Friday, October 10, 2025
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स्मरण: मीना कुमारी- जाने क्या ढूंढती रहती थी वो आँखें…

कहते हैं, हम जिस तरह जीते हैं उससे अलग कुछ नहीं होते। माहजबीं उर्फ मीना कुमारी ने अपनी जिंदगी यूं जी, जैसे वह उसकी अपनी न थी। जैसे वह अपने तमाम चरित्रों की तरह एक और चरित्र मीना कुमारी को जीये और ढोये जा रही थी लगातार।

अरसे बाद याकि बरसों बाद जब वे पाकीज़ा के सेट पर दुबारा लौटकर आईं तो उन्होंने जो पहला संवाद अदा किया वो यह था- ‘बहुत दिनों से मुझे ऐसा कुछ लगता है कि मैं बदलती जा रही हूँ। जैसे मैं किसी अंजाने सफ़र में हूँ। कहीं जा रही हूँ और सबकुछ छूटा जा रहा है।‘

‘देख न बिब्बन! वो पतंग कितनी मिलती-जुलती है मुझसे! मेरी ही तरह कटी हुई!! ना मुराद… कमबख़्त!’  

मीना कुमारी की ज़िंदगी का आखिरी सच भी उस वक्त बिलकुल यही था। रिश्ते, चीजें, पैसे यहाँ तक कि ज़िंदगी भी उनके हाथों से फिसली चली जा रही थी और वे बेबसी में नम आँखों से यह सब झेलने और देखते रहने को विवश थी।

ठीक किसी कटी हुयी पतंग की तरह कई घर होते हुये भी उनका अपना कहा जानेवाला कोई एक घर तक न था। मीना के वालिद अलीबख़्श उनके और कमाल अमरोही की शादी के सख़्त के ख़िलाफ़ थे। कमाल मीना से उम्र में काफी बड़े थे और शादी-शुदा भी। बाद इसके पिता के लिए मीना सोने का अण्डा देने वाली मुर्ग़ी भी तो थीं जिसे वो इतनी आसानी से कैसे चले जाने देते? बचपन से वह छोटे-बड़े रोलकर अपने परिवार का पेट भरती आई थी। चार साल की उम्र में जिसे घर के फाकों ने कैमरे के आगे ला खड़ा किया, जिसके रोने पर लाखों आंखें रोईं और जिसके मुस्कुराने का इंतजार उन्हीं लाखों आंखों  को हमेशा रहा।

उसी मीना ने छुप-छुपा कर प्रेम में कमाल अमरोही से शादी कर ली। हालांकि शादी के बाद भी वे रह अपने पिता के घर ही रही थी। पिता को जब सच मालूम हुआ -वे दोनों का तलाक चाहते थे। चाहते थे मीना इस बेवजह के रिश्ते से निजात पाये। वही पिता जो बचपन में गरीबी की मार से हारकर उसे सड़क पर छोड़ आए थे, बाद में जब मामता जागी तो उसे वापस उठा भी लाये।

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कमाल अमरोही, जोसेफ विर्शिंग, मीना कुमारी फिल्म ‘दिल अपना प्रीत और पराई’ के फिल्मांकन के दौरान कश्मीर में। Photograph: (IANS)

अलीबख़्श चाहते थे कि मीना कुमारी महबूब ख़ान की फिल्म ‘अमर’ में काम करें जबकि मीना कुमारी का मन अटका था कमाल अमरोही की फिल्म ‘दायरा’ में, इसलिए महबूब ख़ान की फिल्म ‘अमर’ छोड़ आईं‌ वे। जिससे नाराज़ होकर बाप ने मीना के लिए अपने घर के दरवाज़े हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिये।

पहली बार वो अपने शौहर के घर पहुंची। कमाल ने मीना को गले से लगा लिया और उनका भरपूर स्वागत हुआ इस घर में। मीना ने अपनी कार अपने पिता को भिजवा दी ताकि पिता को कहीं आने-जाने में  कोई तकलीफ़ न पहुंचे और चंद कपड़ों के साथ वे अपने पति के घर की हुयी। 

कहते हैं जगहें बदलती हैं, किस्मत नहीं। पिंजरे बदलते तो रहते हैं, पर घर नहीं बन पाते कभी। मीना का नया घर भी धीरे-धीरे उनके लिए नए पिंजरे में तब्दील होने लगा था। ‘बैजू बावरा’ के बाद उनके आगे फिल्मों की झड़ी लग गई और दौलत की बरसात भी होने लगी। अब बाक़र अली (कमाल अमरोही के सेक्रेटरी) और कमाल अमरोही अपनी फिल्में संभालने से ज़्यादा मीना कुमारी का हिसाब किताब संभालने में मसरूफ़ रहने लगे थे।  ज़िंदगी फिर भी खींच-खाँचकर ठीक-ठीक ही चल रही थी। लेकिन जब मीना का क़द कमाल से बड़ा होने लगा तो दोनों में अना का टकराव शुरू हो गया।

