Thursday, October 9, 2025
Homeकला-संस्कृतिदृश्यम: क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की (केके) की फिल्मों पर कुछ डायरीनुमा विचार

दृश्यम: क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की (केके) की फिल्मों पर कुछ डायरीनुमा विचार

क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की महान पोलिश सिनेकार थे। न केवल वे पोलिश सिनेमा में बल्कि विश्व सिनेमा की कलात्मक दुनिया में भी वे जिस कदर समादृत हैं, बेहद कम सिनेकारों को वह गौरव प्राप्त होगा। क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की ने बहुत अधिक फ़िल्में नहीं बनाईं लेकिन मानवीयता, नैतिकता, आस्था, जीवन-प्रश्नों, सम्बन्धों, मन की जटिलताओं पर आधारित इनकी फ़िल्में संवेदना की अंतिम परत को छूने और झकझोरने वाली वाली बेहद संवेदनशील फ़िल्में साबित हुईं। मुख्यतया दर्शकदुनिया मे इनकी कलर ट्राइलॉजी अधिक प्रसिद्ध हुईं। पर अन्य फिल्में भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। जिसमें ‘डेकलॉग’ नामक सीरीज तो अविस्मरणीय है। यह सीरीज बाइबिल के टेन कमांडेंट पर आधारित थी और आधुनिक व्याख्या के साथ प्रस्तुत करती थी। डेकलॉग की कहानियों ने सबसे अधिक जिस विषय को चुनौती पेश की, वो थी- नैतिकता, धर्म और द्वन्द्व। प्रस्तुत आलेख एक तरह की डायरी है। जिसे उनकी फिल्में और उनसे संबंधित विषय सामग्री को देखते हुए लिखा गया। इसमें क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की को प्यार से ‘केके’ कहकर सम्बोधित किया गया है। इस आलेख का पहला हिस्सा आप पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है इसका दूसरा और अंतिम हिस्सा…

दर्शन और संभाव्यता : Blind Chance

केके फ़िल्में स्वप्न और यथार्थ के बीच की एक कड़ी है। दुःख और अवसाद की व्याख्या उनके उनके यहाँ इतनी विपुल मात्रा है कि हमें बुद्ध याद आने लगते हैं। और जैन का स्यादवाद भी। लेकिन बुद्धा की तरह उनके यहाँ निवारण नहीं मिलता। बस उसका विस्तारीकरण मिलता है। उनकी फिल्म ब्लाइंड चांस स्यादवाद के सिद्धांत के पथ पर चलती हुई दिखती है। .”स्यात अस्ति च स्यात नास्ति च।’ मुझे लगता है कि स्यादवाद किसी कहानी का अच्छा जनक है। इसके कई आयाम है। कुल सात हैं। और सातों ज्ञान के संवेदन हैं। इस फिल्म में एक जीवन की तीन अलग-अलग व्याख्या है। एक ही नायक है और घटनाओं की संभाव्यता के आधार पर तीन अलग-अलग किस्म की कहानियाँ बनने लगती है। इन तीन कहानियों में घटनाओं की तीव्रता इतनी सान्द्र हैं कि किसी एक कहानी में नायक ईश्वर में यकीं करता है। और किसी में नहीं। यह तीन कथाएं स्वप्न है और इसमे किसी एक कहानी का चुनाव यथार्थ है। और तीनो कहानियाँ का विस्तारीकरण के अंत का फैसला वे हमारे विवेक पर छोड़ देते हैं। केके का कहना है कि मैं निराशावादी हूँ और भविष्य मेरे लिए ब्लैक होल है। ब्लैक होल से क्या तात्पर्य है ? शायद एक ऐसी चीज जो हमें घुन की तरह खाए जा रही है। या फिर यह क्रूर समय, जो हर जगह निराशा के खोल में बैठा हुआ मिलता है। यह निराशा कहाँ से आती है ? शायद बहुत कुछ की अपेक्षा रखने वाला ही निराशावादी हो सकता है। या एक साथ सब कुछ ठीक कर देने की असफल सी कोशिश करने की इच्छा रखा हुआ कोई आदमी निराशा के चंगुल में आता होगा। फिल्म ब्लाइंड चांस में शायद इन तीन कहानियों का जन्म क्या इसी की उपज है ? एक ही नायक का तीन तरीके से तीन अलग अलग कथाओं में (ब्लाइंड चांस द्वारा) जीवन का सम्भाव्य जीवन पेश करना। जीवन को परिभाषित करने में बेहद जरूरी फ़िल्म साबित होती है। आशावादी तो एक ही रास्ते से चलता है और सोच सकता है। सब कुछ सकारात्मक। लेकिन यह निराशा और नकारात्मकता इसी दुनिया और उसके कारणों से तो उपजती है.। केके के पास इन्ही कारणों और उनके संबंधों की कई व्याख्या उभर कर आती है। मुझे याद आता है कि उनकी किसी भी फिल्म में पात्र उन्मुक्त हंसी हँसते हुए नहीं दिखते हैं। यह आदिम चीज उनकी फिल्म में एक सिरे से विलुप्त मिलती है। वे अपने फिल्म के माध्यम से क्या हमारी हंसी पर सवाल उठाते हैं ? अर्थात हमारे खुश रहने की क्षणिकवाद पर !इसी सुख का क्षणिकवाद बुद्ध के पास भी है, जो स्थाई चीज है, वह है दुःख, जो दोनों के पास दिखती है। वह जो बेचैनी दिखती है उनके फिल्म में, पता नहीं कहाँ से आती है या फिर क्या वह हमारे अन्दर ही रहती है ….स्टेनले कुब्रिक कहते हैं ..’’you never see the ideas coming and dont realize until much later how profoundly they have reached your heart. ‘’उनकी फ़िल्में क्या इसी दुःख की उपज है?

