Friday, October 10, 2025
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कहानीः एक स्त्री का देहत्याग- प्रेम रंजन अनिमेष

खिचड़ी का कटोरा बहू रख गयी सिरहाने। तिपाई पर जरा जोर से। कि जुबान को फटकारना न पड़े । ईया जो बिछौने पर गुड़ी मुड़ी पड़ी थीं आसपास के निर्जीवों का सहारा ले जैसे तैसे उठेंगी। फिर चौकी पर उठँग थरथराता हाथ बढ़ा तिपाई पर रखा बरतन गोद में रखेंगी और चम्मच से उठा उठा कर जीम लेंगी। इस तरह कि कुछ भी इधर उधर न पड़े। अब उठने बैठने में दिक्कत होती थी । तब भी अपना सब कुछ भरसक खुद ही सँभालतीं। बहू फिर कुछ देर बाद लौट कर आयी तब भी अन्न उसी तरह पड़ा था। ईया की बहू यानी अपनी सामने वाली चाची। ईया उनकी बूढ़ी सास। हालाँकि चाची अकसर देतीं ताना – ‘ई त हमनी से जादे जवान बाड़ी।
‘ले बलैया ! खयका त वइसहिंये तवाँत बा !’ चाची चिहाईं। कहीं खुशी और जागिरती का छाड़न मिलाते देख तो नहीं लिया था? लेकिन ना! देखेंगी कैसे इतनी दूर से? सोचें चाहे जो। बहुत सफाई से अंजाम देती थी यह सब काम। और देख लें तब भी क्या! खुद भी तो अपने से दोनों परपोतियों के प्लेट में छोड़ा पड़ा चुग लेतीं यह कह कर कि ‘अन का कन नहीं हो! कुछ भी बरबाद नहीं होना चाहिए।’
‘खिचड़िया पड़ले रह गइल! काहे? समोसा मँगाईं का?’ झिंझोड़ कर तंज से पूछा।
ईया ने कुछ कहा नहीं । बस नमी से धुँधलायी आँखों से एक बार देख कर हाथ जोड़ दिये।
‘ई का ? खाईंऽ ! बेरा भईल।’
‘ईया ने धीरे से सिर हिलाया। हाथ उसी तरह जुड़े रहे। ‘ना अब ! बहुत हो गइल ! बेरा भइल…!’ अस्फुट सा उनके होंठों से फूटा।
‘बुढ़ौती में ई नखरा ना सोहाये ! सोझे सोझे खाईं उठ के ! ढेर काम बा अबही पड़ल। ऊ सभ करे के कि ई रंग देखे देखावे के…!’ कड़कते हुए चाची चली गयीं बोल कर। ‘खाईं ना त चिरई कउवा खाई !’ चाची को पूरी उम्मीद थी यह स्वांग देर तक ठहरेगा नहीं । थोड़ी देर में खुद ही उठेंगी और चुपचाप खा लेंगी। भूख तो लगी ही होगी  बल्कि बढ़िया से। व् आज देर भी हो गयी थी कुछ । मंदिर से फिर कर आने में और फिर उसके बाद भी बना कर ले आकर उन्हें देने में।
लेकिन बहू की बहू जब आयी कपड़े रखने तब भी खाना उसी तरह पड़ा था। कपड़ों का आलना इधर ही था। भरे आलने के बाद कोठरी और सँकरी हो जाती। बहू की बहू – यानी चाची की बड़की पोती खुशी की माँ। ब्याह के आठ साल बाद बड़े इलाज मनौती पूजा पाठ के बाद यह खुशी चहकी थी। तो सबको बड़ी खुशी हुई। सो नाम रखा खुशी। फिर अगले साल छोटे बेटे के भी हो गयी बेटी। इतना रोती कि रात में खुद भी जागती और दूसरों को भी जगाये रखती। इसलिए नाम पड़ा जागृति जो बोलते बोलते बन बिगड़ कर हो गया जागिरती! वैसे यह अन्यार्थ भी अलग से चरितार्थ था क्योंकि खेलते बुलते जब तब जिधर तिधर जा गिरती!