जब ‘देवदास’ हिट हो चुकी थी और एक दिन अचानक बिमल दा की मीना से मुलाक़ात हुयी तो  मीनाकुमारी ने उन्हें देवदास की कामयाबी की बधाई दी। शुक्रिया कहने के साथ-साथ बिमल दा ने उनसे अपने मन में घुमड़ता वह सवाल आखिरकार पूछ ही लिया- ‘पारो की भूमिका ठुकराने की आखिरकार वजह क्या हुयी? वो भी जब सामने दिलीप कुमार जैसे शख्स हों! और पारो का रोल करने के लिए नरगिस, बीना रॉय और सुरैया जैसी अदाकार भी मरी जा रही हों। मैंने तो यह सोचा था कि ट्रेजेडी क्वीन और ट्रेजेडी किंग की जोड़ी अगर देवदास और पारो करें तो कमाल हो जाएगा।‘  

मीनाकुमारी को यह सुनकर जबर्दस्त हैरानी हुई। कुछ सोचते और कुछ ज्यादा समझते हुये वे बोलीं – ‘यह तो मेरे लिए यक़ीनन फ़ख्र की बात होती।  लेकिन मुझे बड़े अफ़सोस से कहना पड़ रहा है कि मुझसे इस बारे में कमाल ने कतई डिस्कस नहीं किया।‘  दुःखी मीना कुछ देर खामोश रही। फिर एक गहरी ठंडी सांस लेते हुए उन्होने कहा था- ‘शायद मेरे नसीब में पारो थी ही नही।‘ पारो उनकी कसक बनी रही और उनके लिए एक सबक भी, ‘बैजू बावरा’ की गौरी, ‘परिणीता’ की ललिता, ‘दो बीघा ज़मीन’ की ठकुराईन, ‘चांदनी चौक’ की ज़रीना बेगम,’ दिल अपना और प्रीत पराई’ की करुणा, ‘कोहिनूर’ की राजकुमारी चंद्रमुखी, ,’ दिल एक मंदिर’ की सीता, ‘नूरजहां’ की मेहरुन्निसा और ‘पाकीज़ा’ की नर्गिस और साहिबजान जैसे तमाम सशक्त किरदारों को जी ले लेने के बावजूद।

मीना आगे फिर यह गलती कभी  दुहराना नहीं चाहती थी, इसीलिए कमाल के कहने पर एक बार मना कर देने के बावजूद वे दूसरी बार में छोटी बहू ‘(साहिब, बीवी और गुलाम) करने का निश्चय करती हैं, जिसने उनके सिनेमाई कद को तो और ज्यादा बड़ा जरूर किया पर उनके और कमाल के बीच कि बढ़ती हुयी खाई को भी और ज्यादा गहरी और चौड़ी करती गई। ये खाई इतनी बढ़ गईं थीं कि दोनों एक-दूसरे का नाम सुनना भी पसंद नही करने लगे थे।

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‘साहब बीवी और गुलाम’ में मीना कुमारी

‘साहब बीवी और ग़ुलाम’ ने कई रिकार्ड ध्वस्त किये और मीना कुमारी घर-घर में छोटी बहू के रुप में जानी जाने लगीं। इस फिल्म के लिए मीना कुमारी को लगातार तीसरी बार ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ मिला जो इतिहास की पहली घटना थी। फिल्म को बर्लिन फिल्म फेस्टिवल के लिए भी चुना गया। (उन्हें अपने जीवनकाल में फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार चार बार मिला- 1954 में बैजू बावरा, 1955 में परिणीता, 1963 में साहिब बीबी और ग़ुलाम और 1966 में काजल‌ के लिए।)

लेकिन पाकीजा (अमरोही का ड्रीम प्रोजेक्ट) इस अना की लड़ाई में कबसे बंद की बंद पड़ी थी। कमाल अमरोही की परेशानियों को देखकर सुनील दत्त व उनकी बीवी नर्गिस और ख़य्याम व उनकी बीवी जगजीत कौर ने उनकी तरफ से मीना कुमारी से  ‘पाकीज़ा’ को पूरा करने का आग्रह किया। अपनी सेहत ख़राब रहने के बावजूद मीना कुमारी कमाल अमरोही की यह गुज़ारिश ठुकरा न सकीं। 

दस साल बाद जब फिर से पाकीज़ा की शूटिंग शुरू हुई तबतक शराबनोशी के चलते मीना कुमारी को लीवर सिरोसिस की बीमारी ने जकड़ लिया था। मीना कुमारी की गिरती सेहत का ख्याल रखते हुए डांस सीन के लिए बॉडी डबल के रूप में पद्मा खन्ना को लिया गया। मीना कुमारी ने अपनी बोलती आंखों और लरज़ते संवाद से तवायफ़ ‘नर्गिस’ और उसकी बेटी ‘साहिबजान’ के दुहरे किरदार को अमर बना डाला।

