Thursday, October 9, 2025
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विरासतनामा: पहाड़ों की थाली- परंपरा, स्वाद और संकट

मैगी आज पहाड़ी खाने में शुमार होने लगी है! पहाड़ी लोग भी सैलानियों की प्लेट में शहर ही परोस कर दिए जा रहे हैं और पारम्परिक पहाड़ी भोजन गुमशुदगी की कगार पर है। ऐसे में पारम्परिक भोजन को बुझते हुए चूल्हों पर फिर से चढ़ाने की आज सख्त जरूरत है।

ऊंचे-नीचे घुमावदार रास्तों को तय करते हुए जब कोई मुसाफिर थक-हार कर पहाड़ की चोटी तक पहुँचता है तो उसके थर्राते हुए हाथों में कहवा का एक कप या याक़ के मक्खन से बनी चाय का गिलास पकड़ाने वाले के लिए उसके दिल से बस दुआएँ ही निकलती हैं। पहाड़ चाहे हिमाचल के हों या कुमाऊँ के, सुदूर उत्तर पूर्व के या कश्मीर लद्दाख के, धूप और परछाइयाँ जैसे अपना रंग और रूप बदलती हैं, वैसे ही अलग-अलग क्षेत्रों के पहाड़ी खाने भी अपना स्वाद और स्वरुप बदलते चले जाते हैं। भौगोलिक अवस्था के मुताबिक दस्तयाब होने वाली फसलों और फलों-सब्ज़ियों के मुताबिक़ पहाड़ों के अलग अलग हिस्सों ने अपनी भिन्न पाक-शैली विकसित कर ली है।

लद्दाख से शुरू करें तो यहाँ के सूखे सर्द पठार पर होने वाली जौ की खेती और याक के दूध से बने मक्खन को अलग-अलग पकवानों में इस्तेमाल किया जाता है। स्थानीय लोग इसे Tsampa (जौ का आटा) और Butter Tea (गुरगुर चाय) के रूप में पीढ़ियों से खाते-पीते आ रहे हैं। मांसाहार वहाँ के कड़े मौसम के अनुरूप खाद्याहर में शामिल करना ज़रूरी भी है। चीनी प्रभाव के चलते थुक्पा, नूडल और मोमो जैसे व्यंजनों ने भी लद्दाखी खानपान में जगह बना ली है। लद्दाखी व्यंजन गर्म स्टू, सूप और ब्रेड पर बहुत ध्यान केंद्रित करते हैं जो शरीर को गर्म रखने में सहायक होते हैं। यह परंपरा प्राचीन रेशम मार्ग से गुजरने वाले व्यापारियों और तिब्बती बौद्ध संस्कृति से भी प्रभावित रही है।

कश्मीर की ज़रखेज़ वादी में ज़ाफ़रान से लेकर सेब और धान से लेकर साग सब्ज़ियों की बहुतायत रहती है लेकिन सर्दियों में जब वादी बर्फ की मोटी चादर ओढ़ कर सो जाती है, उन मुश्किल महीनों में गुज़र के लिए कश्मीरियों ने होख स्युन या सूखी हुई सब्जियों का रास्ता निकाल लिया है। गर्मी के महीनों में मशरूम, शलगम, बैंगन, मिर्च, टमाटर जैसी सब्ज़ियों को कश्मीरी घरों के बाहर मालाओं की तरह गूंथ कर धूप में सूखने के लिए लटका दिया जाता है ताकि ज़्यादा समय के लिए इन सब्ज़ियों का संरक्षण किया जा सके और सर्दियों के माह में उबाल कर इनका पुनः इस्तेमाल हो सके। अनुकूलन की यह स्थानीय तकनीकें यहाँ की पाक-शैली को सीधे-सीधे मुतासिर करती हैं। इसके साथ ही कश्मीर का वाज़वान (पारंपरिक भोज) यूनेस्को की सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल होने की कोशिश में है!

सुदूर उत्तर-पूर्वी राज्यों में वर्षावनों और नदियों की मौजूदगी के चलते यहाँ तरह-तरह की जड़ी-बूटियाँ और मछलियाँ पाई जाती हैं। नागालैंड, मणिपुर और असम के आदिवासी समूहों का पुरातन प्रभाव आज तक यहाँ की पाक-विधा पर दिखाई देता है। फर्मेन्टेड या सिरके में रख कर पकाई गयी मछलियाँ, बाँस की कोपलें और यहाँ तक कि केंचुएँ भी यहाँ की विशेषता हैं। मिज़ोरम में बाई नामक हरी सब्जियों और मांस से बना मिश्रित पकवान लोकप्रिय है। अरुणाचल प्रदेश में अपोंग (स्थानीय चावल की बियर) और नागालैंड में अक्षुता (सूखी बांस की पत्तियाँ व मछली) सांस्कृतिक पहचान हैं। फर्मेन्टेड मदिरा भी इनके खानपान का एक ज़रूरी हिस्सा है। बीफ, पोर्क और बतख का माँस यहाँ अलग-अलग तरह से पका कर खूब खाया जाता है।