‘ईया खइलू ना अबले! काहे? मन ठीक नइखे? उठा दीहीं का? खिया दीं हम? बड़ी पोतपतोहू यानी खुशी की माँ ने पास आकर कहा।
ईया ने फूली नसों वाला हाथ बढ़ा कर सिर पर रखा उसके। जागऽ जियऽ फूलऽ फलऽ बनल रहऽ बबुनी…! जैसे हरदम असीसती थीं। फिर हाथ जोड़ दिये। खुशी की माँ का दिल उमग आया। कटोरा हाथ में उठाया खिलाने के लिए तो होंठों से जीभ काट ली ईया ने और सिर हिला दिया। उसके आँसू आ गये।
पढ़ कर खुशी भी आ गयी। डगमग डगमग नन्ही जागिरती भी। सुन कर साँझ तक मनाने समझाने दोनों पोते भी एक एक कर। लेकिन ईया अटल रहीं। जो भी आता वे उसी तरह उसे दोनों हाथ जोड़ देतीं। खाना छोड़ने का उनका फैसला अंतिम था। छलक कर होंठों में पड़ा खुशी की माँ के आँसू की बूँद का कतरा भर ही आज उनके मुँह में गया था।
कोई समझ नहीं पा रहा था आखिर ऐसा क्यों हुआ? फिर सहसा किसी को याद आया आज बाबा की बरसी थी। आज के ही दिन वे चले गये थे। शायद उन्हीं को याद करते हुए ईया ने लिया था यह निर्णय। मंगल भी था आज। इस दिन मंदिर जरूर जाती थीं। हर सप्ताह की तरह सुबह सुबह सामने वाली के साथ हाथ पकड़ा कर पूजा पर गयी थीं। वहीं मन में कुछ जागा होगा।
सुबह नहा धोकर मंदिर के लिए निकली थीं। लेकिन यह सिर्फ सामने वाली को ही पता कि मंदिर जा नहीं सकीं। चलने में ज्यादा दिक्कत हो रही थी। मोड़ पर की दुकान पर रुक कर आँचल की खूँट से मुचड़े पुराने नोट निकाल बिस्कुट के पैकेट लिये थे मंदिर जाकर गरीब गुरबा में बाँटने को। लेकिन भला हो सरकार का ! गरीबी इस कदर बढ़ गयी है कि गरीब बेहाल अब हर जगह। चार कदम आगे बढ़ते पाँच भूखे फटेहाल माँगने वाले मिल गये इधर ही। जो दान पुन्न मंदिर जाकर होता वहीं हो गया। बाकी दो बचे पैकेट स्कूल जाती खुशी के हवाले कर दिये कि उधर किसी गरीब को दे देना। फिर सामने वाली से कहा अब हो गया ! थकान लग रही। आगे जाना मुश्किल है। लौटना होगा।
खुशी को अपने स्कूल की समाज शिक्षिका सबसे गरीब लगती थीं। चेहरे से ही। स्कूल में भी बेचारी हरदम स्वेटर बुनती रहतीं। इतनी गरीबी होगी घर में तभी तो ! उसने खुशी खुशी पैकेट ले जाकर उन्हें दे दिये जब वे शिक्षक कक्ष से बाहर कुरसी पर बैठे फंदे डाल रही थीं। यह किस खुशी में ? पैकेट लेते हुए पूछा उन्होंनेे।
हमारे बाबा की बरसी…। कहते कहते रुकी खुशी । कौन सी खुशी पूछा था मैम ने इसलिए थोड़ा बदल दिया – सालगिरह है आज !
ओहो ! गुड गुड ! मैम बोलीं ।
गुडगुड नहीं कुटकुट…। खुशी ने कहा। कुटकुट बिस्कुट का नाम था।
अगले रोज खुशी ने पूछा मैम से बिस्कुट कैसे थे ? ईया को देखने मनाने में लगी कल घर का काम पूरा नहीं कर पायी थी समाज अध्ययन वाला। इसीलिए सोचा पहले जाकर मैम की पुरसिशी कर आये थोड़ी।
हाँ अच्छे थे ! गूफी को भी अच्छे लगे । देर तक दुम हिलाता रहा।
गूफी ! दुम ! बिस्कुट आपने किसी कुत्ते को खिला दिये? पूरे पैकेट?
