Saturday, December 6, 2025
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अनिकेतः लतिकाजी और रेणुजी का राजेंद्र नगर वाला घर-  ये घर बहुत हसीन है…

लेखक हमेशा से अनिकेत होते हैं। उनका कोई एक निश्चित घर नहीं होता और सारी दुनिया उनके लिए उनका घर होती है। फिर भी वो कोई एक ठौर तो होता ही है जीवन में, जहां वे जीते हैं, लिखते हैं, जहां उनका मन रमता है। लेखक भले चले जाये दुनिया से, सचमुच के अनिकेत हो जायें पर वह घर बना रहता है उनके होने की गवाही देते हुये। लेखकों के बगैर और लेखकों के बाद उनके इन्हीं घरों की कहानी है ‘अनिकेत’।
हिंदी के प्रख्यात कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु अमूमन 20 साल से अधिक पटना में स्थाई रूप से रहे। इसमें उनका ज्यादातर वक्त राजेंद्र नगर के वैशाली गोलंबर के पास स्थित उस फ्लैट में गुजरा जहां बाद के दिनों में लतिका जी ने अकेले अपना जीवन गुजारा। जहां उनसे मिलने अज्ञेय समेत कई बड़े लेखक रचनाकार आते थे। ये घर सिर्फ लतिका-रेणु के प्यार के स्मृतियों से ही नहीं पगी हुई है, यहां एक लेखक के जीवन-चिन्हों के अवशेष भी बिखरे पड़े हैं, जिन्हें संजोये और संवारे जाने की जरूरत है-

हिंदी के कथा साहित्य के सबसे चमकीले सितारों में से एक फणीश्वरनाथ रेणु के घर का जब भी जिक्र आता है, तो सहज ही उनके गांव औराही हिंगना की वह फूस की झोपड़ी ख्यालों में जगमगा उठती है, जिसे आज तक उनके पुत्रों ने किसी जिंदा संग्रहालय की तरह सहेजकर रखा है। उसकी तो अलग ही बात है। चूंकि रेणु को ग्रामीण जीवन का चितेरा कहा जाता है, ऐसे में वह घर सहज ही उनकी छवि से मेल खा जाता है। इसी वजह से उनको पसंद करने वाले, उनके प्रशंसक और शोधार्थी सबसे पहले दौड़कर औराही हिंगना ही पहुंचते हैं, जिसका नाम अब रेणु ग्राम है।

मगर उनका एक और घर है, जहां उन्होंने अपने रचनात्मक जीवन के दो दशक गुजारे। वह घर जो उनके प्रेम की बुनियाद पर किसी घोसले की तरह तैयार हुआ, सजा-संवरा। जहां वे और उनकी आखिरी प्रेमिका और तीसरी पत्नी लतिका रायचौधुरी और उन दोनों का प्यारा श्वान नौमी रहा करते थे। उनके मित्र, सखा, साहित्यिक दुनिया के बड़े लेखक उनसे मिलने आया और उनके साथ ठहरा करते थे। जहां रहते हुए उन्होंने अपनी ज्यादातर अमर कहानियां और कई बड़े उपन्यासों की रचना की और जहां रहते हुए उन्होंने संभवतः अपने जीवन के सबसे स्थिर, सुकून और प्रेम की विलासिता से भरे जीवन को जिया। वह उनका पटना वाला घर है। उस घर पर अमूमन कम लोगों का ही ध्यान जाता है।

यह घर पटना शहर की सबसे पुरानी हाउसिंग कॉलोनियों में से एक का हिस्सा है। राजेंद्रनगर मोहल्ले के वैशाली गोलंबर के पास स्थित इस बेनाम हाउसिंग कॉलोनी के ब्लॉक संख्या दो के तीस बी नंबर फ्लैट के सामने आज भी एक बोर्ड लगा है, जिस पर आज भी उनके नाम की एक पतली सी तख्ती लगी है। हालांकि अब इस घर में उनकी यादों और उनके इस्तेमाल किये सामानों के सिवा और कोई नहीं रहता। रेणु 1977 में गुजर गये, लतिका रायचौधुरी 2009 तक इस फ्लैट में रहीं, नौमी पहले ही गुजर गया था। रेणु की छोटी बेटी नवनीता जो पटना में ही अपने मकान में रहती हैं, वही इस फ्लैट की और रेणु की स्मृतियों की देखरेख करती हैं। अगर आप इस फ्लैट में जाकर इसे देखना चाहें और रेणु की स्मृतियों के बीच कुछ सांसें लेने की कामना रखते हो तो आपको नवनीता जी से ही आग्रह करना होगा।

