लद्दाख में नेतृत्व का एक वर्ग एक अतिरिक्त लोकसभा सीट बनाने को लेकर दबाव बना रहा है, ताकि कारगिल और लेह जिलों में एक-एक सीट हो। यह एक असंभव सी मांग है जिसे केंद्र स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि 84वें संविधान संशोधन के कारण पूरे देश में नए परिसीमन पर रोक है। केंद्र इस मांग के आगे झुकने का जोखिम नहीं उठा सकता, भले ही वह इस मुद्दे पर लद्दाख के नेताओं के साथ बातचीत का दिखावा करता रहे।
संयोग से 6 अक्टूबर (सोमवार, आज) लद्दाख के नेताओं और केंद्र के नामित अधिकारियों के बीच वार्ता निर्धारित थी। हालाँकि, ऐसा लगता नहीं है कि कोई बातचीत होगी क्योंकि दोनों पक्षों ने अपने रुख को कड़ा कर लिया है। 24 सितंबर की हिंसा ने वार्ताकारों के बीच कटुता पैदा कर दी है। कोई भी सार्थक बातचीत अभी मुश्किल लगती है और इसकी सफलता की संभावना लद्दाख की सर्दियों जितनी ही निराशाजनक हो सकती है।
आमतौर पर, शिया-बहुल कारगिल और बौद्ध-बहुल लेह जिले के नेतृत्व ज्यादातर मुद्दों पर सहमत नहीं होते। उनका दुनिया को देखने का तरीका और राजनीतिक विकल्प बिल्कुल अलग हैं। हालाँकि, लेह एपेक्स बॉडी (एलएबी) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) इन दिनों दूध और शहद की तरह एक-दूसरे के साथ हैं। वे केंद्र के खिलाफ एक-दूसरे का समर्थन कर रहे हैं। 1947 से लेकर आज तक कारगिल और लेह कभी एक साथ नहीं चले, बल्कि ज्यादातर मामलों में- लोकाचार और राजनीति में, दोनों का व्यवहार अलग-अलग रहा है।
साल 2002 में लद्दाख बौद्ध संघ (एलबीए) ने लेह में अपने मोर्चे लद्दाख यूनियर टेरिटरी फ्रंट (एलयूटीएफ) की सर्वोच्चता सुनिश्चित की। इसने नवांग रिग्जिन जोरा को लेह से और सोनम नोरबू को नुब्रा से विधायक के रूप में नामित किया और किसी अन्य उम्मीदवार ने पर्चा नहीं भरा, जिससे उनका निर्विरोध निर्वाचन सुनिश्चित हो गया। कारगिल में LUTF की याचिका नहीं चली और हाजी निसार अली निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीते, जबकि जांस्कर से नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के मोहम्मद अब्बास जीते। जोरा ने लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते हैं, इसमें 2008 और 2014 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में जीत शामिल हैं।
लद्दाख में क्या दो सांसद संभव हैं?
वर्तमान में लद्दाख में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों की मुख्य मांगों में से एक दो जिलों के लिए दो लोकसभा सीटों को लेकर है, एक कारगिल के लिए और एक लेह के लिए। पिछले अधिकांश लोकसभा चुनावों में दोनों जिलों के उम्मीदवारों के बीच खींचतान रही है। कारगिल जिले ने लगभग हमेशा जिले से एक शिया का समर्थन किया है जबकि लेह एक बौद्ध की ओर आकर्षित होता है।
लेह लोकसभा सीट 2024 में कांग्रेस को आवंटित की गई थी और लेह के एक बौद्ध त्सेरिंग नामग्याल इसके उम्मीदवार बने। भाजपा ने लेह जिले के ही ताशी ग्यालसन को मैदान में उतारा, जो नामग्याल की तरह एक और बौद्ध हैं।
वहीं, कारगिल के शिया नेतृत्व ने कांग्रेस को सीट देने के नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के इस फैसले के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। बहरहाल, बौद्ध उम्मीदवारों के खिलाफ लद्दाख के मुस्लिमों के एक साथ आ गए और निर्दलीय मोहम्मद हनीफा ने जीत हासिल की जिन्हें लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय जिला परिषद (एलएएचडीसी) के पार्षद चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
2019 में भाजपा उम्मीदवार जेटी नामग्याल ने लेह लोकसभा सीट पर जीत हासिल की। 2014 में भी भाजपा ने यह सीट जीती थी, लेकिन तब उसके उम्मीदवार थुपस्तान छेवांग थे, जिन्होंने सिर्फ 36 वोटों के अंतर से जीत मिली थी। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा से इस्तीफा देने वाले छेवांग आज मौजूदा लद्दाख आंदोलन के सबसे बड़े चेहरों में से एक हैं।
84वां संशोधन क्या है?