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पहले के नायक अशोक कुमार इस फिल्म में नायिका के पिता और नायक के चाचा की भूमिका में हुये। नये नायक हुये- राजकुमार। और तमाम गर्दिशे-हालात से गुजरते होने के बावजूद मीना जी ने इस फिल्म के लिए सिर्फ एक रुपये का मेहनताना लेना तय किया। दूर हो जाने और रहने के बावजूद भी वे यह जानती थी, फिल्म के बजट के लगातार बढ़ते जाने से अमरोही परेशान और खस्ताहाल दोनों हैं। मीना उन्हें ऐसे में बिलकुल परेशान नहीं करना चाहती थी।

यह अलग बात है कि उसकी ज़िंदगी में आई तमाम परेशानियों का सबब कमाल और उनकी तंगदिली ही थी। तब भी नहीं…जब 31 मार्च 1972 को आखिरी वक्त इलाज के लिए उसके पास मात्र सौ रुपये होते हैं… लाखों दूसरों को कर्ज में देकर, न मांगने वाली और न उसे पानेवाली मीना के मर्ज में भला इन सौ रुपयों से क्या होना था? इनसे  भला क्या होता… 

जाने वह क्या कुछ खोजती रही ताउम्र, जिसका नाम-पता खुद उन्हें भी नहीं पता था। जिसे पहचानती तो वह थी पर जानती नहीं, यूं तो और भी नहीं कि किसी को समझा सके। जैसे कि कोई कस्तूरी, पर यह कस्तूरी स्वयं मीना के भीतर भी नहीं थी। इसे पाना और तलाशना तो बाहर-बाहर ही था।

बहुत हद तक मीना की तलाश थी- अपने बच्चे की,  कमाल के पास अपने बच्चे थें और पहले से थे। और अब मीना से अपना वारिस पैदा कर वो अपने खानदानी नस्ल में कोई कमी, कोई मिलावट नहीं चाहते थे।  मीना ने भी उनके कहे खुद को समझा ही लिया था और लोगों को भी समझाती रही थीं -‘आसपास परिवार में कितने तो बच्चे हैं। सारे उन्हीं के तो हैं। फिर अपने बच्चों की जरूरत ही क्या है?’ बची बात अपनेपन की, स्नेह की, तादात्म्य की। ये तो पहले भी महान से महान स्त्री के हिस्से भी बहुत कम ही आईं।‌‌ और ये तो कोई मांगने की चीज नहीं हुईं और मांगने से मिलती भी कहाँ है?  गर मांगे से मिल गयी फिर तो वह तो अहसान हो गयी। मीना सब सह सकती थीं, अहसान नहीं उठा सकती।

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मीना को बहुत सम्मान मिला। इतना ज्यादा कि इससे कम में भी शायद उनका काम चल जाता। यश और धन मिला, जो धन कभी उनके पास नहीं रहा और यश को अपयश में बदलते पल भर भी कब लगा है? मीना कुमारी एक नाम विशेष, जो प्यार करने की पहुंच के या तो बहुत बाहर थी, बहुत अपहुंच, या बहुत छोटी, बहुत अनुपयुक्त।

जख्मों के साथ ऐसा होता है कि बार-बार कुरेदा जाये तो वह दुखना बंद हो जाता है। पर मीना के साथ ऐसा क्यों नहीं हो रहा था? क्यों हर बार वह पूरे अपनापे से दुःख के लिए  पलक-पांवड़े बिछाती रहीं? जैसे यही अब प्राप्य है, यही उद्देश्य है। जीना अगर यहीं है और ऐसे ही है तो क्यों न आत्मा उड़ेल कर जिया जाये? 

‘क्या कुछ नहीं झेला उन्होंने? सफेद कपड़े पहने और मुस्कराहट और अदब के मुखौटे पहने लोगों को अपनी तारीफ़ में शेर पढ़ते भी देखा।’

‘पाकीजा’ फिल्म के क्लाइमेक्स का यह बयान जैसे उनकी ज़िंदगी और मनःस्थिति को बखूबी बयान करता है-  ‘हमारा ये बाज़ार एक क़ब्रिस्तान है। ऐसी औरतों का जिनकी रुहें मर जाती हैं और जिस्म ज़िंदा रहते हैं। ये हमारे बालाख़ाने, ये कोठे, हमारे मक़बरे हैं। जिनमें हम मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजाकर रख दिये जाते हैं। हमारी क़बरें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं ताकि…

मैं ऐसी ही खुली हुई क़ब्र की एक बेसब्र लाश हूँ जिसे बार-बार ज़िंदगी बर्ग़ला कर भगा ले जाती है। लेकिन अब मैं अपनी इस आवारगी और ज़िंदगी की इस धोखेबाज़ी से बेज़ार हो गई हूँ, थक गई हूँ।’…

इसीलिए उनके जीवन की त्रासदी को बहुत करीब से देखने और जाननेवाली अदाकारा नर्गिस ने उनकी मृत्यु पर कहा था-‘ मौत मुबारक मीना कुमारी, अब हो सके तो इस संगदिल दुनिया में  फिर कभी वापस मत आना।‘

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