थार के रूखे इलाकों की ख़ाक छानते हुए हुए लोग छतरियों, धोरों और चबूतरों पर चढ़ते-उतरते हुए कभी राजपूत जुझार योद्धाओं के स्मृति चिन्हों से रूबरू होते हैं तो कहीं सती मंदिरों में बलिदान का धधकता इतिहास देखते हैं। लेकिन इन सब बिखरे हुए सूत्रों का मूल भाव एक ही रहता है: पुरखों को याद रखना, उन्हें पूज्य मानना।
पूर्वज पूजा, जिसे पितृ पूजा भी कहते हैं, दुनिया भर की कई संस्कृतियों में पाई जाने वाली एक प्रथा है। यह धार्मिक मान्यता है कि दिवंगत पूर्वज जीवित लोगों के जीवन को प्रभावित कर सकते हैं और उनका आशीर्वाद परिवार में सुख-समृद्धि लाता है। यह प्रथा न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण है। यह लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ती है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्ञान, नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक पहचान का संचार करती है।
हिंदू धर्म में श्राद्ध और पितृ पक्ष
भारतीय संदर्भ में, पूर्वज पूजा की सबसे गहरी और विविध अभिव्यक्ति श्राद्ध है, जो खासकर पितृ पक्ष के दौरान की जाती है। इस अनुष्ठान में, परिवार के सदस्य पिंडदान (पके हुए चावल और तिल का गोला) और तर्पण (जल चढ़ाकर) अर्पित करते हैं। यह माना जाता है कि इन अनुष्ठानों से पूर्वजों की आत्मा को शांति मिलती है और वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। श्राद्ध का उद्देश्य सिर्फ मृत आत्माओं को भोजन और पानी देना नहीं है, बल्कि यह कृतज्ञता, सम्मान और परिवार के प्रति दायित्व बोध को भी दर्शाता है।
गया (बिहार) को पितृ श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थल माना जाता है, जहाँ विष्णुपद मंदिर और फल्गु नदी के किनारे पिंडदान की परंपरा है। दक्षिण भारत में भी, खासकर तमिलनाडु और कर्नाटक में महालय अमावस्या पर पूर्वजों के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाते हैं।
इस्लाम में फातिहा और दुआ
इस्लाम में, औपचारिक रूप से पूर्वज पूजा की अवधारणा नहीं है, क्योंकि यह केवल अल्लाह की इबादत पर जोर देता है। हालांकि, मृत लोगों को याद करने और उनके लिए प्रार्थना करने की एक परंपरा है। शब-ए-बारात पर लोग अपने पूर्वजों की कब्रों पर जाकर उनके लिए दुआ-ए-माग़फ़िरत (मोक्ष के लिए दुआ) करते हैं। यह क्रिया मृतक के लिए अल्लाह से क्षमा और शांति की मांग करने का एक तरीका है।
विभिन्न संस्कृतियों में पूर्वज पूजा के प्रतीक
पूर्वजों को सम्मान देने के लिए भारत और अन्य जगहों पर कई विशिष्ट स्मारक और प्रथाएँ मौजूद हैं:
- छतरियां: राजस्थान और मध्य प्रदेश में, शासकों और प्रमुख व्यक्तियों की स्मृति में गुंबददार मंडप बनाए जाते हैं, जिन्हें छतरियां कहते हैं जो पूर्वजों के सम्मान का प्रतीक हैं।

- सती पत्थर और पालिया: सती पत्थर उन महिलाओं की याद में स्थापित किए जाते थे जिन्होंने पति की मृत्यु के बाद आत्मदाह किया था। गुजरात में पालिया नामक स्मृति चिह्न युद्ध में शहीद हुए वीरों या समुदाय के लिए बलिदान देने वाले लोगों की याद में स्थापित होते हैं। इन्हें अक्सर देवता के रूप में पूजा जाता है।

