विश्व साहित्य के कान में लास्लो क्रास्नाहोरकाई की आवाज़ लम्बे समय से उस मसीहा की तरह गूँज रही है, जो फुसफुसाते हुए सर्वनाश की चेतावनी देता है। उन्हें नोबेल पुरस्कार दिये जाने का समाचार किसी आश्चर्य की तरह नहीं, बल्कि एक प्रतीक्षा के पूर्ण होने की तरह देखा जा रहा है। अस्तित्व से उपजी मानवीय निराशा के विशाल ऊसर में क्रास्नाहोरकाई के वाक्य एक अंतहीन सर्प की तरह रेंगते हैं और राजनीतिक यातनाओं की मनोवैज्ञानिक माया का रहस्योद्घाटन करते हैं। वह 21वीं सदी के उन महान रचनाकारों में हैं, जिन्होंने कथा-कहन के ढब को चुनौती दी है; जिनका लेखन पूरी ज़िद के साथ हमें यह याद दिलाता है कि साहित्य का उद्देश्य समस्याओं के सुपाच्य समाधान में नहीं, बल्कि भावनात्मक उथल-पुथल के दौर में प्रश्न का परचम बुलंद करने और अभिशाप-जैसी अर्थहीनता के बीच अर्थ की निरंतर खोज करने में है।
क्रास्नाहोरकाई का जन्म 5 जनवरी 1954 को दक्षिण-पूर्वी हंगरी के एक छोटे-से क़स्बे ग्यूला में हुआ। उनके पिता वकील थे। घर का माहौल बौद्धिक था, इसलिए किताबों के साथ उनका परिचय अपेक्षाकृत जल्दी हुआ। हंगारी अनुवाद के माध्यम से उन्होंने महान रूसी साहित्य पढ़ा, जिसने उनकी साहित्यिक सोच को आरंभिक आकार दिया। उस समय हंगरी सहित पूर्वी यूरोप के कई देशों पर कम्युनिस्ट शासन था। सोवियत संघ का महान और कुख्यात ‘आयरन कर्टन’ या लौह-परदा न केवल देशों पर तना हुआ था, बल्कि मनुष्यों के बीच भी। जॉंच-पड़ताल, शको-शुबहा और जासूसी का दौर था, जिसकी चपेट में कभी भी कोई भी आ सकता था। इसलिए, हंगरी के आम निवासियों के बीच निरंतर भय पसरा रहता, जिसने वहाँ के माहौल को दमघोंटू बना दिया था। क्रास्नाहोरकाई ने क़ानून और साहित्य की पढ़ाई की, और संपादक के रूप में काम करने लगे, लेकिन दमनकारी साम्यवादी शासन ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पंगु कर दिया था और रचनात्मक उपक्रमों पर कठोर सेंसरशिप लागू थी। अत्याचारी राजनीतिक व्यवस्था तले महसूस होने वाली अस्तित्ववादी घुटन ने क्रास्नाहोरकाई को लेखन की ओर प्रवृत्त किया। 1985 में उन्होंने अपना पहला उपन्यास लिखा – ‘सातानटैंगो’, जो उनका सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना जाता है। हंगरी के महान फिल्मकार बेला तार ने उस पर सात घंटे लम्बी एक फिल्म बनाई, जिसे क्लासिक का दर्जा प्राप्त हुआ। हंगरी के बाहर की दुनिया का ‘सातानटैंगो’ की कथा-भूमि और क्रास्नाहोरकाई की अतुलनीय प्रतिभा के साथ परिचय बेला तार के इसी मास्टरपीस के ज़रिए हुआ। क्रास्नाहोरकाई अपने गद्य में जिस तरह लम्बे वाक्यों का प्रयोग करते हैं, बेला तार ने अपने फिल्मांकन में उसी तरह लम्बे दृश्यों का प्रयोग किया है।