किसी कुत्ते को नहीं अपने कुत्ते को! ऐसे सस्ते वाले बिस्किट हमारे यहाँ कुत्ते ही खाते हैं! स्वेटर के घर गिनते कहा मैम ने।
खुशी दुखी हो गयी। दिल टूट गया जैसे।
बाबा तो पिछले कुछ सालों से बीमार थे। पर आखिरी दो साल हालत ज्यादा बिगड़ गयी। ईया तब मजबूत थीं। लगभग उन्हीं के वय की होने के बावजूद। ‘कुछ महीनों का ही फर्क है हममें ! कौन बड़ा कौन छोटा नहीं बता सकती !’ हँस कर अकसर कहा करतीं ईया। लगभग अकेले ही सँभाले रहीं वे बाबा को उनके आखिरी दिनों में। खटपरू हो गये थे। पूरी तरह अलस्त! उनकी गंदगी पोंछतीं उनके कपड़े गेंदड़े धोतीं। बच्चे की तरह बार बार बिछावन गीला करते बाबा और माँ की तरह साफ करतीं ईया ! दिन देखती रात करतीं रखवाली।
तनिक आँख लगते उठ कर वे गिर जाते। बेआवाज। खून पेशाब से लथपथ पड़े। बहू बेसुध। पोतों की कोठरियों के कपाट बंद। अकेले ही किसी तरह बाँधतीं पट्टी ओर खींच कर उठातीं भारी देह। पति के होते अपनी अवस्था अपनी दुर्बलता का अहसास ही नहीं था। होता अगर तो फिर गुजारा कैसे होता ? मगर उनके जाते जैसे अपनी सकत भी चली गयी। कितनी कमजोर कैसी लाचार हो गयी थीं ईया इस साल भर में ! बस हर समय यही मनातीं देवी देवता गुहरातीं कि ‘उनकी’ वाली हालत न हो आखिर बेर। हो जाये तो फिर खुद उनके लिए करेगा कौन ? बेहतर है किसी का आसरा न रहे ! खाट पकड़ने की नौबत ही न आये… चलते फिरते उठ जाये माटी…।
अन्न जल के लिए मनाने की जैसी और जितनी भी कोशिशें हुईं ईया को डिगा नहीं पायीं। अगले मंगल साथ मंदिर ले जाने को उनसे उम्र में कोई बारह पंद्रह साल छोटी उनकी सहेली आयीं तो पता लगा सात दिन से उपवास पर हैं। मंदिर जाकर भक्तिन सत्संगिन औरतों को बताया उन्होंने कि साक्षात देवी तो अभी उनके घर के सामने हैं। जैसे योगी समाधि लगाते हैं मुक्ति हेतु उन्होंने स्वयं त्याग दिया है आहार। चेहरे पर क्या तेज बर रहा है ! स्वेच्छा मोक्ष वरण इसे ही कहते हैं। भाग में जिसके है दर्शन पुण्य पा ले ! जितने दिन अभी ईया हैं इस नश्वर संसार में…।
जब कुछ दिन निकल गये इसी तरह तो लगा ईया के पोतों को कि दादी का व्रत सचमुच गंभीर और पक्का है। फिर माथा टनका उनका। दोनों खासा पढ़ लिख कर मामूली चाकरी किया करते थे। दस बारह घंटे खट कर छह आठ हजार वाली।  उससे ज्यादा तो दादी का पेंशन था जो दोनों में आधा आधा बँटता। कुछ साल पहले तक एक के कमरे में किलकारी नहीं थी और दूसरा भी बंडा तो फिर भी राहत थी। अब दोनों बाजाफ्ता थे पूरे परिवार वाले। ईया को ऐसे कैसे जाने देते! मेहरियों को भला बुरा कहा कि यह क्या हो रहा है भला घर में? फिर जाकर दोनों एक साथ जाकर पैर पकड़ कर लगे रोने। ‘अभी तो आपको हमें सँभालना है!’
