‘घास की एक पत्ती के सम्मुख, मैं झुका/और मैंने पाया कि/मैं आकाश छू रहा हूं।’ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये कविता-पंक्तियां उनके बाल-साहित्य-रचना और बाल -पत्रकारिता के उद्देश्य और मर्म को भी जैसे बयान कर देती हैं। नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए लिखकर उन्होंने भी रचनाधर्मिता के उस आकाश को छू लिया था, जोकि दुर्लभ है। उन्होंने सिर्फ लिखने भर को ही नहीं लिखा, वे मानते भी थे कि- ‘लीक पर वे चलें जिनके चरण दुर्बल और हारे हैं, हमें तो जो हमारी यात्रा से बने ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।’
सर्वेश्वर मूलत: कवि थे पर जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को भी उन्होंने बखूबी समझा और इसी दिनमान के माध्यम से सामाजिक चेतना बनाये रखने और उसे जगाये रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। सन् 1964 में जब दिनमान का प्रकाशन आरंभ हुआ था तो ख्यात साहित्यकार, कवि और तब के वरिष्ठ पत्रकार सच्चिदानन्द हीरानंद वात्सायायन अग्येय के आग्रह पर वे दिल्ली आये थे और उन्होंने दिनमान के संपादन भार का दायित्व संभाल लिया था। इससे पहले वे इलाहाबाद में 1949 में एजी ऑफिस में, तत्पश्चात ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में संपादक और उसके पश्चात् वे लखनऊ और भोपाल रेडियो की नौकरी में भी रहे। दिनमान आना इसके बाद कहीं संभव हुआ था। दिनमान के माध्यम से उन्होंने साहित्य, नृत्य, रंगमंच, संस्कृति जैसे विभिन्न विषयों पर समीक्षात्मक लेख और टिप्पणियां लिखीं। वे चर्चित स्तंभकार भी थे और ‘चरचे’ और ‘चरखे’ नाम से दिनमान में वो जो स्तंभ लिखते थे, वो बेबाक सच कहने के उनके अभूतपूर्व साहस के कारण अपने जमाने में बहुत लोकप्रिय था।
दिनमान के ठीक बाद ‘पराग’ के माध्यम से उन्होंने बाल-पत्रकारिता की चुनौती को जिस तरह स्वीकार किया और उसे जो नया आयाम दिया, वो अभिनव है। उनकी यह मान्यता थी कि ‘जिस देश के साहित्य में बच्चों के लिए अच्छी रचनाएं नहीं, वो देश अभागा है।’
आज के दिन जब लोग उन्हें उनकी भिन्न-भिन्न अंदाजे-बयां वाली कविताओं के माध्यम से याद करते हैं, सराहते हैं, मुझे सबसे ज्यादा याद उनकी कुछ बाल कविताएं आती हैं। उनमें से भी वो पहलेे, जिन्हें वे ‘पराग’ में बतौर सम्पादकीय लिखते रहे थे। उनके सम्पादन काल में पराग का एक भी अंक ऐसा नहीं हुआ, जिसका सम्पादकीय बच्चों से मुखातिब किसी कविता के बगैर हुआ हो। इन कविताओं में हम बच्चों से बांटने और हमें देने के लिए एक बहुत प्यारी और खूबसूरत दुनिया के सपने होते थे। उनसे बाद और पहले पराग के किसी सम्पादक ने फिर ऐसा वैविध्यपूर्ण प्रयोग नहीं किया। मेरा हमेशा का प्रिय ‘पराग’ उनके सम्पादन काल में मेरा और प्रिय हो आया था। कुछ इन्हीं कारणों से पराग के बंद होने का दुख कभी दिल से गया ही नहीं…और इससे भी ज्यादा उनके असमय गुजरने का दुख; इसलिए कभी भी कोई पत्रिका या फिर किसी बाल पत्रिका का संपादक इस खाली जगह को मुकम्मल नहीं कर सके…
उन्हीं कविताओं में से एक थी उनकी कविता- ‘घोड़ा’। जिसकी कुछ शुरुआती और अंतिम पंक्तियां बचपन से अबतक जेहन से चिपकी हुई थी। और जिसे बाद में बहुत खोजकर निकाला। कविता कुछ यूं है-
‘अगर कहीं मैं घोड़ा होता, वह भी लंबा-चौड़ा होता,
तुम्हें पीठ पर बैठा करके, बहुत तेज मैं दौड़ा होता।
पलक झपकते ही ले जाता, दूर पहाड़ों की वादी में,
बातें करता हुआ हवा से, बियाबान में, आबादी में।
किसी झोंपड़े के आगे रुक, तुम्हें छाछ औ’ दूध पिलाता,
तरह-तरह के भोले-भाले इनसानों से तुम्हें मिलाता।
उनके संग जंगलों में जाकर मीठे-मीठे फल खाते,
रंग-बिरंगी चिड़ियों से अपनी अच्छी पहचान बनाते।
झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे-प्यारे खरगोश दिखाता,