क्रास्नाहोरकाई को पढ़ते समय जिस पहली चीज़ पर ध्यान जाता है, वह है उनके लम्बे वाक्य। साधारण लम्बाई नहीं, बल्कि एक पेज, दो पेज, दस पेज, बीस पेज लम्बे वाक्य। कभी-कभी तीस पन्नों के बाद पैराग्राफ़ बदलता है। लम्बे वाक्य, क्रास्नाहोरकाई का सिग्नेचर है। लम्बे वाक्यों में अपनी हंगारी भाषा का वह इतना रचनात्मक इस्तेमाल करते हैं कि भाषा की उनकी शैली को ‘क्रास्नाहोरकाई हंगारी’ कहा जाने लगा है। एक पुराने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, जब कोई मेरी भाषा को अंग्रेज़ी में अनुवाद करता है, तो उसे इसके लिए एक ख़ास किस्म की ‘क्रास्नाहोरकाई अंग्रेज़ी’ढालनी पड़ती है।
उन्हें पढ़ते समय मन में यह सवाल गूँजता है कि वह आख़िर इतने लम्बे वाक्य क्यों लिखते हैं? एक पुराने साक्षात्कार में वह कहते हैं कि उन्होंने ऐसा जान-बूझकर नहीं किया था। ऐसा होता चला गया और फिर, होता ही चला गया। उनका अपना फलसफा है। उनके अनुसार, आम बोलचाल में लोग छोटे वाक्यों का कम ही प्रयोग करते हैं। जब कोई, किसी को अपनी बात समझाना चाहता है, तो बस कहता जाता है, कहता जाता है। वह बोलचाल में विराम-चिह्नों का प्रयोग नहीं करता। उसके बोलने में एक लय होती है, एक संगीत होता है। क्रास्नाहोरकाई अपने गद्य में उसी लय और संगीत को पकड़ते हैं। जिस तरह उनके वाक्य इतिहास और नियति की अटल शक्तियों के आगे समर्पण करते हैं, पाठक उनके कठिन गद्य के मर्मस्पर्शी सांगीतिक प्रवाह के आगे समर्पण करता है।
क्रास्नाहोरकाई की शैली का यह चयन कोई गिमिक नहीं है, बल्कि आगे चलकर यह एक सोची-समझी दार्शनिकता में तब्दील हो जाता है। क्रास्नाहोरकाई, नीत्शे, काफ़्का और बेकेट जैसे लेखकों से प्रभावित रहे हैं। प्रूस्त, थॉमस बर्नहार्ड, डब्ल्यू. जी. ज़ेबाल्ड जैसे लेखक उनके आत्मिक-आध्यात्मिक बंधु रहे हैं। उन्हीं की तरह वह भाषा को एक उपकरण की तरह बरतते हैं, जिससे अस्तित्व की विसंगतियों को उजागर किया जा सके।
2025 में क्रास्नाहोरकाई को नोबेल पुरस्कार मिलने के प्रासंगिक अर्थ क्या हो सकते हैं? हम एक ऐसी सदी में जी रहे हैं, जिसमें सुपाच्य पठनीयता का आग्रह किया जाता है। पिछली सदियों में पठनीयता एक गुण की तरह देखी जाती थी और पठनीय गद्य में वैचारिक प्रश्नों को उठाया जाता था। हमारी सदी में, ख़ासकर मीडिया के वैचारिक पतन और सोशल मीडिया के उच्छृंशल उछाल के युग में, सुपाच्य पठनीयता का आग्रह, लेखन के गुण से अधिक, बाज़ार की मॉंग से संचालित होने वाले एक दुराग्रह की तरह देखा जा सकता है। इंटरनेट पर एक निश्चित शब्द-सीमा में हमें अपनी बात को असरदार तरह से कह देना है, वरना हमारा पाठक स्क्रॉल करके किसी और टेक्स्ट पर चला जाएगा। शुरुआती पन्नों में ही हमें पाठक के ध्यान को पकड़ लेना है, वरना वह किताब को नहीं उठाएगा। सुपाच्य पठनीयता के इस फेसबुकिए-इंस्टाग्रामिए-रीलनुमा-वीडियोनुमा-विज्ञापन फिल्म टाइप आग्रह ने साहित्य की कलात्मक गहराई को चुनौती दी है, और कई स्थानों पर पराभूत भी किया है। एक लोकप्रियतावादी आग्रह हर तरफ़ गूँज रहा है। ऐसे में क्रास्नाहोरकाई को मिले नोबेल पुरस्कार को वर्तमान वातावरण में दर्ज एक प्रतिरोध की तरह भी देखा जाना चाहिए। नोबेल समिति ने अपनी औपचारिक घोषणा में कहा है कि क्रास्नाहोरकाई को यह पुरस्कार ‘सर्वनाशी भय के बीच कला की शक्ति को पुनर्स्थापित’ करने के