पर ईया नहीं मानीं। ‘ज्यादा मोह नहीं लगाना चाहिए!’ बस बोलीं इतना ही।
पोते निराश हो गये। पिता की तो याद भी नहीं थी। बहुत पहले उठ गया था साया। दादा दादी ने ही परबस्ती की थी अब तक। अब क्या होगा?
मंदिर वाली संघातिन ने वहाँ की भगतिनों को बताया कि हो न हो ‘सखी’ मंगलवार को ही मोक्ष प्राप्त करेंगी। क्योंकि मंगल में अपार श्रद्धा थी उनकी। हर मंगल मंदिर जरूर जातीं। मंगल से ही शुरू हुआ था यह उपवास भी। और तबसे अगला मंगल था यह। शायद वह अगला मंगल होगा जब करें प्रस्थान। हालाँकि तब तक कमजोर काया टिक पायेगी कहा नहीं जा सकता। मगर यह मंगल तो लगभग गुजर ही चुका था। इतनी कमजोर भी न थीं कि बाकी बचे कुछ दिन न काट लें। भीतर से थीं मजबूत बहुत !
दो दिन पहले जब हम देखने गये तब कोई नहीं था देखने वाला। पर धीरे धीरे खबर फैलने लगी। दूर दूर तक शोर हो गया। शुरुआत मंदिर वाली साथिन के बखान पर वहाँ आने वाली मुहल्ले की औरतों ने की। फिर बातों बातों में बात कहाँ से कहाँ चली गयी। दूसरे मुहल्लों से भी औरतें आने लगीं दरस परस के लिए। फल फूल चढ़ाये जाने लगे। ईया जाते जाते भी घर का खयाल रख रही थीं। आप उपवास कर के भी उनके लिए फल के टोकरे भर के। लेकिन खराब होने वाली चीज थीं ये तो। कितना हक लगाया जा सकता ! घर में एक छोटा टूटा फ्रिज था पुराना। फ्रिज कम डिब्बा अधिक। चीटियाँ घुस जातीं भीतर। छोटा पोता यह सब मिस्त्रियाव भी करता रहा था कुछ दिन। बिजली के सामान का। उसी में उठा लाया था कहीं से। अपना फ्रिज भर देने के बाद भी रह गया तो चाची हमारे यहाँ ‘परसाद’ ले आयीं। और निहोरा किया बाकी हमारे फ्रिज में रख देने के लिए।
ईया दिनों दिन खाट में सटती जा रही थीं। कोई आकर पाँव छूता तो उसी तरह हाथ जोड़ देतीं अगर जागी रहीं। अब इतने लोग आने लगे थे कि ज्यादातर हाथ जोड़े ही पड़ी रहतीं एक करवट। भगतिनों में कोई कोई श्रद्धावश जबरन गंगाजल या तुलसी दल की बूँद लगा जाता होंठों पर। दस दिन हो गये थे अटूट व्रत के। यह चमत्कार जरूर हुआ था कि इतने दिन बिस्तर पर पड़े रहने के बावजूद कुछ हुआ नहीं था। यह सिद्ध करता था उनका देवत्व। दैवीरूप साक्षात ! देवी देवताओं को ये मानवोचित दुख नहीं व्यापते। हालाँकि चाची जब भी कोठरी में आतीं किसी अंदेशे में पल्लू नाक पर धरे। ईया के बाद सबसे पुरनिया होने के नाते सबको सबसे ज्यादा उम्मीद थी उन्हीं से । ईया के लिए भी… अब जितने भी दिन वे थीं।
आने वाले मंगल को सबसे ज्यादा भीड़ जुटने की संभावना थी। पखवारा पूरा हो जाने वाला था। मंदिर वाली संघातिन ने अपना अनुमान भी जगजाहिर कर दिया था कि वही मंगल होगा जगमंगल हेतु निर्वाण दिन ! एक श्रद्धालु महिला का पति स्थानीय सांध्य दैनिक से जुड़ा हुआ था। आकर वह फोटो वोटो खींच गया। चाची उस समय पूरा पल्लू सिर पर लेकर ईया के पैरों के पास बैठ गयीं कुछ देर के लिए। ‘पुण्य के पथ पर – महाप्रयाण कब ?’ शीर्षक से रपट बना कर लगा दी पत्रकार ने। यह भी लिख दिया कि ईया देवी के मंगलव्रती होने के कारण चर्चा है महानिर्वाण अगले मंगल के दिन होगा । जो भी हो और जब भी यह निश्चय ही एक परम संकल्प और निःस्वार्थ व्रत है सर्वजनहित के लिए! लिख कर और छाप कर संवाददाता को एक अंदरूनी आत्मिक तोष की अनुभूति हुई। एक सींग वाली भैंस के नगरभवन के तीसरी मंजिल पर चढ़ जाने की स्टोरी के बाद से पहली बार ऐसा हुआ था कि उसके सांध्य दैनिक की इतनी ज्यादा प्रतियाँ बिकी हों!