और उछलते हुए मेमनों के संग तुमको खेल खिलाता।
रात ढमाढम ढोल, झमाझम झाँझ, नाच-गाने में कटती,
हरे-भरे जंगल में तुम्हें दिखाता, कैसे मस्ती बँटती।
सुबह नदी में नहा, दिखाता तुमको कैसे सूरज उगता,
कैसे तीतर दौड़ लगाता, कैसे पिंडुक दाना चुगता।।
बगुले कैसे ध्यान लगाते, मछली शांत डोलती कैसे।
और टिटहरी आसमान में, चक्कर काट बोलती कैसे।
कैसे आते हिरन झुंड के झुंड नदी में पानी पीते,
कैसे छोड़ निशान पैर के जाते हैं जंगल में चीते।
हम भी वहाँ निशान छोड़कर अपना, फिर वापस आ जाते,
शायद कभी खोजते उसको और बहुत-से बच्चे आते।
तब मैं अपने पैर पटक, हिन-हिन करता, तुम भी खुश होते,
‘कितनी नकली दुनिया यह अपनी’ तुम सोते में भी कहते।।
लेकिन अपने मुँह में नहीं लगाम डालने देता तुमको,
प्यार उमड़ने पर वैसे छू लेने देता अपनी दुम को।
नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता, क्योंकि उसे खाकर तुम रोते,
लेकिन सच तो यह है बच्चो, तब तुम ही मेरी दुम होते।’
दूसरी कविता जो स्मृति में रह गयी वो है-
‘आओ एक बनाएं चक्कर/ फिर उस चक्कर में इक चक्कर/ फिर उस चक्कर में इक चक्कर/ उस चक्कर में इक चक्कर/ और बनाते जाएं जब तक/ ऊब न जाएं थक कर।
फिर सबसे छोटे चक्कर में म्याउं एक बिठाएंं/और बाहरी हर चक्कर में चूहों को दौड़ाएं।
दौड़-दौड़ कर सभी थकें / हम बैठें मारे मक्कर/ नींद लगे हम सो जाएं /वे देखें उझक उझक कर।’
आओ एक बनाएं चक्कर…
‘आज भी मुझे यह पता नहीं कि ये सारी कविताएं उनके किस संग्रह में संकलित हैं, है भी या नहीं…
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी ने कई और भी बेहद महत्वपूर्ण और लोकप्रिय बाल कविताएं लिखी है। जिनमें महत्वपूर्ण हैं ‘महंगू की टाई’ और ‘इब्नबतूता का जूता’-
-महँगू ने महँगाई में
पैसे फूँके टाई में,
फिर भी मिली न नौकरी
औंधे पड़े चटाई में!
गिट-पिट करके हार गए
टाई ले बाजार गए,
दस रुपये की टाई उनकी
बिकी नहीं दो पाई में।
और-
इब्नबतूता पहन के जूता,
निकल पड़े तूफान में।
थोड़ी हवा नाक में घुस गई,
घुस गई थोड़ी कान में।
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता।
इसी बीच में निकल पड़ा,
उनके पैरों का जूता।
उड़ते उड़ते जूता उनका,
जा पहुँचा जापान में।
इब्नबतूता खड़े रह गये,
मोची की दुकान में।’
यहां रूककर एक अवांतर प्रसंग का जिक्र जरूर करना चाहूंगी, जिसकी स्मृति अब भी मन को गुदगुदाती है। इन कविताओं को पापा हीं हमें पढकर सुनाते थे। पढना तबतक मैंने शुरू नहीं किया था। बस सुनकर मुझे कविताएं याद होती जाती रहीं। ये दोनों कविताएं और ‘किताबों में बिल्ली ने बच्चे दिये हैं’ कुछ इसी तरह मेरी स्मृतियों में ताउम्र रहा। लेकिन बात अभी ‘महंगू की टाई’ की। इसे सुनाते हुये पापा धीमे-धीमे मुस्कुरा रहे थे। पापा के परम मित्र का नाम भी महंगू ही था-महंगू सिंह’ और दोनों परिवार उस रेलवे कालोनी में पड़ोसी हीं हुआ करते थे। बात आयी गयी हो गयी हो ही जाती। पर चाचा जब अगले दिन पापा से मिलने आ रहे थे, छोटे भैया ने जोर-जोर से पढना शुरू कर दिया था- ‘महँगू ने महँगाई में, पैसे फूँके टाई में।’ फिर उसके बाद डांट-पिटाई की कहानी अवांतर से भी अवांतर-कथा है।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना नहीं थे, पराग भी नहीं रह गया था। हम सब यानी हमारी पूरी पीढी युवा हो रही थी; वे प्रेम वाले और सतरंगे सपनों में जीनेवाले दिन थे। पर मैं भूल कर रही शायद, वे अभी भी हमारी जिंदगी में शामिल थे,मौजूद थे, अपनी कविताओं से-
–‘ तुम्हारी मुस्कान, धूप से, ऐसे छनकर आती है/जैसे सुबह -सुबह, चिड़ियों का गान।’ या फिर ‘तुम्हारे साथ होकर’, या फिर ‘तुमसे दूर होकर’ जैसी अपनी कविताओं के साथ।( कविता अंश- तुम्हारी मुस्कान)
