद को कैद करके दिल्ली भेजा गया तो उसने जाने से पूर्व अपने अवयस्क बेटे विधि चंद के स्थान पर जसवां के राजा गोबिन्द चंद को रियासत का कार्यभार सौंपा जिसने सफलतापूर्वक मुगल सेना के विरुद्ध कुछ समय के लिए कांगड़ा किले की रक्षा की। राजा उमेद सिंह 1848 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा, जिसमें जसवां के राज्य को जब्त कर लिया गया और राजा उमेद सिंह, जय सिंह व रण सिंह को 30 वर्षों तक नजरबंद रखा गया। इस दौरान राजा उमेद सिंह व जय सिंह की मौत हो गई। इसके उपरांत रण सिंह जम्मू-कश्मीर राज्य के रामकोट चले गए यहां उसके बेटे राजा रघुनाथ सिंह का विवाह हुआ। 1877 ई. में अम्ब में स्थित पारिवारिक प्राचीन बाग सहित 21 गांवों की जागीर के रूप में जसवां रियासत पुन: स्थापित की गई और उन्हें राजा बनाया गया, साथ ही जम्मू की रायकोट जागीर भी दी गई।

कटोचगढ़: सुजानपुर टीरा का किला
सुजानपुर टीरा का महल(किला) ‘टीरा’ नाम से जाना जाता है। इसे कांगड़ा के कटोच राजपूत वंश के राजा अभय चंद ने 1758 में बनवाया था। एक सदी से भी ज़्यादा समय तक, सुजानपुर टीरा कटोच वंश का शाही निवास रहा। 19वीं सदी की शुरुआत में यह किला राजा संसार चंद का भी निवास स्थान था, जिन्हें कांगड़ा लघु चित्रकला शैली का संरक्षक माना जाता है। सुजानपुर टीरा में पाँच मंदिर और एक हॉल है, जिसे बारादरी कहा जाता है, जहाँ संसार चंद के शासनकाल में दरबार लगता था। 1905 के भूकंप में किला आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था, लेकिन यह एक बहादुर योद्धा की तरह आज भी शान से खड़ा है।
चेहनी कोठी, कुल्लू
चेहनी कोठी 1500 साल पुरानी एक मज़बूत इमारत है और यह राजा राणा धाधिया का किलेबंद निवास स्थान था. कहा जाता है कि इस क्षेत्र के ठाकुर, जिनका नाम धाधिया था, अपनी पत्नी चेहनी से बहुत प्यार करते थे। अपनी प्यारी पत्नी की मृत्यु के बाद, उन्होंने उनकी याद में यह अनोखा किला बनवाया, जो आज भी उनके अमर प्रेम की याद दिलाता है। 1905 के भूकंप में किला आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किले की ऊँचाई 60 फुट है। स्थानीय लोगों द्वारा चलाए गए जीर्णोद्धार कार्यक्रम ने इस मंदिर को बहाल करने में मदद की। चेहनी अपने जुड़वां टॉवर मंदिरों के लिए भी प्रसिद्ध है।
ज्वाली महल किला
नूरपुर के राजपूत राजा जगत सिंह पठानिया की बेटी रानी ज्वाला देवी के नाम पर इस शहर का नाम ज्वाली पड़ गया। वह ब्याहकर ज्वाली आई थी। ज्वाली में रानी के लिए एकडंडिया महल का निर्माण किया गया और नहाने के लिए नहाने का स्थान बनवाया गया। इस निर्माण शैली के प्राचीन महल आज बहुत कम देखने को मिलते हैं। आज भी जवाली में रानी का महल मौजूद है।
नग्गर महल, कुल्लू
नग्गर किला एक विशाल किला है, जिसे 1978 से एक होटल में बदल दिया गया है। इसे कुल्लू के चंद्रवंशी राजा राजा सिद्ध सिंह ने लगभग 1460 ईस्वी में बनवाया था। यह किला कई सालों तक कुल्लू के राजाओं का मुख्यालय रहा और यह व्यास नदी, उसके किनारे के गाँव, घने देवदार के जंगल और बर्फ से ढके रोहतांग दर्रे के सुंदर दृश्यों से घिरा हुआ है। एक समय, सौ साल पहले, यह एक होटल के रूप में था, लेकिन अब इसे एक गेस्ट हाउस के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