हालाँकि पोते चाह रहे थे – खासकर बड़ा वाला – कि तनिक और मंगल हो। कम से कम एक और मंगल! अगले मंगल वह तारीख थी जब ईया का महीने का पेंशन बैंक में आ जाया करता। मंगल दिन न पड़े तब भी वह दिन उनके लिए मंगल होता! और इस बार तो सचमुच मंगल ही पड़ रहा था। अगर एक मंगल और ईया साँस रोके रहें तो कम से कम इस महीने के पेंशन की रकम तो हाथ आ जाये! आगे क्या होगा देखेंगे आगे।
जाते जाते ईया पोतों की यह ख्वाहिश भी पूरी करने के पास पहुँच गयीं जो आखिरी तो कतई नहीं थी। दूसरे के बाद तीसरा हफ्ता पूरा कर इक्कीसवें दिन तक आ गयीं। यह जाहिर करता था भीतर से कितनी सबल थीं वे। कितनी सकत थी उनमें। बल्कि अब तो उनके देवत्व या कहें देवीत्व में कोई शुबहा नहीं रह गया था। फिर भी दिन दिन गिनते बड़े का मन बेकल बेकल था। यहाँ तक आ गयीं… सोमवार तक… तो अब तो लगता है काम बन जायेगा! एक दिन और किसी तरह काट लेंगी। वैसे भी हैं मंगलव्रती। सहेली उनकी ठीक ही सोचती है कि मंगल ही चुनेंगी अपने लिए। सबके लिए! कल तक टिकेंगी ईया। दर्शनभाग दे कर जाना चाहती हैं! जितनों के पाप विकार धुल सकें इस पुण्य दर्शन से…! आपस में बात हो रही थी सत्संगिनों भक्तिनों की।
आखिर वह दिन आ गया! मंगल का दिन। ईया के सविनय हठयोग का बाईसवाँ दिन था आज। तीसरा मंगलवार। कल से पल पल गिनता विकल विह्वल बड़ा सुबह नौ बजते चुपचाप धर से निकल गया। हालाँकि निकलते लगा छोटे ने देख लिया। हमेशा कान में तार और ढँकने लगाये रहता मोबाइल के फिर भी जाने कैसे दुनिया जहान का इतना ध्यान! देखा हो तो देखे। आज पेंशन की तारीख है उसे भी पता है। अपने को यहाँ तक तो खींच कर लेते आयी थीं ईया। अब आगे उसे अपना करम करना था। थोड़ी देरी से चूक हो सकती थी। कई चेकों पर पहले से टीप लगवा कर रखे रहता था उनसे। आज काम आ जायेगा। हालाँकि अफसोस भी था कि आगे वाले यूँ ही जाया हो जायेंगे।
इधर मजमा धीरे धीरे जुट रहा था। ‘इसे कहते हैं सतवंतीं!’ मंदिर वाली संघातिन ने कहा। ‘शायद ‘उन’ से भीतर भीतर बात हुई हो! बोले होंगे अब बहुत हुआ! क्या करना रह कर वहाँ? आ जाओ! सो चल दी सतवंती पुण्यपंथ पर। राजी खुशी तैयार…!’
