Tuesday, September 9, 2025
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स्मरणः प्यार- अमृता के जीवन का स्थाई सुर रहा

प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है। पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता, शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं। खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है। किसी ऐसी स्त्री से से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना, जिसके लिए यह पता हो कि वह सिर्फ आपकी या पूर्णतः आपकी नहीं है।

अमृता पर लिखना कुछ ऐसे ही है जैसे आग को शब्द देना, हवा को छूकर आना और चांदनी को अपनी हथेलियों के बीच बांध लेना। प्रेम में सिर से पांव तक डूबी यह स्त्री आजाद बला की थी और खुद्दार भी उतनी ही। हम मानते आए हैं, प्रेम और आजादी दो विरोधाभासी शब्द हैं। प्यार अगर किसी से सिरे से बंध जाना है तो आजादी हर बंधन को तोड़कर खुली हवा में जीने और सांस लेने का नाम है। पर अमृता ने प्यार के साथ आजादी को जोड़कर प्यार के रंग को थोड़ा और चटख और व्यापक बना दिया।

यह खुद को आजाद करना ही था कि सिर से पांव तक साहिर के प्रेम में डूबे होने, इस प्रेम के कारण अपनी बंधी-बंधाई गृहस्थी छोड़ निकल देने के बावजूद जब अखबार में उन्हें यह खबर पढ़ने को मिलती है कि साहिर को उनकी जिंदगी की नई मुहब्बत मिल गई, तो पहले से फोन की तरफ बढ़े उनके हाथ पीछे खिंच जाते हैं। अमृता रोती गिडगिड़ाती भी नहीं, आम स्त्री की तरह शिकवे-शिकायत भी नहीं करतीं। यह प्रेम के साथ अना यानी खुद्दारी का भी बात जो ठहरी। इस दौर में वे अपनी जिंदगी के सुनसान और उदास दिनों के अकेलेपन से चुपचाप गुजरती जाती हैं। अमृता को तब नर्वस ब्रेक डाउन हुआ, जिससे वे बमुश्किल उबरी थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि जिन्दगी की सबसे उदास प्रेम कविताएं उन्होंने इसी दौर में लिखीं।

यूं ही नहीं है कि एक दौर की पढ़ी लिखी लड़कियों के सिरहाने अमृता की रसीदी टिकट हुआ करती थी। यही नहीं, उनके जीने-रहने के तौर-तरीके भी बाकोशिश कॉपी किए जाते रहे। अमृता आजाद ख्याल इन लड़कियों का रोल मॉडल रही हैं और सबसे खास बात है कि इनमें से ज्यादातर लड़कियों के लिए वे उनके क्षेत्र या भाषा की लेखिका नहीं थीं। अमृता का यह आकर्षण उन्हें खास बनाता है, जिसने भाषा की दीवारों के परे भी उनके शब्दों के पंखों को खुला आकाश दे दिया था।

अमृता प्रेम और आजादी को एक साथ घोलकर इससे बनने वाला गाढ़ा चटख रंग स्त्रियों के जीवन में चाहती थीं। इसके सपने भी वे खुद दिन-रात देखती थीं और वह प्रेम उन्हें इमरोज से मिला। इसकी बानगी अमृता के एक पत्र से मिलती है जो उन्होंने भारत के स्वतंत्रता दिवस के दिन किसी अन्य देश में लिखा था। इसमें वे कहती हैं- ‘इमुवा, अगर कोई इंसान किसी का स्वतंत्रता दिवस हो सकता है, तो मेरे स्वतंत्रता दिवस तुम हो…’ यह प्यार के सदियों से चले आ रहे बंधे-बंधाए दायरे को विस्तृत करना था। उसे एक नई शक्ल और रंगत देना भी। इमरोज और अमृता में प्रेम का यह स्वरुप साफ-साफ देखा जा सकता था। और इसमें अमृता से रत्ती भर भी कम हाथ इमरोज का न था।