–‘तुम्हारे साथ रहकर /अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है /कि दिशाएँ पास आ गयी हैं। हर रास्ता छोटा हो गया है/दुनिया सिमटकर/ एक आँगन-सी बन गयी है।'( कविता अंश- तुम्हारे साथ)
जहां तक मैं समझती हूं सर्वेश्वर अपनी ‘साधारणता’ और ‘सहज आत्मीयता’ के साथ घोषित रूप से आम आदमी के संग खड़े थे। वे कहते थे- ‘कोई भी राजनीतिक दल आम आदमी के साथ नहीं है। सबने अपने मतलब से उसे छला है। वह अपनी लड़ाई में अकेला है। मैं उसके साथ किसी राजनीतिक दल के नेता की तरह नहीं हूं। न उनकी तरह उसका नाम लेता या भुनाता हूं। मैं भौतिक रूप से भी और संवेदना के स्तर पर भी उसकी यातना झेलता हूं अतः मेरी कविता उससे अलग नहीं हो सकती।’
हिंदी कविता की व्यापक जनवादी चेतना के संदर्भ में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना एक ऐसे कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिनकी रचनाएं पाठकों से जीवंत रिश्ता बनाए हुए हैं। वे दायरों से बाहर के कवि थे। उनकी कविताओं में हिंदी कविता की लोकोन्मुखता सहजता परिलक्षित होती है।
सर्वेश्वर की पहचान मध्यवर्गीय आकांक्षाओं के लेखक के रूप में भी की जाती है। मध्यवर्गीय जीवन की महत्वाकांक्षाओं, सपनों, संघर्ष, शोषण, हताशा और कुंठा का चित्रण उनके साहित्य में मिलता है। मानवीय गरिमा की रक्षा सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की कविताओं का केंद्रीय मूल्य हैऔर उनकी रचनाओं में आम आदमी के प्रति प्रतिबद्धता स्पष्ट देखी जा सकती है। उनकी कविताएं व्यक्ति के निजी सुख-दुःख की चिंता किये बिना, समाज को सर्वोपरि मानने की चिंता की कविताएं हैं। यही नहीं उन्होंने व्यक्ति और समाज के अंतर्द्वंद में फंसे व्यक्तियों के लिए लिखा –
‘आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार ,
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।’
वे यह भी कहते हैं-‘दुख तुम्हें क्या तोड़ेगा/ तुम दुख को तोड़ दो। बस अपनी आंखें /औरों के सपनों से जोड़ दो।’
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कई ऐसे नाटक और कविताएं लिखीं जो लोगों द्वारा काफी पसंद की गई। उनकी कविता श्रृंखला ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ को जहां ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ मिला, वहीं उनके व्यंगात्मक नाटक ‘बकरी’ के भी दर्जनों मंचन किये गये। लेकिन इमरजेंसी में यह नाटक खेलने की मनाही हो गयी थी। यही नहीं सत्ता के खिलाफ इसके स्वर इतने मुखर थे कि कुछ अन्य देशों में भी इसके शो बैन किये गये।
बावजूद इस वैचारिक प्रतिबद्धता के, अभिव्यक्ति की सहजता और स्वाभाविकता में भी उनका कोई सानी नहीं था। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाम तीसरे सप्तक के उन अहम कवियों की सूची में यूं ही नहीं शुमार है, उन्होंने बेहद सहज और साधारण ढंग से पेचीदा बातों को भी कविता की लड़ियों में पिरोया।
-बजो, ओ काठ की घंटियों, बजो।
मेरा रोम-रोम देहरी है/ सूने मंदिर की/ सजो!’
उन्होंने प्रकृति की नैसर्गिक खूबसूरती को भी अपनी कलम के जरिए बेहद नजाकत के साथ कागज़ पर उकेरा। उन्होंने सरल शब्दों में बेहद गहरी बात और कटाक्ष किए हैं। जीवन के जिन गूढ़ एवं गहन पहलुओं को उन्होंने कविताओं के रूप में उतारा है, उसकी हिंदी साहित्य में शायद ही कोई और मिसाल देखने को मिलती हो। जिसका उदाहरण ‘जड़े’ कविता भी है-
जड़े कितनी गहरी हैं
आंकोगे कैसे?
फूल से?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी ऊंचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक बांहें पसारी हैं।
जलहीन, सूखी, पथरीली,
जमीन फर खड़ा रहकर भी जो हरा है
उसी की जड़े गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।’
सच कहें तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने हिंदी को जो कुछ दिया, वह अविस्मरणीय है।