‘ई सतवंती का होवत है? भगतिनों में से किसी ने सहज कौतुक से पूछा। ‘सती तो सुने हैं…।’
‘सती सुना है न? पति के साथ चिता में जल कर जान देने वाली सती हुआ करती। लेकिन पति के पीछे धरम करम करने वाली… सब काम किरिया निबटा कर उसकी आत्मा की सुख शांति का सारा अधापन कर उसके बाद इच्छा से देह त्याग करने वाली पुण्यात्मा हुई सतवंती! जब लगा कि अब बस हो गया वह सब जो करना था तो अपनी इच्छा से देह त्याग मुक्ति वरण कर ली। अन्न जल का ही नहीं …यह देह और मोह का त्याग है! सती होने से ज्यादा कठिन है होना सतवंती…!
अपने कमरे में कान में लगा मोबाइल का तार बार बार हिला कर छूटा कनेक्शन पाने की कोशिश करते छोटे के दिमाग में जैसे सहसा बिजली कौंधी। एक नयी रोशनी जागी। बड़ा भाई तो शायद आखिरी पेंशन पूरा ही ले जाये… जितना भी बचा होगा ईया के खाते में! क्षति की पूर्ति के लिए पहले सोचा था आह्वान लगा देगा आने जाने वाले श्रद्धालुओं के लिए – कृपया चिता के चंदन के लिए अपनी श्रद्धा न्योछावर करें! उससे भी अच्छा खयाल आया अभी यह बात सुन कर। सतवंती! सतीचौरा के तर्ज पर यहीं घर के आगे कुछ ईंटों का सतवंती चौरा बनवा देगा। चढ़ावा आता रहेगा। इस तरह जाकर भी ईया रखेंगी खयाल उन सबका…।
पेंशन उठाने का काम बड़े ने अपने ऊपर रखा था। बड़े होने के नाते बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ उठाना ही पड़ता है! छोटा तो छोटा ही रह गया। कुछ समझता ही न था। तब भी उसके पेंशन ले आते माँ पहला काम यही करती कि आधा आधा कर आधा उसे दे देती। बस महीने के हजार रुपये दान पुण्य के लिए ईया के हाथ में रख दिये जाते। कोशिश होती उसमें से भी अधिक से अधिक दान पुण्य घर में ही हो। जब इतने देवता यहीं थे…।
इससे पहले कितनी बार पेंशन निकाला था। पर बैंक वाले ने कभी टोका न था। आज रोक कर बोला – अरे इनके बारे में तो मैं जानता हूँ! मेरी पत्नी इन्हें पिछले ही हफ्ते देख कर आयी है। कह रही थी जब तक हैं तब तक हैं। क्या ये अब तक हैं?
‘हाँ हाँ ।’ बड़े ने छूटते कहा ।
‘तब तो मैं भी देखना चाहूँगा पहले। पत्नी भी रोज कहती है देख आऊँ। आज देख ही लूँ। सवाब का सवाब… और वेरीफिकेशन भी हो जायेगा जनाब! चलिये! होकर आते हैं। चेक फिर क्लियर करेंगे।’ उसने तुरंत अपनी फटफटी निकाल ली।
धड़कते दिल से दुपहिये पर बैठा गया बड़ा। साँस अटकी थी। कहीं ईया इस बीच… ! उनका भी क्या दोष होगा इसमें? उन्हें क्या खबर वह चेक भुनाने में इतनी करेगा देरी! सोच कर लगा जैसे जिस्म से जान चली गयी। फिर दिलासा दिया अपने को। ईया तो साक्षात देवी स्वरूपा हैं। उन्हें मालूम चल गया होगा यह मरदुआ देखने आ रहा है और परखने! तब तक सबर कर जरूर रुकने से रोके रखेंगी अपनी साँसें…।
ईया थीं। वैसी ही। जैसा छोड़ कर गया था। लगभग अचेत। जी कड़ा कर कहा – ‘ईया! ये बैंक वाले हैं। देखने आये हैं आपको!’