के के फिल्मों में हम केवल जीवन ही नहीं देखते हैं, वह तो देखते ही हैं। जीवन से कुछ ज्यादा भी देखते हैं। जीवन में इस ज्यादा की गुत्थी की उपस्थिति उन्हें विशिष्ट बनाती है। बल्कि इसे और सटीक ढंग से कहें तो हम जीवन का रीवाइंड देखते हैं। केवल एक गुजर गए जीवन का मूल्याङ्कन नहीं, बल्कि कहें पुनर्मूल्यांकन देखते हैं। वे उस होनी वाली जगह से गुजरते हुए रुक जाते-से दिखते हैं, जैसे उन्हें मालूम हो कि क्या होने जा रहा है। फिर वे इन्तजार करते हैं। फिर वे घटनाओं को गुजरते हुए देखते हैं। वे उन घटनाओं को टोकते नहीं। वे स्वाभाविक रूप से होने देते हैं। उस जगह पर रुकना दरअसल समय को रोकना है। और देखना उस होनी का विश्लेषण करना है। और चीजों की भूमिका देखने के लिए जैसे वे बार बार समय को पीछे ले जाते हैं। फिर आगे ले आते हैं। फिर पीछे ले जाते हैं। यह प्रक्रिया शायद वे कई बार करते हैं। फिर वर्तमान में लाते हैं, जहाँ हम उनकी फिल्म देख रहे होते है उस कमरे में। और हमारा कमरा और मन इस रीवाइंड में इतना रम जाता है कि हम भी उस जगह से आ रहे होते हैं। जहाँ से वे आ रहे होते हैं, उस समय में गायब होने लगते हैं। वे होनियों की वजह का पुनर्निर्माण करते हैं। और कहीं न कहीं यह सब होनियाँ हमारे जीवन के निर्माण पर खड़ी होने लगती हैं। लेकिन उनकी खुद की उपस्थिति एक तटस्थता की तरह होती है। शायद उस समय की तरह जो हर वक्त हर जगह एक समान चलता और रहता है।

यह भी पढ़ें- क्रिज्स्तोफ़ किस्लोवस्की (केके) की फिल्मों पर कुछ डायरीनुमा विचार (आलेख का पहला हिस्सा)

इस तरह से वे उन सारी चीजों का पुनः व्यवस्थापन करते हुए-से लगते है, या फिर इसे यूँ कहे कि इस क्रम में चीजें भी अपनी भूमिका का हिसाब मागने लगती हैं। वे उन्हें नकारते नहीं। खूब और बहुत खूब जगह देते हैं। स्रष्टा होकर भी वे एक तरह से अपनी फिल्म में द्रष्टा की भूमिका निभाते हैं। एक ऐसा द्रष्टा जो घटनाओं में हस्तक्षेप नहीं करता, वरन जरुरत पड़ने पर विश्लेषण जरुर करता है। वे अपनी कहानी की थीम को कई बार बनाते, और हर एक केंचुल के उतरने के बाद अंततः उसे एक ऐसी मौलिक संवेदना और ट्रीटमेंट देते हैं जो वास्तविक और बेहद स्वाभाविक होती है। शायद यही सब विशेषताएं उनकी ओर अधिक से अधिक दर्शकों को झुकाती है।