पांगणा किला, करसोग
पांगणा कई वर्षों तक सुकेत रियासत की राजधानी थी। सुकेत वंश का संबंध सेन राजाओं से था और इस राज्य की स्थापना लगभग 765 ईस्वी में राजा वीर सेन ने की थी, जो बंगाल के एक सेन राजा के बेटे थे। पहाड़ियों में आने के बाद, 778 ईस्वी में करसोग शहर के पास कुनू धार नामक जगह पर पहला महल बनाया गया। बाद में वे पांगणा चले गए, जहाँ उन्होंने पांगणा किले का निर्माण किया, और 1240 तक, सेन राजाओं ने इस क्षेत्र पर शासन किया।
कामरू किला, सांगला घाटी
कामरू किले का एक समृद्ध इतिहास है और यह बुशहर के राजपूत शासकों की प्राचीन राजधानी था, जो किन्नौर क्षेत्र का एक हिस्सा थे। राजधानी को सराहन में स्थानांतरित करने से पहले, कामरू किला बुशहर राजवंश की पूर्व राजधानी के रूप में काम करता था। यह 15वीं सदी का है और इस क्षेत्र के लिए एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक और रणनीतिक केंद्र रहा है।
परिसर के अंदर देवी कामाख्या देवी का एक मंदिर और कई अन्य संरचनाएँ हैं। लोककथाओं के अनुसार, कामरू किले में 36 करोड़ देवी-देवता निवास करते हैं।
गोरखा किला, सुबाथू
सुबाथू में गोरखा किला 4,500 मीटर की ऊँचाई पर एक छोटी पहाड़ी पर स्थित है। किले में तोपें हैं जो लगभग 180 साल तक पुरानी हैं; चारों तरफ के जंगल इतिहास से भरे हुए हैं। माना जाता है कि गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने ब्रिटिशों के साथ एक लड़ाई की तैयारी में 1900 ईस्वी में इस किले का निर्माण कराया था। आगंतुक किले के इतिहास और वहाँ लड़ने वाले गोरखा सैनिकों की वीर गाथाओं के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं। अब भारतीय सेना की 14वीं गोरखा राइफल्स वहाँ प्रशिक्षण लेती है।
तारागढ़ किला, चम्बा
यह किला तारावास, भाटियात (चम्बा) में स्थित है. यह चम्बा के सबसे पुराने किलों में से एक माना जाता है। इस किले का निर्माण लगभग 1626 ईस्वी में पठानिया राजपूत राजा राजा जगत सिंह ने रक्षा के लिए एक सुरक्षित जगह के रूप में कराया था। यह किला चम्बा रियासत के दौरान नूरपुर या पंजाब की तरफ से आने वाली किसी भी सेना को दूर रखने के लिए बनाया गया था। इस मज़बूत किले पर कब्ज़ा करने में मुग़ल सेना को 12 साल लगे थे।
जैतक किला, सिरमौर
जैतक किला नाहन, सिरमौर में जैतक पहाड़ियों में स्थित है। माना जाता है कि इस किले को ध्वस्त किए गए नाहन किले से मिली सामग्री का उपयोग करके बनाया गया है। गोरखा सरदार रंजोर सिंह थापा इस किले के निर्माण के मुख्य आधार हैं। किले का निर्माण 1810 में गोरखों द्वारा नाहन महल पर हमला करने के बाद किया गया था। यह किला ब्रिटिशों और गोरखा सेना के बीच 1814 से 1815 के बीच हुई लड़ाई की एक झलक माना जाता है। और कहा जाता है कि नेपाली सेना अंग्रेज़ों पर जीत हासिल करने में कामयाब रही थी।
महल मोरियाँ किला, हमीरपुर