गढ़वाली और कुमाँऊनी पकवानों में पहाड़ी जड़ी-बूटियों की मौजूदगी रहना तय होता है। गर्मियों में खाने में डाला जाता है त्रिफला और बरसात में तकीरा नज़ले से बचाव करता है। भांग, जम्बू, लुंगडू साग और बिच्छू साग यहाँ की आमतौर पर खाई जाने वाली बूटियाँ हैं, जो आसानी से उपलब्ध होती हैं। भट्ट की दाल, काफल (जंगली फल), चैंसू और आलू के गुटके जैसे व्यंजन पहाड़ी घरों की खास पहचान हैं। अलग-अलग किस्म के अंजीर, कंदमूल और बेरियाँ भी यहाँ के लोगों के आहार का हिस्सा हैं।

हिमाचल के खाने में दालों की मौजूदगी और पकवानों में खटास का अलग महत्त्व होता है। इमली और किम्ब जैसे फलों के रस और दही के मिश्रण से तरी-तरकारियों में इस खटास का पुट दिया जाता है। ‘धाम’ एक पारंपरिक भोजन त्योहार है जो हिमाचल प्रदेश में मनाया जाता है। मंडी ज़िले में प्रख्यात खान-पकवान काँगड़ा क्षेत्र के पकवानों से भिन्न होने के चलते धाम के भी दो प्रकार होते हैं – काँगड़ी धाम और मंडियाली धाम। धाम को केवल बोटी (ब्राह्मणों की एक विशेष जाति जो वंशानुगत रसोइये हैं) द्वारा पकाया जाता है। धाम की तैयारी एक रात पहले से ही शुरू हो जाती है। भोजन पकाने के लिए उपयोग किए जाने वाले बर्तन सामान्य रूप से पीतल के होते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में “बटोही”, “बलटोही” कहा जाता है। खाने को फर्श पर पलाती लगाकर बैठे लोगों को पत्तल की प्लेटों पर बारी-बारी परोसा जाता है। म्हानी, मदरा, खट्टा, मीठे भात और दालें इन धामों के खास पकवान होते हैं। 2023 में हिमाचली धाम को जीआई टैग (Geographical Indication Tag) भी प्रदान किया गया।

इनके अलावा गेहूँ के आटे से बने रोट, गूणे, गुलगुले और चावल के आटे से तैयार होने वाले मंडे और सिद्दू जैसे पकवान पहाड़ी भोजन परंपरा में ख़ास जगह रखते हैं। कचनार की कलियों से बनाई सब्ज़ी और बनफ्शे के फूलों से बना काढ़ा भी हिमाचली खाद्य संस्कृति का खूबसूरत हिस्सा हैं।

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इसके अलावा चावल (धान-भात) कश्मीर से लेकर हिमाचल तक, उत्तर पूर्व से लेकर उत्तराखंड तक बड़े ही शौक़ से खाया-पकाया जाता है। पहाड़ों पर प्राकृतिक रूप से उगने वाली जड़ी-बूटियों के अलावा यहाँ के मेहनती लोग बीजों को सम्भाल कर रखते हैं और मिलने-जुलने पर अक्सर बीजों का ही आदान-प्रदान करके प्राकृतिक संरक्षक की भूमिका भी निभाते हैं। यह परंपरा बीज उत्सव (Seed Festival) जैसे आयोजनों में आज भी जीवित है।

लेकिन जंगली फल-फूलों और मौसमी फसलों का महत्त्व कोल्ड स्टोर से बारहमास मिलने वाली सब्ज़ियों-फलों के चलते फीका पड़ता जा रहा है। जंगल काटे जा रहे हैं और सैलानियों के प्रभाव में स्थानीय पकवानों की जगह विदेशी और प्रवासी खानों ने ले ली है। मैगी आज पहाड़ी खाने में शुमार होने लगी है। पहाड़ी लोग भी सैलानियों की प्लेट में शहर ही परोस कर दिए जा रहे हैं और पारम्परिक पहाड़ी भोजन गुमशुदगी की कगार पर है।

ऐसे में पारम्परिक भोजन को बुझते हुए चूल्हों पर फिर से चढ़ाने की आज सख्त ज़रूरत है ताकि पहाड़ी खाद्य-संस्कृति की महक को दूर-दूर से आने वाले सैलानियों के ज़रिये दुनिया भर में पहचान दिलाई जा सके।

ऐश्वर्या ठाकुर
ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट और लेखक; वास्तुकला, धरोहर और संस्कृति के विषय पर लिखना-बोलना।
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