प्रेम में डूबी हर स्त्री अमृता होती है या फिर होना चाहती है। पर सबके हिस्से कोई इमरोज नहीं होता, शायद इसलिए भी कि इमरोज होना आसान नहीं। खासकर हमारी सामाजिक संरचना में एक पुरुष के लिए यह खासा मुश्किल काम है। किसी ऐसी स्त्री से से प्रेम करना और उस प्रेम में बंधकर जिन्दगी गुजार देना, जिसके लिए यह पता हो कि वह पूर्णतः आपकी नहीं है। इमरोज यह जानते थे और खूब जानते थे। उस आधे अधूरे को ही दिल से कुबूलना और पूरा मान लेना हो सकता है ठीक वही हो जिसे बोलचाल की दुनियादार भाषा में प्रेम में अंधे होना कहा जाता हो। पर प्रेम का होना भी तो यही है।

अमृता अपने और इमरोज के बीच के उम्र के सात वर्ष के अंतराल को समझती थीं। अपनी एक कविता में वे कहती भी हैं- ‘अजनबी तुम मुझे जिंदगी की शाम में क्यों मिले, मिलना था तो दोपहर में मिलते’ जब इमरोज और अमृता ने साथ साथ रहने का निर्णय लिया तो उन्होंने इमरोज से कहा था-‘ ‘एक बार तुम पूरी दुनिया घूम आओ, फिर भी तुम मुझे अगर चुनोगे तो मुझे कोई उज्र नहीं…मैं तुम्हें यहीं इंतजार करती मिलूंगी।’ इसके जवाब में इमरोज ने उस कमरे के सात चक्कर लगाए और कहा- ‘हो गया अब तो…’ इमरोज के लिए अमृता का आसपास ही उनकी पूरी दुनिया थी। अमृता बचपन से बेचेहरा देखे जानेवाले जिस सपने के पुरुष की खोज में पूरी उम्र भटकती रहीं, वह शक्ल इमरोज के सिवा और किसी की हो ही नहीं सकती थी। और कौन हो सकता था जिसके दिल में अमृता के लिए इतनी मुहब्बत हो सकती थी? इस दुनिया से जाते-जाते अमृता यह सच समझ चुकी थीं, इसीलिए उनकी अंतिम नज्म ‘मैं तुम्हें फिर मिलूंगी’ इमरोज के नाम थी, केवल इमरोज के लिए।

साहिर वह शख्स नहीं थे। उतनी हिम्मत नहीं थी उनके दिल में या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो प्यार। प्यार हमेशा हमें हिम्मत की उंगलियां पकड़कर चलना सिखाता है। अगर लोग यह कहते हैं कि अमृता का यह प्यार इकतरफा था तो यह कोई गफलत वाली बात भी नहीं। साहिर के लिए यह प्यार एक मुकाम जैसा था, और अमृता के लिए उनकी पूरी जिन्दगी की रसद और उसकी मंजिल जैसा। यह प्यार-प्यार के बीच का फर्क था। दो दृष्टियों और जीवनशैलियों का या फिर कह लें तो दो व्यक्तित्वों के बीच का फर्क भी। कुछ लोग इस प्रेम कहानी का खलनायक साहिर की मां को मानते हैं, कुछ लोग अमृता के पिता और पति को। कुछ के लिए यह दीवार मजहब की थी। अमृता की मानें तो खलनायक का वह काम उन दोनों की चुप्पी और उनके लिखने की भाषाओं के बीच के उस अंतर ने किया। हालांकि यह बात बहुत तर्कसम्मत नहीं जान पड़ती।यह सब जानते हैं कि अमृता पंजाबी में लिखा करती थीं और साहिर उर्दू में, लेकिन उर्दू में लिखने के बावजूद पंजाबी उनकी मातृभाषा थी.श।

कुछ भी कह लें इस रिश्ते के अधूरेपन में कमी उस शदीदियत की थी, जो किसी भी रिश्ते को पूरा करने या फिर होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। अमृता की आत्मकथा से गुजरते हुए यह साफ़ लगता है कि वह कमजोर कड़ी वे नहीं थीं। अपनी जिन्दगी और अपने प्यार से जुड़े अनुभवों को गीतों में ढालने में माहिर साहिर ने तो बड़ी सादगी से यह लिख दिया कि – ‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है।’ या कि – ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों’। पर यह अजनबी बन जाना अमृता के लिए कभी आसान नहीं रहा।