महल मोरियाँ किला, जो अब खंडहर बन चुका है, हमीरपुर शहर के पास स्थित है। कहा जाता है कि कटोच राजपूत राजा हमीर चंद ने अपने शासनकाल (1700-1740 ईस्वी) के दौरान इस महल का निर्माण कराया था। हालाँकि, एक और विचार यह है कि शहर का नाम हमीर चंद के नाम पर पड़ा है, लेकिन इस किले का वास्तविक निर्माता उनका वंशज राजा संसार चंद द्वितीय (1765 – 1823) था। संसार चंद की विस्तार योजनाओं से चिंतित, स्थानीय सरदारों ने नेपाल के गोरखा राजा को आमंत्रित किया और उनकी मदद से संसार चंद को रोकने की कोशिश की। इस किले से एक भयंकर लड़ाई लड़ी गई और बाद में, कटोच राजा अपने दुश्मनों को नष्ट करने में सक्षम रहे। लेकिन महल मोरियाँ की दूसरी लड़ाई उनके दुश्मनों के पक्ष में रहीं। संसार चंद को हमीरपुर का किला छोड़कर कांगड़ा में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह भी माना जाता है कि गोरखों ने इस किले में आग लगा दी थी और इसे पूरी तरह से नष्ट कर दिया था।
लोधरगढ़ किला, चम्बा
लोधरगढ़ किले का निर्माण मुशान राजपूत वंश के राजा गणेश वर्मन ने कराया था और उस युग में इसे गणेशगढ़ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने इसे मुग़ल हमलों से अपने क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिए बनवाया था। आज, इसकी चार दीवारें खंडहर बन चुकी हैं, जो समय की गवाह हैं। कहा जाता है कि सिख महाराजा रणजीत सिंह ने इस किले में चम्बा में एक सैनिक दल स्थापित किया था, लेकिन कभी भी जानबूझकर चम्बा राज्य पर पूरी तरह से कब्ज़ा नहीं किया। हालाँकि, चम्बा एक स्वतंत्र राज्य बना रहा, लेकिन जब 1845 में ब्रिटिशों द्वारा सिखों को हराया गया और सिख सैनिक लोधरगढ़ किले की चौकी से पीछे हट गए, तो यह फैसला किया गया कि चम्बा को जम्मू-कश्मीर में मिला दिया जाए, लेकिन वज़ीर बाघा (चम्बा) के समय पर हस्तक्षेप के कारण, इसे ब्रिटिश नियंत्रण में ले लिया गया।
बछरेटू किला, बिलासपुर
बछरेटू का ऐतिहासिक किला 14वीं सदी में बिलासपुर के चंदेल राजपूत राजा राजा रतन चंद के शासनकाल के दौरान बनवाया गया था, जिन्होंने लगभग 1355 से 1406 तक बिलासपुर पर शासन किया। यह कभी एक शानदार ढाँचा था, लेकिन अब खंडहर में है। बछरेटू किला मूल रूप से आयताकार आकार का था, जिसकी विशाल दीवारें हथौड़े से तराशे गए पत्थरों से बनी थीं। इसकी दीवारें लगभग 20 मीटर ऊँची और एक मीटर से ज़्यादा मोटी थीं, जिसने हमलों को सहने के लिए एक मज़बूत ढाँचा प्रदान किया। परिसर में एक अष्ट भुजा (आठ भुजाओं वाली देवी) को समर्पित एक मंदिर भी है।
तिउन और श्रीउन किले, बिलासपुर
तिउन और श्रीउन किलों का निर्माण राजा कहन चंद के शासनकाल के दौरान 1142 विक्रमी में किया गया था और ये चंदेल वंश के चंद्रवंशी राजपूतों के वंशजों की संपत्ति थे। इन किलों का इस्तेमाल चंद्रवंशी राजपूतों को दुश्मनों से बचाने के लिए एक ढाल के रूप में किया जाता था। कहा जाता है कि यह किला एक समय राजा खड़क चंद के एक चाचा के लिए जेल के रूप में भी काम करता था। श्रीउन किला पूरी तरह से पत्थरों से बना एक ढाँचा है. तिउन किला पहाड़ी की चोटी पर 14 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है, और कहा जाता है कि यह ढाँचा 10 मीटर ऊँचा है।