बैंक वाले ने झुक कर उनके पाँव छुए। एक पल के लिए हाथ की फूली नस फड़की। दाहिना हाथ थोड़ा हिला।
‘‘आशीर्वाद दे रही हैं आपको!’ चाची ने बताया।
‘‘ओहो ! अच्छा! सौभाग्य मेरा! ठीक है… तो अब चलूँ।’ एक बार फिर कुछ और झुक कर पूरी तरह चरण स्पर्श किये उसने। झुकते चाची ने एक हाथ ईया का उठा कर उसके सिर पर रख दिया।
फटफटी पर बैंक वाले के साथ बड़े को जाते देख छोटे की आह निकल गयी। अबकी बड़ा लगता है सब ले उड़ेगा! कुछ भी देगा नहीं। गहरी साँस ली उसने। तार कैसे जुड़े थे मन के दोनों सहोदरों के! बड़ा भी यही सोच रहा था उस समय। क्या क्या कर कितने पापड़ बेल कैसे कैसे इस बार की पेंशन हाथ आयी है ! इसमें से तो किसी को कुछ भी देगा नहीं। ईया के हजार तो अब वह नहीं रख सकेगी। छोटे को कुछ बाँटने का सवाल ही नहीं। जैसे तैसे कर जुटाये वह और वो सिर्फ करे हिस्सेदारी? तिस पर अभी काम क्रिया का बड़ा काम बाकी पड़ा। उसके बाद तो इसमें से शायद ही कुछ बचे! लकड़ी ही है इन दिनों इतनी मँहगी। ऊपर से कर्मकांड इतने सारे ! उस सब चक्कर में पड़ा तो लेने के देने पड़ जायेंगे। तय किया इससे अच्छा सीधे नये बने सरकारी बिजलीघर में ले जाकर फूँक देगा। कह कर कि यही उनकी इच्छा थी आखिरी। ऐसा ही कह कर गयी थीं! और यह भी कि पंडित पुरोहित कर्मकांड पाखंड के बदले पाँच गरीबों और गायों को खिला देना ….बस्स ! कम से कम ईया की अंतिम निशानी तो रहे पास पूरी की पूरी! आखिरी पेंशन उनकी। छोटे से तो बचा लेगा। डर था कहीं माँ न माँग बैठे।
बड़ा बैंक वाले के साथ निकला उधर और इधर ईया की साँस ! पवनपंछी माटी के पिंजर से जा चुका था। फटफटी पर बैठे बड़े का मोबाइल घनघनाने लगा। उसने कान से लगा हलो हलो कह कर काट दिया और फिर नेटवर्क ही नहीं कह कर स्विच ऑफ कर दिया।
‘ईया! ईयाजीऽ! ताकीं ना!’ घबरा कर बोलीं चाची। पिछले के पिछले मंगल से पहले वाला सोमवार याद आ गया जब सुबह सुबह ईया के खटोले की तरफ गयी थीं। फौरन पल्लू नाक पर रख लिया। बच्चे की तरह बेसुध पड़ी थीं बूढ़ी ईया बिस्तर पर। और साड़ी रँगी। पीली। ‘हा भगवान! ई का कइले बानीं… आँय…? बुतरुवन लेखा! होस नईखे?’
हड़बड़ा कर उठीं ईया। देख कर खुद भी हुई ग्लानि। रात में कब पेट पानी हो गया था कुछ पता ही नहीं चला। इसी दिन के लिए तो डरती थीं। आज वही सामने आ गया! सकत बटोर जैसे तैसे उठ कर धोने लगीं चुपचाप साड़ी बिछावन।
‘हजम होये के ठिकाना नइखे बुढ़ौती में आ हवस अबहुँ वइसहीं! बतावऽ!’ बहू की आवाज छाती छेदती निकल गयी।
 ‘ईयाऽ ! ईयाजीऽ ! ताकीं त तनिका…!’ दोनों हाथ जोड़ फफक पड़ी सामने वाली चाची और फिर वही जुड़े हुए हाथ अपनी बहुओं की ओर मुड़ गये।
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