लिए दिया गया है। क्रास्नाहोरकाई का गद्य लोकप्रियतावादी आग्रहों के आगे झुकता नहीं है। वह विराम लगाने, समाधान करने और सरलीकरण का भी प्रतिकार करता है। जिसे कला की सोशल कंडीशनिंग यानी सामाजिक अनुकूलन कहा जा सकता है, क्रास्नाहोरकाई का गद्य हर उस आग्रह और आदत को मानने से इंकार कर देता है। विज्ञापन फिल्मों के व्याकरण से संचालित बाज़ार कहता है कि छोटे, चुटीले, सरल, सुपाच्य वाक्यों का प्रयोग करो, क्रास्नाहोरकाई का गद्य इससे इंकार करता है और एक ऐसा एकालाप प्रस्तुत करता है, जो बिना किसी पूर्ण विराम के चार सौ पेज लम्बा वाक्य रच देता है। उनका नया उपन्यास ‘हर्स्ट 07769’ चार सौ पन्नों का है, जो एक वाक्य में लिखा गया है। पहने पन्ने पर शुरू हुआ वाक्य चार सौ पन्नों के बाद पूर्ण विराम में विसर्जित होता है। आज के दौर में ऐसे गद्य को अंतत: प्रतिरोध का दुस्साहसिक कृत्य क्यों न माना जाए?
अधिनायकवाद ने ऐतिहासिक तौर पर अमानवीयता को एक अस्त्र की तरह प्रयुक्त किया था और उसके आगे एक अकेले व्यक्ति का प्रतिरोध लगातार कमज़ोर पड़ता दिखा था। यह अधिनायकवाद के वैश्विक पुनरुत्थान का दौर है। पुतिन के रूस से लेकर ओर्बन के हंगरी तक, पश्चिम में लोकतंत्र के क्षरण से लेकर जलवायु संकट तक की पृष्ठभूमि में क्रास्नाहोरकाई के उपन्यासों में एक सर्वनाशी बरसात दिखती है, जो हमारे समय की बारीकियों को अद्भुत पूर्वाभास की तरह व्यक्त करती है।
‘सातानटैंगो’ (शैतान का टैंगो अथवा शैतान का नृत्य) एक पुराने हंगारी गॉंव की कहानी कहता है, जहॉं महीनों लम्बी बारिश और कीचड़ के बीच लोग मुश्किल से भरा जीवन जीते हैं। उसमें शैतान जैसा एक चरित्र है, इरिमियास, जो गॉंव में लोगों को बेहतर ज़िन्दगी का सपना दिखाता है, लेकिन ऐसा करते हुए वह उन्हें और फँसाता है, उनके जीवन को दुष्कर बनाता जाता है। कहानी का पूरा ढॉंचा वृत्ताकार है। टैंगो नृत्य की तरह। कुछ क़दम आगे, कुछ क़दम पीछे। ‘हर्स्ट 07769’ एक नव-नात्सी की कहानी है, जिसे लगता है कि जल्द ही ब्रह्मांड का विनाश होने वाला है और वह जर्मन चांसलर को एकतरफ़ा पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत कराता है। पत्र के अंत में वह अपना सरनेम हर्स्ट और अपना पिन कोड 07769 लिखता है, और कुछ नहीं। एक अंतहीन वाक्य की तरह यह उपन्यास नायक के बिखरते मन के माध्यम से सत्ता, अशांति और दुनिया की एब्सर्डिटी को संबोधित एक डार्क ह्यूमर है। नव-नात्सीवाद, महामारी से उपजा अकेलापन और संसार के सर्वनाश के भय के बीच यह उपन्यास यह रेखांकित करता है कि सच्ची कला, भय के विरुद्ध उम्मीद जगाती है। यह एक ऐसा गुण है, जो क्रास्नाहोरकाई की किताबों में टेक की तरह बजता है। और यह सुंदर भी है कि नोबेल समिति ने अपनी शस्ति में उनके इस गुण को विशेष रूप से अंकित किया है। नोबेल पुरस्कार, क्रास्नाहोरकाई की कलात्मक यात्रा का उपसंहार नहीं, बल्कि एक स्पॉटलाइट है, जिसके तले उनके कल-कल बहते गद्य का नाद देर तक गूँजेगा, धड़कते हुए प्रतिरोध के साथ ‘टैंगो’ नृत्य करते हुए।