कमलाह किला, सरकाघाट
कमला किला मंडी राज्य के जाने माने 360 किलों में सबसे सुरक्षित भंडार होने की प्रतिष्ठा रखता था। किले के परिसर के अंदर बाबा कमलाह सिद्ध का एक मंदिर है, जिसके नाम पर किले का नाम रखा गया था। कमलागढ़ की स्थापना 1625 ईस्वी में हुई थी, जब राजपूत राजा हरि सेन मंडी राज्य पर शासन कर रहे थे। उनके बेटे सूरज सेन 1637 में सिंहासन पर बैठे और कमला को मज़बूत बनाया। यह किला कई वर्षों तक अजेय रहा। मुग़ल गवर्नर नवाब आदिना बेग या राजा संसार चंद जैसे बड़े शासक भी इसे जीत नहीं पाए। हालाँकि, 1840 में यह वेंचुरा (सिख महाराजा रणजीत सिंह के जनरल) के हाथों में चला गया, लेकिन 1846 में, ब्रिटिशों की मदद से किले का नियंत्रण मंडी राज्य के राजाओं को वापस सौंप दिया गया।

मानगढ़ किला, कांगड़ा
कहा जाता है कि इस किले का निर्माण गुलेर शाही घराने के राजपूत राजा राजा मान सिंह ने कराया था। उन्होंने 1634 से 1661 तक शासन किया और मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के लिए लड़े थे, जिन्होंने 1642 में नूरपुर में क्रांति के दौरान उनकी सहायता करके एहसान चुकाया। यह महल जैसा किला एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है. किले में पत्थर से बनी चार अष्टकोणीय बुर्ज हैं।
गोंधला किला, लाहौल
गोंधला किला या गोंधला महल कुल्लू के राजपूत राजा, राजा मान सिंह ने गोंधला गाँव के ठाकुरों के लिए बनवाया था और यह 1700 ईस्वी पुराना है. इसे स्थानीय रूप से ‘चार’ कहा जाता था। यह महल पश्चिमी हिमालय की स्थानीय लकड़ी-बंधी पत्थर शैली ‘काठ-खुणी’ का एक उदाहरण है।
बहादुरपुर किला, बिलासपुर
यह प्रभावशाली किला बहादुरपुर नामक एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित था, जो बिलासपुर में टेपरा गाँव के पास समुद्र तल से 1,980 मीटर की ऊँचाई पर है। बहादुरपुर किले का निर्माण राजा केशब सेन ने 1620 ईस्वी में युद्धग्रस्त समय के दौरान दुश्मनों के ख़िलाफ़ एक ढाल प्रदान करने के लिए कराया था। बहादुरपुर किला अब पूरी तरह से गायब हो चुका है, लेकिन इसकी सुंदरता को ढाँचे के अवशेषों के माध्यम से आज भी महसूस किया जा सकता है, जो हिमाचल प्रदेश की समृद्ध विरासत को दर्शाते थे।
परम्परा के प्रहरी रहे पहाड़ी दुर्ग
इन किलों की विरासत हिमाचल प्रदेश की केवल स्थापत्य कुशलता ही नहीं, बल्कि यहां के शासकों और लोगों के साहस, रणनीति और आत्मसम्मान की कहानी भी कहती है। इनमें से कुछ किले आज भले ही खंडहरों में तब्दील हो गए हों, पर इनके पत्थरों में अब भी शौर्य और संघर्ष की गूंज सुनाई देती है। हिमाचल के किले इस बात के प्रतीक हैं कि पर्वतीय भूभाग केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं, बल्कि वीरता और रक्षा की परंपरा का भी गढ़ रहे हैं : एक ऐसी विरासत जो आज भी आने वाली पीढ़ियों को अपने इतिहास पर गर्व करने की प्रेरणा देती है।