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते 2001 में पारित 84वें संविधान संशोधन के तहत परिसीमन पर संवैधानिक रोक को बढ़ा दिया गया था। इस तरह, लोकसभा सीटों की संख्या नहीं बढ़ाई जा सकती। यह 2026 के बाद पहली जनगणना तक लागू है। इसका उद्देश्य था कि वे राज्य मुश्किल में नहीं पड़े जिन्होंने अपनी जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित किया था। इस संशोधन का उद्देश्य लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में मौजूदा जनसंख्या-आधारित प्रतिनिधित्व को बनाए रखना था और जनसंख्या नियंत्रण उपायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व को प्रभावित किए बगैर जारी रखने देना था।
इस प्रकार, लद्दाख क्षेत्र में लोकसभा सांसदों की संख्या में वृद्धि संभव नहीं है, जैसा कि कारगिल और लेह के नेता मांग कर रहे हैं। विधायिका के साथ राज्य का दर्जा देने की अव्यावहारिक मांग की तरह, दो सांसदों की मांग भी ऐसी प्रतीत होती है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लद्दाख के लिए राज्य का दर्जा क्यों संभव नहीं है, इस पर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है।
इस बहस के बीच पड़ोसी केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर से तुलना करना दिलचस्प लगता है। जम्मू और कश्मीर में 20 जिले और पाँच लोकसभा सांसद हैं, यानी चार जिलों के लिए एक सांसद है। हिमाचल प्रदेश में जिलों की संख्या 12 और लोकसभा सीटों की संख्या चार है। पंजाब में जिलों की संख्या 23 और लोकसभा सीटों की संख्या 13 है। लद्दाख की जनसांख्यिकी, जिसकी आबादी लगभग तीन लाख है, ये परिस्थिति भी एक और लोकसभा सीट के निर्माण के पक्ष में नहीं है।
आखिर में फिर क्या…
वर्तमान में लोकसभा में 543 सांसद हैं, जो देश के कुल जिलों की संख्या से बहुत कम है। चूँकि 2001 से उनकी संख्या पर रोक लगी हुई है, इसलिए लद्दाख में सांसदों की संख्या एक से बढ़ाकर दो करना संभव नहीं है। अधिकांश लद्दाखी नेता इसे अच्छी तरह समझते हैं, लेकिन हो सकता है कि उन्होंने केंद्र सरकार के सामने एक अनुचित अतिवादी रुख अपनाया हो। कोई भी समझ सकता है कि यह एक तरह से हथकंडा है जिसका इस्तेमाल लद्दाखी नेतृत्व कर रहा है।
केंद्र सरकार लद्दाख में और जिले बनाने के लिए तैयार है और पाँच नए जिलों की घोषणा पहले ही कर चुकी है। अगर ऐसा होता है, तो इससे लद्दाख की जनसांख्यिकी में कोई बदलाव नहीं आएगा। न ही इससे 84वें संविधान संशोधन का उल्लंघन होगा, जिसके तहत अलग से नया परिसीमन संभव नहीं है।
ऐसा लगता है कि यह मांग कारगिल और लेह जिलों, एक जिले में शिया और दूसरे जिले के बौद्धों, के बीच एक समानता का बंधन बनाने के उद्देश्य से की गई है।