Friday, October 10, 2025
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चिठिया हो तो हर कोई बांचे

नामवर सिंह के पत्र राजेंद्र यादव के नाम

भदैनी, वाराणसी
12/4/58
कथा सम्राट,
यदि प्रभाकर माचवे की तरह हिन्दी की तमाम पत्रिकाओं में आदमी अपनी रचनाएँ न छपवाए तो लोग उसे क्या महान लेखक नहीं मानेंगे? मैं पूछता हूँ, ‘समाज कल्याण’ में पत्थर बोलते हैं जैसे वाहियात कहानी छपवाने की तुम्हें क्या जरूरत थी? अगर ‘पत्थर’ की जगह तुम अपना ही नाम लिख देते तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह किस ज़माने की भाषा लिखी जा रही जनाब ? छायावादियों के गद्य को भी तुमने तो मात कर दिया? अच्छा है, इसी तरह दो-तीन कहानियाँ जल्दी-जल्दी छपवा दो, तुम्हारे पढ़नेवाले बस पत्थर ही रह जाएँगे, यदि पत्थर की ‘प्रतिमाएँ’ नहीं तो।
खैर, ज़िन्दगी में तुमने एक तो पते की बात कही-भले ही वह मेरे बारे में हो। लेकिन मेरा यार, तू यहाँ भी अपने ‘चमत्कार’ से बाज़ नहीं आया है यानी ‘पते की बात’ में ‘बात का पता’! फिर भी मुझे तुम्हारा यह वाक्य पसन्द आया क्योंकि सच नहीं है। जहाँ तक Frankness का सवाल है, उसे मैं कोई बहुत बड़ा गुण नहीं मानता ! Only a Crank can be frank and I don’t aspire to be such. इतना ज़रूर है कि मरने के बाद मेरे घर से जो कुछ निकलेगा उससे शायद तुम्हें अपने राय बदलने के लिए मजबूर होना पड़े।
लेकिन यार तुम हो बड़े होशियार, ऐसी भूमिका बाँधकर तुमने जो यह सोचा है कि तुम्हारी कहानियों को लेकर मार्कण्डेय की समीक्षा का प्रतिवाद करूँगा, वह सिद्ध न होगा। मेरे ‘शुभचिन्तक’ शिवप्रसाद भाई ने राय दी है कि मैं उस दलदल में न पड़ू और ऐसे शुभचिन्तक की राय मुझे माननी ही चाहिए। कहानीकारों की इस राजनीति से जितना दूर रहा जाए उतना ही अच्छा। इससे तो बेचारे नए कवियों की दुनिया ही अच्छी है। अस्तु! मुझे यही निवेदन करना है कि-
तत्किं कर्मणि द्योरे मां नियोजयसि केशव ? (यादव)
अब काम की बातें।
1. अपनी उपन्यासोंवाली किताब भेज दो यदि अपना कल्याण चाहते हो। कम से कम परीक्षा लेने के लिए ही सही।
2. ‘धर्मयुग’ वाली बात से सहमत हूँ-हस्ताक्षर बकलमखुद मुकरूँ तो हाथ काट लेना।
पुनश्च : राकेश से मुलाकात होती है न? उससे कहना कि ज्ञानोदय के ‘अस्वस्थ और अप्रसन्न’ वाले निबन्ध के लिए मेरी बहुत-बहुत बधाइयाँ! सचमुच लिख तो राकेश रहा है। हम तुम तो झख मार रहे हैं।
और निर्मल? मिलते हैं? ‘समवेत’ में उनकी ‘अँधेरे में’ कहानी पढ़ना और अनुभूति-क्षणों के चित्रण का अपना अभिमान त्यागना।
– नामवर

namvar singh and rajendra yadav

नामवर सिंह और राजेंद्र यादव। फोटोः forwardpress

11-6-58
कथा कुमार,