साहिर के लिए प्रेम बहुत आगे चलकर सबके लिए यानी सामाजिक इंकलाब की राह बनता है, वहीं अमृता के लिए उनकी मोहब्बत ही उनका इंकलाब रही। छोटी सी उम्र में तय की गई मंगनी का ब्याह में बदलना। फिर दो बच्चे होने के बाद उस ब्याह से, उस अकहे प्रेम के लिए निकल पड़ना, कोई आसान तो नहीं रहा होगा। पर कोई आसान राह अमृता ने कभी चुनी ही नहीं।वह चाहे बनी बनाई गृहस्थी से निकल आना हो, या फिर अपनी पूरी जिंदगी ब्याह के बगैर इमरोज के साथ बिता जाना।

लिव-इन की जिस परिपाटी को आज हम फलता फूलता पा रहे हैं, अमृता ने इसकी नींव 1966 में ही रख दी थी। तब उनकी जगहंसाई तो होनी ही थी, पर इससे उनके रिश्ते पर कभी न कोई फर्क आना था न आया। और न ही उनकी जिंदगी पर इसका कभी कोई असर रहा। साहिर और इमरोज से अपने रिश्ते को बयान करती हुई अमृता कहती हैं – ‘साहिर मेरी जिन्दगी के लिए आसमान हैं, और इमरोज मेरे घर की छत।’ इमरोज से बेपनाह प्यार के बावजूद भी वे अगर साहिर से अपने प्यार को भूल नहीं सकीं तो बस इसलिए कि स्त्रियां अपने हिस्से के सुख-दुख और पहले प्यार को कभी पूर्णत: विदा नहीं कर पाती। एक यह भी कारण हो सकता है कि अपने लाख बगावती तेवर के बावजूद वे अपनी पहली शादी से मिले पति के नाम प्रीतम, यानी प्रीतम कौर के प्रीतम को जिन्दगी भर साथ लेकर चलती रहीं।

अगर प्यार कोई शब्द है तो अमृता ने उसे अपनी कलम की स्याही में बसा लिया था। अगर वह कोई स्वर है तो वह अमृता के जीवन का स्थाई सुर रहा। जिस तरह अमृता ने इमरोज के लिए यह कहा कि अगर स्वाधीनता दिवस किसी इंसान की शक्ल ले सकता है, तो वह तुम हो। ठीक उसी तरह प्रेम अगर किसी इंसान की शक्ल में आए तो उसकी शक्ल अमृता जैसी होगी याकि होती।

कविता
कविता
कविता जन्म: 15 अगस्त, मुज़फ्फरपुर (बिहार)। पिछले ढाई दशकों से कहानी की दुनिया में सतत सक्रिय कविता स्त्री जीवन के बारीक रेशों से बुनी स्वप्न और प्रतिरोध की सकारात्मक कहानियों के लिए जानी जाती हैं। नौ कहानी-संग्रह - 'मेरी नाप के कपड़े', 'उलटबांसी', 'नदी जो अब भी बहती है', 'आवाज़ों वाली गली', ‘क से कहानी घ से घर’, ‘उस गोलार्द्ध से’, 'गौरतलब कहानियाँ', 'मैं और मेरी कहानियाँ' तथा ‘माई री’ और दो उपन्यास 'मेरा पता कोई और है' तथा 'ये दिये रात की ज़रूरत थे' प्रकाशित। 'मैं हंस नहीं पढ़ता', 'वह सुबह कभी तो आयेगी' (लेख), 'जवाब दो विक्रमादित्य' (साक्षात्कार) तथा 'अब वे वहां नहीं रहते' (राजेन्द्र यादव का मोहन राकेश, कमलेश्वर और नामवर सिंह के साथ पत्र-व्यवहार) का संपादन। रचनात्मक लेखन के साथ स्त्री विषयक लेख, कथा-समीक्षा, रंग-समीक्षा आदि का निरंतर लेखन। बिहार सरकार द्वारा युवा लेखन पुरस्कार, अमृत लाल नागर कहानी पुरस्कार, स्पंदन कृति सम्मान और बिहार राजभाषा परिषद द्वारा विद्यापति सम्मान से सम्मानित। कुछ कहानियां अंग्रेज़ी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में अनूदित।
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