अगर उन्होंने आपका आग्रह स्वीकार कर लिया तो किसी फुरसत के दिन वे आपको वक्त देंगी। आएंगी। घर का ताला खोलकर दो कमरे, एक हॉल, एक स्टोर, किचेन, बाथरूम आदि को दिखा देंगी। अगर उनका मन आपकी श्रद्धा से खुश हो गया तो वे बक्से और अलमीरा से निकाल कर अपने पिता रेणु के पुराने कपड़े, चश्मे, नेलकटर, कोट, मफलर, चाय की प्यालियां, लुंगी, गमछा, जैकेट, मोजे सब दिखा देंगी और बतायेंगी भी कि इसी कुरते को पहन कर रेणु संपूर्ण क्रांति आंदोलन में भाग लेने गये थे, जब उन पर लाठियां पड़ीं और खून से लथपथ वे घर लौटे थे। कुरते पर आज भी खून के धब्बे पड़े हैं।

वे आपको उन कुरसियों और टेबुलों के बारे में भी बतायेंगी, जिन्हें कभी रेणु ने इस्तेमाल किया था। वह पुराना पलंग, सिंगारदान, दीवारों पर टंगी तसवीरें. वे सब आपको दिखा देंगे। कई किस्से सुनायेंगी। फिर उदास होकर इस फ्लैट के टूट रहे पलस्तरों और कमजोर दीवारों के बारे में बतायेंगी और कहेंगी कि इन सब को ठीक कराना जरूरी है, मगर उनके या उनके भाईयों के पास इतने पैसे कहां कि इन्हें ठीक करा सकें। रेणु सिर्फ उनके पिता तो नहीं थे, वे तो देश की धरोहर थे। ऐसे में सरकारों को सोचना चाहिए कि इन चीजों को कैसे बचाकर रखें। वे बताएंगी कि सितंबर, 2020 में एक चोर ने इस फ्लैट में घुसकर रेणु की कुछ किताबें और पांडुलिपियां चुरा लीं। तब से थोड़ी सतर्कता बरती जा रही है। सारी दुर्लभ चीजें एक कमरे में बंद कर दी गई हैं।

वे कहेंगी कि घर को बचाना फिर भी आसान है, मगर उनके कपड़ों और इस्तेमाल की गई चीजों को लंबे समय तक सुरक्षित रखना बहुत मुश्किल काम है। वे अक्सर आकर इन्हें धूप लगाती हैं, तब जाकर ये बचे हुए हैं। अब सरकार को इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। 

सचमुच सरकार को इस धरोहर के संरक्षित करने के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए अगर यूरोप में वहां के लेखकों, रचनाकारों की चीजें आज भी उनके घरों में संरक्षित हैं और सौ-दो सौ साल बाद भी हम आप जाकर उन्हें देखते और उनके अस्तित्व को महसूस करते हैं तो यह काम अपने यहां क्यों नहीं हो सकता?

खैर, यह तो इस घर के आज का हाल है। अगर आप इस घर को तब के हाल में समझना चाहते हैं, जब रेणु यहां रहा करते थे तो आप उनकी अप्रतिम रचना, उनके आखिरी चर्चित रिपोर्ताज पटना-जलप्रलय को पढ़ें। इसमें इस फ्लैट के बारे में विस्तार से लिखा है। यह पटना शहर में 1975 में आई भीषण बाढ़ का आंखों देखा हाल है, जो 26 अक्तूबर, 1975 को दिनमान में छपा और फिर उनके रिपोर्ताज संग्रह समय की शिला पर में।

दरअसल रेणु इस फ्लैट में रहने 1958 से 60 के बीच कभी आये थे। उस वक्त ‘मैला आंचल’ की चकित कर देने वाली सफलता की वजह से वे हिंदी साहित्य के स्टार हो चुके थे। उन्हें उनके दूसरे उपन्यास ‘परती परिकथा’ को लिखने के लिए राजकमल प्रकाशन के तब के संचालक ओमप्रकाश जी ने इलाहाबाद में एक घर दिया था, ताकि वे तसल्ली से उस उपन्यास को लिख सकें। 1957 में जब परती परिकथा छप गई तो वे अपने गांव लौट गये। उनके साथ लतिका रायचौधुरी भी औराही हिंगना गईं मगर वे वहां रह नहीं पाईं। पटना लौट आईं।

इस बीच 1959 में उन्हें पटना आकाशवाणी में नौकरी मिली तो वे पटना लौट आये। 1957 से 1959 के बीच ही कभी राजेंद्र नगर वाला वह फ्लैट रेणु और लतिका ने अपने बचाये पैसों से खरीदा। रेणु ने दो साल तक पटना आकाशवाणी में स्पेशल प्रोड्यूसर की नौकरी की मगर उस नौकरी में उनका मन नहीं रमा। वे अलग हो गये। मगर राजेंद्र नगर वाले उस फ्लैट में वे ताउम्र रहे। बीच-बीच में गांव जाकर भी रहते रहे, मगर उनका स्थाई ठिकाना 30-बी, ब्लॉक2, राजेंद्र नगर हाउसिंग कॉलोनी ही रहा।