तुम्हारी तरह ला-पता मैं नहीं रहता! जहाँ रहता हूँ, वहीं हूँ और रहूँगा। क्या ज़रूरी बात है, कहो। कान हाज़िर हैं। हमेशा तुम्हें ‘ज़रूरी बातें’ ही तो करनी रहती हैं। यह बड़ी दयनीय स्थिति है! इलाहाबाद जाते समय कुछ देर काशी में भी कृतार्थ होते जाओ तो कल्याण हो। न तो ज्ञानपीठ ने चेखव के नाटक दिए और न श्रमजीवियों ने ‘कुलटा’ भेजी। इस तरह हाँका न करो।
चूँकि ‘कार्ड’ में इससे अधिक खुलकर प्रेमवार्ता नहीं हो सकती (क्योंकि तुम्हारी तरह मैं अपने को अभी नहीं बना सका हूँ) इसलिए आशीर्वादान्ते,
तुम्हारा
-डॉक्टर
9-3-59
प्यारे शेरज़न,
तुम्हारी यह शेरज़नी तो देखते-देखते मर्ज़ हो चली। आखिर तुम कथाकारों को यह क्या हो गया? कहानीवाले पत्र में तुमने ग़ालिब तक को ‘एडिट’ करके छोड़ा तो भी मैंने तुम्हें छोड़ दिया। अब इस बार अपने कार्ड की दो लाइनों को भी ‘एडिट’ कर मरे। मैं कहता हूँ कि शेर याद नहीं रहते तो बाबा, गद्य ही से काम लो-लेकिन कविता का खून तो मत करो !
और यह ‘हीं-हीं’ क्या? ‘वंशदीप उर्फ़ घोड़े हँसते हैं’ तो अमृत ही के यहाँ हँसने दो! तुम तो अच्छे खासे आदमी हो। खैर, दिल्ली आऊँगा तो इसमें सुधार कर दिया जाएगा। बहरहाल, कुछ सीरियस बातें कर ली जाएँ!
दिल्ली मुझे आना है और इसी महीने; लेकिन अभी 13 मार्च को कलकत्ते जाना है। वहाँ मित्रों ने 14-15 को कविता पर कोई विचार गोष्ठी आयोजित कर रखी है। देखा तुमने, तुम्हारे हटते ही वहॉ कावेता फिर पनप उठी’ यों भावुकता लग रहा है। कलकते को मैं अभी तक बनारस ही समझता था लेकिन इस बार तो यहॉ परदेश ही मालूम हो रहा है। खैर, 19 को ही बनारस वापस आ जाऊँगा और फिर होली-बाद दिल्ली सिर्फ एक सप्ताह के लिए’ फ़िलहाल । बनारस छोड़ तो देता अभी लेकिन छात्रों का मुँह देखता हूं तो परीक्षा के पास उन्हें छोड़ते नहीं बनता, शायद इस बात पर तुम हँसो लेकिन इतनी दुबलता छिपाने में असमर्थ हूं।
राकेश ने जब टीचरी छोड़ी तो तुरन्त मेरा मन भी इससे अलग होने के लिए आकुल हो उठा था। वैसे भी तुमलोगों के संसर्ग से इस पेशे से नफ़रत हो चलती थी। अक्सर एकान्त में सोचा था कि जिन्दगी के इतने महत्वपूर्ण रचनात्मक क्षण ही भूकने में गँवा दिए। इसलिए उससे अलग होते किसी प्रकार के मोह का प्रश्न ही नहीं उठता । परन्तु अरसे से जो आराम तलब (?) ढर्रा’ चलता आ रहा था उसने इतना काहिल बना दिया है कि आगे की ‘फ्री-लैंस’ जिन्दगी की कोई साफ़़ रूपरेखा दिखाई ही नहीं पड़ती और यदि उस ओर से निश्चिन्त होने की कोशिश भी करता हूँ तो शुभचिन्तकों की चेतावनियां भयकर आकार धारण करके सामने खड़ी हो जाती हैं। शुभचिन्तक दुबारा उसी जिन्दगी में घसीटना चाहते हैं और बड़े शुभचिन्तक की ओर से तो प्रलोभन भी है, बहरहाल, इन्हीं सब बातों पर राय लेने के लिए मैं दिल्ली आना चाहता हूँ-एक बार अपने बन्धुओं के बीच नए रूप में फिर निकट भविष्य के लिए अन्तिम रूप से कुछ निश्चय करूँगा!