साक्षात्कार देखते हुए : रेखांकन

केके लम्बे हैं। अपने साक्षात्कारों में अक्सर कोट पहने दिखते हैं। लम्बे और छरहरे डग भरते हुए एक तेजी लिए हुए चलते हैं। जेब में हाँथ डाले मिलते हैं। छोटी -छोटी आँखें हैं जो लगातार झपकती हैं। उनकी भौंह काफी घनी है। आँखें ऐसी हैं कि हम चाह कर भी किसी कौशल से उसमे कूद नहीं सकते। बीच में सघन पर्दा डाले रहते हैं। संवेदनहीन-सी लेकिन एक लक्ष्य की और देखती हुई। हाँथ बात करते हुए अक्सर चहरे को छूते हैं। और उस हाँथ से जादू की तरह निकलकर कब सिगरेट होंठों से लग जाए, पता ही नहीं लगता। हाँथ के उन होंठों तक पहुचने की तीव्रता रोमांचकारी होती है। बेहद पतले होठ। जिससे शब्द फिसलते हुए। एक दूसरे पर चढ़कर प्रतियोगी की तरह निकलते हुए। आवाज धीमी पर वाक्यों की गति रफ्तारमयी है। लापरवाह तरीके से लेकिन बेहद महत्वपूर्ण बात करते हुए। कुछ ऐसे कि एक वाक्य इतना मोह लेता है कि हमारी चेतना वहीँ विलीन सी रुक जाती है। तब तक वे आगे बढ़ जाते हैं। नाक लम्बी। अचल –सी। हमेशा कुछ सूंघते हुए-सी लगती। एकाग्र और दत्तचित्त सी दिखती। पता नहीं क्यों जब सब कुछ स्थिर-सा लगता दिखता है तब मैं उस नाक से कुछ होने की अपेक्षा पाल लेता हूँ। नाक विद्रोही होती है। उस पर हमारी मानवीय क्षमता काम नहीं करती है। लेकिन वह भी आला दर्जे के काबू में है। मेरे लिए जो सबसे सुकूनदेह साबित होता है और निर्णायक भी, वह है –हंसी। वह केके की फिल्मों से तो गायब मिलती ही है। खुद उनमे भी सिरे से विलुप्त है। मैं कई सारे विडिओ देखता हूँ। पर वह नायाब चीज नहीं मिल पाती। कुछ तो केके के जीवन – दर्शन का भी गुण या दोष है जिसमे शायद यह चीज वर्जित हो गयी लगती है। अगर ऐसा कभी कुछ किसी को मिले तो मुझे भी बताये। मैं उस हंसी से उनके अन्दर का अन्धेरा नापना चाहता हूँ। और पतली कलाइयों और हांथों पर हलके सम्मोहक बाल जिसपर हमेशा एक घडी बंधी हुई। समय का लाजवाब प्रयोग करते हुए। एक स्टॉप वाच लगी हुई उसमे। जब वे फिल्म ब्लू के बारे में कुछ बताते है तो एक दृश्य में उस घड़ी के पांच सेकण्ड का महत्व समझाते हैं। इसी हाँथ की प्रतिछाया पत्थर की शक्ल में उनके कब्र के बगल में लगी हुई है। वे दोनों हांथों की तर्जनी और अंगूठे से कैमरे का आकार बनाते हैं। जब भी कभी छोटे बच्चे वहां घूमने जाते हैं, उस हाँथ की असफल नक़ल करने की कोशिश करते हैं। यह क्रिया फिल्मकार बनने की एक मानवीय क्रिया है। कि कोई कैमरा खुद हमारे अन्दर है .कि एक आँख हमारे अन्दर है .कि हाँथ भी आँख है। हम जब भी उस जगह को देखते हैं और वह पत्थर की कब्र जिस पर केके के हस्ताक्षर भी हैं। हम जहाँ भी रहे, बैठे बैठे उस हाँथ का अनुकरण करते हैं। उनके हांथों की रेंज देखकर एक बार तो उनके अस्तित्व को लेकर विश्वास ही नहीं हुआ था। कई दिनों तक मैं बार-बार खुद से कहता रहा कि केके जैसा व्यक्तित्व भी इस दुनिया में आया था और नश्वरता में गहन विश्वास करने के बाद भी एक अमरता रच गया।