- पितृ मड़ी या मोहरें: हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में, मृत पूर्वजों के सम्मान में पत्थर या स्मारक बनाए जाते हैं, जिन्हें पितृ मड़ी के नाम से जाना जाता है। इन्हें अक्सर गांव के बरगद के पेड़ के नीचे देखा जा सकता है।

- बौद्ध धर्म: पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत के कारण बौद्ध धर्म में पूर्वज पूजा की अवधारणा अलग है। यहाँ पूर्वजों की आत्माओं की शांति के लिए प्रार्थनाएँ की जाती हैं।
- कन्फ्यूशियसवाद: कन्फ्यूशियस ने पूर्वज पूजा को एक महत्वपूर्ण सामाजिक और नैतिक कर्तव्य माना। उनके अनुसार, यह परोपकार और परिवार के प्रति सम्मान का प्रतीक है, जो पारिवारिक एकजुटता और नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देता है।
- ईसाई धर्म: ईसाई परंपरा में All Souls’ Day मृतकों की आत्मा के लिए प्रार्थना का दिन है। लैटिन अमेरिका में Day of the Dead पूर्वजों की स्मृति में बड़े उत्सव की तरह मनाया जाता है।
- चीन और जापान: चीन में Qingming Festival (Tomb-Sweeping Day) पर लोग अपने पूर्वजों की कब्र साफ करते हैं और भोजन अर्पित करते हैं। जापान में Obon Festival पूर्वजों की आत्माओं का स्वागत करने का प्रमुख अवसर है।
- अफ्रीकी समाज: कई अफ्रीकी समुदायों में पूर्वजों की आत्माओं को संरक्षक आत्मा (guardian spirits) माना जाता है।
- ग्रीक और रोमन परंपरा: प्राचीन रोम में Parentalia नामक त्योहार और ग्रीक परंपरा में भी पूर्वजों को बलि और अर्पण देने का चलन था।
- वाइकिंग संस्कृति: वाइकिंग्स में भी पूर्वज पूजा एक ज़रूरी हिस्सा था, जहाँ वे अपने योद्धा पूर्वजों को संरक्षक के रूप में पूजते थे। यह भारतीय राजपूतों की उस परंपरा के समान है, जहाँ शहीद योद्धाओं को पूर्वज देवता का दर्जा मिलता था।

- सूफियों में भी अपने ‘पीरों’ (बुजुर्ग सूफी विद्वानों) को उनकी दरगाह पर उर्स (पुण्यतिथि) मनाकर याद करने की परंपरा है। सूफीवाद में मृत्य को ईश्वर से एक होने की क्रिया माना जाता है और इसे त्यौहार की तरह मनाया जाता है।

राजपूतों में पूर्वज पूजा का एक विशिष्ट रूप है। वे अपने पूर्वजों को ‘कुलदेवता’ या ‘कुलदेवी’ की तरह पूजते हैं। युद्ध में शहीद हुए या सम्मानजनक मौत मरने वाले राजपूतों की याद में पालिया या देवाली (स्मारक) बनाए जाते हैं, जिन्हें पितृदेव के रूप में पूजा जाता है। यह परंपरा उनके शौर्य और वंश के प्रति समर्पण को दर्शाती है। सती माताओं के मंदिर भी पग पग पर मिलते हैं, जो दिखाता है कि राजपूती संस्कृति में अपनी पुरखिनों को भी बराबर सम्मान दिया जाता है। पाकिस्तानी अन्वेषक जुल्फिकार अली कलहोड़ो ने सिंध सूबे में मिलने वाले जुझार और सती स्मारकों पर किताबें भी लिखी हैं।
पूर्वज पूजा का महत्व
चाहे वह श्राद्ध, फातिहा, या स्मारक पत्थरों के रूप में हो, पूर्वज पूजा हमें अपनी विरासत को सम्मान देने की प्रेरणा देती है। यह हमें यह भी याद दिलाती है कि हमारी पहचान सिर्फ व्यक्तिगत नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों और आने वाली पीढ़ियों से जुड़ी हुई है।