अब यदि शेष जगह में कुछ कहानी-चर्चा न करूँ तो सारा पत्र तुम्हें फीका लगेगा!
अस्तु। सबसे पहले “कुलटा” पर रामविलास। अब मेरा वह पत्र फिर पढ़ना। उस समय तो तुम मुझ पर बहुत खफा थे न? क्या मैंने तुम्हारे बचकानेपन और कया के अनावश्यक विस्तार की बात नहीं कही थी?
इस बार कहानी में शिवप्रसादजी का भी निबन्ध आ गया समझ में नहीं आता, तुम लोग किस झमेले में पडे़ हो और इस तरह की तू-तू मैं-मैं में क्या रस पा रहे हो, अभी मैं इलाहाबाद गया था और वहाँ भी मित्रों को यही नेक सलाह दी! देख लो, आलोचक झगड़ा लगा रहे हैं या खुद तुम कहानीकार ही बे-बात की बात पर लड़ रहे हो! लगता है, आलोचक को एक बार फिर कलम उठानी पड़ेगी
सस्नेह
नामवर
Ab we Wahan nahi rahatein
लोलार्क कुंड, वाराणसी
5-6-59
प्रिय राजेन्द्र,
‘अभिमन्यु की आत्महत्या’ कहानी-संग्रह मिला। कवर से भ्रम हुआ कि P. P. H. से प्रकाशित हुई है लेकिन अन्दर देखा तो ‘विश्व साहित्य’ राजामंडी। मुद्रक कोई कलकत्ते का। आखिर मामला क्या है? तूने अपने पैसे लगाए हैं? और ऊपर से 70 न. पे खर्च करके एक ऐसे नासमझ के पास किताब भेजी है जो इन्हें ‘निबन्ध’ कहता है। क्यों? इसी तरह और भी कितने ही 70 न. पै. तुमने खर्च किए होंगे। मुझे वह दोपहर याद आ रही है जब हम दोनों बैंक गए थे और खाली हाथ लौटे थे। फ्लैट का किराया-होटल का खाना-साहित्य पर लम्बी-चौड़ी बात। तुमने केवल इतना ही कहा था शायद। फिर कलकत्ते लौट जाने की तबीयत हो रही है; लेकिन तुम केवल आगरे तक ही आए थे।
डेढ़-दो घंटे से मैं यही सब सोच रहा हूँ। पानी गिर रहा है। सामने गंगा की नीली धारा है। उस पार पाँच-छह बड़ी-बड़ी नावें भरी हुई खड़ी हैं। उनके पीछे रेती की चौड़ी पट्टी है। पट्टी के पीछे पेड़ों का धुँधला हाशिया है और इन सब पर पानी की हल्की फुहारें पड़ रही हैं। किताब आई थी तो आँधी चल रही थी। अब वह पानी दे गई है। किताब जाने कब बन्द हो गई और अब आँखों के सामने केवल कमल बोस का ‘कवर’ है।