उस फ्लैट में उन्हें अपने जीवन में पहली बार चैन का जीवन जीने का मौका मिला। वे शौकीन तो थे ही मगर गरीबी के कारण जो शौक पहले पूरे नहीं हो पाते वे यहां रहते हुए उन्होंने पूरे किये।

उनके करीबी मित्र रामवचन राय ने पटना और उस फ्लैट के रेणु के जीवन का बड़ा रोचक वर्णन अपने एक संस्मरण में किया है। वे लिखते हैं, “पटना में रेणुजी के होने का मतलब कॉफी हाउस में होना होता था। कॉफी हाउस का रेणु कार्नर जाड़ा, गर्मी, बरसात हर मौसम में आबाद रहता था। उनके अनुपस्थित होने का मतलब था, पटना से बाहर होना या बीमार होना। एक निश्चित रूटीन थी, जिस पर मौसम का कोई असर नहीं होता था। हम दोनों के बीच एक अलिखित समझौता था। मैं नियमपूर्वक छह बजते-बजते उनके घर पहुंचता। कभी वे बाल काढ़ते मिलते और कभी तैयार होकर प्रतीक्षा करते हुए। फ्लैट से बाहर आते ही दो-तीन कुत्ते अपनी संततियों सहित उन्हें घेर लेते। रेणु जी चाय की दुकान से बिस्किट खरीद कर उन्हें खिलाते फिर आगे बढ़ते। गोलंबर के पास वे रिक्शा लेते और वह रिक्शा रात तक उनके साथ रहता। वहां के सभी रिक्शा वाले उनके परिचित थे, वे सबका हालचाल लेते रहते थे।”

लेख में आगे जिक्र है, “कॉफी हाउस से लौटने के रास्ते में कई पड़ाव थे। डी लाल की दुकान में सिगरेट, साबुन, बिस्किट या अगरबत्ती कुछ न कुछ खरीदते। फिर पिंटू होटल से रसगुल्ला और संदेश खरीदकर गांधी मैदान होते हुए हथुआ मार्केट पहुंचते। फिर वे विश्वनाथ के यहां कोकाकोला पीते और पान खाते। फिर राजेंद्र नगर चौराहे पर कृष्णा के यहां से अखबार और मैगजीन लेकर नौ साढ़े नौ बजे तक घर पहुंचते। लतिका जी प्रतीक्षा में रहतीं. दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनकर पूछतीं, के? और इधर से जवाब मिलता ‘आमरा’।”   

इसी फ्लैट में रहते हुए उनका सबसे चर्चित कथा संग्रह ‘ठुमरी’ छपा। जुलूस, कितने चौराहे और पलटू बाबू रोड जैसे उपन्यास लिखे गये और लिखे गये ‘आदिम रात्रि की महक, अगिनखोर, एक श्रावणी दोपहरी की धूप और अच्छे आदमी जैसे कथा संग्रह। यहां रहते हुए उनके पास अपनी कहानी ‘तीसरी कसम’ को फिल्म में ढालने का प्रस्ताव मिला और फिल्म बनी। उन्होंने स्क्रीन राइटिंग का कोर्स किया और इस विधा में भी हाथ आजमाया। उस कोर्स का प्रमाणपत्र भी उनके घर की दीवार पर टंगा है।

वे जब आखिरी बार बीमार हुए और सर्जरी के लिए पीएमसीएच में भर्ती हुए तो भी इसी घर से उनकी डोर बंधी थी और जब उन्होंने आखिरी तौर पर इस दुनिया को विदा किया तो इसी घर से उन्हें विदाई भी दी गई। वे तसवीरें भी राजेंद्र नगर वाले इस फ्लैट में मौजूद हैं। 

इनके अलावा उस घर में लतिका रायचौधुरी का पूजा का कोना भी है, जिससे उनके धार्मिक और तंत्र के प्रति लगाव के संकेत भी मिलते हैं। रेणु के जाने के बाद लगभग 32 साल वे उसी घर में रहीं। उम्र ने जब शरीर को कमजोर किया तो रेणु के पुत्र जो उनकी दूसरी पत्नी के बच्चे थे, अपनी छोटी मां को लेकर औराही हिंगना चले गये। लतिका ने अपने जीवन के आखिरी दो साल रेणु के उस भरे पूरे परिवार के साथ गांव में रहते हुए गुजारे, जो आज भी उनकी विरासत को संभाल रहे हैं।

कभी का बहुत सुकूनदेह और सुंदर रहा राजेंद्र नगर वाला यह फ्लैट आज सूना जरूर है। मगर इस फ्लैट में ऐसी दर्जनों निशानियां हैं, जो जिंदादिल रेणु की धड़कती सांसों को महसूस कराने में सक्षम हैं। लतिका और रेणु के प्रेमिल गृहस्थी की भी यहां हजारहां निशानियां हैं।  काश… सरकार इन निशानियों की उम्र लंबी करने के बारे में भी जरा सोचे!

अजातशत्रु
अजातशत्रु
लेखक का परिचय- लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।
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