क्या आज भी कहानियों पर ही बहस की जाए ! वह तो ‘कहानी’ पत्रिका में हो ही रही है गोया कि युगप्रवर्तक कहानीकार का फैसला आज ही होने को है और उसी के साथ ‘समझदार’ आलोचक का भी! इन कहानियों के पीछे कहानीकार की अपनी ज़िन्दगी का जो संघर्ष है, उस पर बात कब होगी? अपनी बेवकूफी याद आती है तो आँखों में पानी आ जाता है। थोड़ी देर के लिए हम लोग दिल्ली में मिले भी तो जाने क्या-क्या योजनाएँ बनाई गई और सारा समय इन्हीं बातों में निकल गया। अपनी बातों के लिए मौका ही नहीं मिला। शायद हम लोग जरूरत से ज्यादा ‘साहित्यिक’ हो गए हैं।
यही सही, तुम्हारी कहानियों पर मैं फिर लिखने जा रहा हैं। ‘दोस्तों’ को बहुत मुगालता हो गया है। तुम्हारी आलोचना क्या कर दी, लोग अपने को महान कहानीकार समझने लग गए। अभी कलकत्ते से ‘समीक्षक’ सम्पादक उदयभान मिश्र आए थे और दूसरे अंक का वह फर्मा दिखा गए जिसमें ‘कुलटा’ की समीक्षा पर तुम्हारा पत्र छपा है। तुमने ठीक लिखा है। और भी सख्त पत्र लिखने की जरूरत थी। आपस के सैद्धान्तिक मतभेद में इन लोगों को खेलने का मौका देकर कितनी बड़ी भूल हो गई- यह देखकर पछतावा होता है।
बहरहाल, और बताओ दिल्ली के क्या मजे हैं? राकेश वापस आ गया या नहीं? कैसे हो? क्या कर रहे हो? कुछ तो बताओ। यों चुप्पी साधकर हमारी ज़िन्दगी को तो पहाड़ न बनाओ। कभी-कभी बेहद अकेलापन महसूस होता है।
मुंशी कैसा है? भले आदमी ने भी साँस खींच ली है। जून के अन्तिम सप्ताह में कलकत्ते जा रहा हूँ। चल रहे हो? चलो तो लक्ष्मीचन्द जी से भी बातें हो जाएँ। अकेले में तो शायद न भी मिलूँ। वादा करो और पूरा करो; लेकिन इसके पहले आओ बाहर चलें और इस मौसम के नाम पर कॉफ़ी पी जाएँ (बनारस में भी कॉफ़ी मिलती है, गो ‘कॉफ़ी हाउस’ कोई नहीं है।)
प्यार के साथ,
नामवर
लोलार्क कुंड, भदैनी
वाराणसी
10-6
यादव मेरे अपने चेखव,
आखिर तुम्हारी ओर से कुछ तो आया-चाहे वह शिकायत ही क्यों न हो। अच्छा है, मेरी चिट्ठियाँ इसी तरह तुम्हें न मिलती रहें और फिर भी उन अनमिली (?) चिट्ठियों के ऐसे जवाब तो मुझे मिलते रहें-मुझे कोई शिकायत न होगी। समझा था, चिट्ठी लिख देने के बाद अपना काम खत्म हो जाता है लेकिन अब तो मालूम होता है कि नामावर को साथ-साथ जाना भी होगा-या शायद ख़ुद नामाबर भी होना पड़ेगा! यादब, अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या?
हँसी नहीं, सच बताओ मेरी एक भी चिट्ठी-उस लम्बी चिट्ठी के जवाबवाली नहीं मिली? आखिर हम किसी के इतने प्यारे कब से हो गए? या फिर किसी को मुझसे इतना रश्क् क्योंकर हो गया कि तुम्हारे लिए लिखा खत बीच ही में उड़ा ले! अब तो कुछ अपने ही ऊपर प्यार आ जाना चाहता है। और तुम्हारे ऊपर पहले से ज़्यादा।
तुम्हारे उस पत्र से मैं नाराज़ क्यों होने लगा ? क्या उसमें कोई इतनी महत्त्वपूर्ण ‘शरारत की बात थी भी? बेचारी उस चिट्ठी को यूँ ही इतना महत्त्व क्यों दे रहे हो? अथवा यों समझें कि इधर आपके अपने कोश में प्यार और नाराज़गी दोनों पर्याय हो गए हैं। भई, अनुभव जो न करा दे-जो ज़िन्दगी बदल सकता है, उसे कोश बदलते कितनी देर लगती है। रहस्यमयी जगहों से आनेवाली चिट्ठियाँ जो न करें: वे पिस्तौल की तरह जँधे के पार भी हो सकती हैं और…।
बनारस में आपसे अगर मुलाकात न हो सकी तो यह कोई नई बात नहीं हुई, अपनी क़िस्मत कुछ ऐसी जबरदस्त कभी रही भी नहीं। जिनसे मिलने को कहता हूँ, वे ‘सब’ यही कहते हैं कि हमेशा के लिए अपने यहाँ बुला लो तो आ जाऊँ; और मैं भी अब इसी नतीजे पर आ पहुँचा हूँ। इसलिए आप घबड़ाएँ न, मैं आपको अब बनारस बुलाकर रहूंगा; फिर देखता है, कैसे नहीं मिलते हैं। ‘आइ न सक्यूँ तुज्झ पै, सकूँ न तुज्झ बुलाइ’ कहकर रोने के दिन शायद अभी नहीं आए हैं। गुरुदेव को भी राज़ी कर लूँगा। लेकिन यह सब तभी होगा, जब बनारस जाऊँगा। अभी तो 5-6 जुलाई तक इधर ही रहना है। 19 जून को पूना छोड़ रहा हूँ। इसके बाद मैसूर, बंगलौर, मद्रास, मदुरा, रामेश्वरम्, त्रिवेन्द्रम, कन्याकुमारी वगैरह। वैसे, गुरुदेव काशी ही होंगे और इस आशय का एक पत्र उन्हें आज ही लिख रहा हूँ। कुछ न कुछ तो होगा ही।
रही, अपनी किताब ? सो, वह अब अपनी कहाँ रही। बेवकूफी थी, जब उसे अपनी समझता था। लड़की तभी तक अपनी है जब पिता के घर है। आज के प्रकाशक किसी कसाई पति से भी ज़्यादे सतर्क हैं। फिर मेरी कन्या तो किताब ‘महल’ में गई है! (मुझे खुश होना चाहिए) पुराने ज़माने के राजपूत कहा करते थे कि लड़की एक बार महल में आई तो फिर उसकी लाश ही बाहर निकलती है। इसे कहते हैं कुल की मर्यादा! तो भाई मेरे, अब मेरे साथ तुम भी सन्तोष की साँस लो और ‘महल’ के फाटक पर बैठकर इन्तज़ार करो कि उस पुस्तक की लाश कब बाहर निकलती है। मुझे खुश होना चाहिए कि अभी तक उस कुलवधू को बाहर की हवा तक नहीं लगी है-दोस्तों में से किसी ने उसे नहीं देखा; किसी की तीखी नज़र उस पर नहीं पड़ी है।
यहाँ का हाल अच्छा है। भींगा-भींगा है समा…।
विद्वानों का साथ है; नीरसता की चर्चा है; अजन्ता-एलौरा आदि देखने की सुविधा है; किताबों की ज़िन्दगी है और अपनी मौत। ज़िन्दा निकले तो साहित्य-चर्चा फिर हो लेगी। इस तपस्या में प्रवेश करने से पहले हमने भी पार्वती की तरह पुनर्गृहीतुं… दुमेर्षप निक्षेप इवार्पितं द्वयं’ भले ही वह ‘लतासु तन्वीषु विलासचेष्टितं किलोलदृष्टि हरिणांगनासु च।’ न हो। साहित्य विलासचेष्टा ही तो है और प्रगतिशील दृष्टि ‘विलोल दृष्टि !’ अच्छा अब बकवास ख़त्म होनी चाहिए।
सस्नेह
-नामवर
साभार- राजकमल प्रकाशन से आई किताब ‘अब वे वहां नहीं रहते’ से।
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