रहस्य : डबल लाइफ ऑफ वेरोनिका

केके की फिल्मों में से एक अहम् बात यह भी सामने आती है – वह है कि वे हॉरर फिल्मों के प्रचलित औजारों और परिस्थितियों का मानवीय संदर्भों में प्रयोग करते हैं। मेरे जाने की सीमा में शायद पहली बार वे ही करते हैं। और वे अपने इस प्रभाव से डर नहीं पैदा करते हैं। एक नयी संवेदना पैदा करते हैं, जिसे अगर परिभाषित करना ही हुआ तो मैं रहस्य, कुंठा, सेक्स, व्यवहार की अवांछनीयता, निराशा, मृत्यु अवसाद आदि शब्दों का सहारा लूंगा। पहले पहल उन्हें देखते हुए मैं हॉरर के उसी परम्परा के निर्वहन की अपेक्षा कर रहा था। जिसका उपयोग अन्य फिल्मकार करते हैं। जैसे हिचकाक की कुछ फ़िल्में। केके की फिल्मों में बिल्ली भी मिलती है। कुत्ते भी मिलते हैं। और अक्सर कबूतर भी मिलते हैं। और विशिष्ट व्याख्या के अंतर्गत मिलते हैं। हवाएं और पर्दों का उड़ना, सामान का अचानक गिर जाना आदि विशेष अनुक्रियाएं भी मिलती हैं। और सभी दृश्य इतने तनाव लिए होते हैं कि दृश्य में मानवीय उपस्थिति हो या न हो, लेकिन एक विशेष उपस्थिति जरुर मिलती है। यह विशेष उपस्थिति उसी भय या डर का प्रतिस्थापन रचती है। सब टूल्स लगभग वही लेकिन इस टूल्स के परिणाम बेहद अलग आते हैं। उसके प्रभाव अलग आते हैं। यह कुछ ऐसा है कि जो रास्ता एक अदने से नाले की और जा रहा था वही रास्ता एक नदी की ओर चला जाय।

पहली फिल्म ‘’ डबल लाइफ ऑफ़ वेरोनिका ‘’देखी थी। नयी लेकिन बेहद गंभीर चीजे एकाएक ध्यान नहीं खींचती हैं। और खींचती भी हैं तो अपनी गंभीरता के कारण समझ में नहीं आती। सो इसे भी मैं पहले पहल समझ ही नहीं पाया, जैसे कि निर्मल वर्मा को पढ़ने के सारे टूल्स उनके कहानी संग्रह कौवे और काले पानी में है। वैसे ही केके को समझने की सारी युक्तियाँ फिल्म ‘ब्लू’ में है। तो केके समझ में आना शुरू हुए ‘ब्लू’ से। तब तक ‘डबल लाइफ ऑफ़ वेरोनिका’ भी एक भूमिका वाले आधार में, मन में स्थापित होना शुरू हो गयी थी। और शुरूआती समयों में मैंने ‘ब्लू’ से भी कुछ हॉरर जैसी ही अपेक्षा पाल रखी थी। लेकिन अपने अंत तक आते आते उसने मुझे बेहद प्रभावित किया। और फिर एक बार ‘डबल लाइफ ऑफ़ वेरोनिका’ देखी। एक नए सिरे से इसमें भी केके ‘पुनर्जन्म’ जैसी प्रचलित धारणा के प्रतिपक्ष में कुछ नया सा रचते दिखते हैं। दो नायिकाएं हैं। दोनों अलग। दोनों हमशक्ल। दोनो दो जगह की। दोनों का कार्य व्यापार अलग-अलग। अगर यह आम भारतीय फिल्म होती तो फिल्मकार बिछड़ी हुई दो जुड़वा नायिका या पुनर्जन्म जैसी कुछ अनर्गल प्रलाप-सा रच कर इतिश्री कर लेते। या कोई गैर भारतीय फिल्म भी होती तो यह परम्परा इतनी तीक्ष्ण है कि फिल्मकार चपेट में आ ही जाते। लेकिन केके की व्याख्या तो एकदम निराली ही है। इस फिल्म कि व्याख्या कई रूपों में आप हम कर सकते हैं। ऐसी अप्रतिम छूट देना तो केके की विशेषता ही है। लेकिन पहले इसकी बीज –कथा से परिचित हो लेते हैं। इस कहानी का मूल तत्व एक सत्य घटना पर आधारित है। हुआ यह था कि केके के सहकर्मी के साथ यह घटना घटी थी। केके के पास कुछ तस्वीरें थीं। यह तस्वीरे कई देशों के यात्राओं के दौरान ली गयी थीं। एक तस्वीर में एक आदमी का चित्र बिलकुल उनके सहकर्मी की तरह था। वह शायद किसी अमेरिकी देश का आदमी था। केके और उनके सहकर्मी थे पोलैंड के। कही से कोई साम्य नहीं। बाद में दोनों उस चित्र के हू ब हू साम्य से अचंभित रह गएं। उनका सहकर्मी रोमांच और लगाव से रोने लगा था। बस यहीं से इस फिल्म के शुरुआत की यात्रा शुरू होती थी। इस फिल्म की व्याख्या में आगे जोड़ते हुए केके कहते हैं एक इशारे में कि हम जो जीवन जीते हैं वह कई स्तरों और रूपों में जीते हैं। और ऐसा महसूस करते हैं कि जो जीवन हम जी रहे हैं बस एक नक़ल भर है। असली जीवन तो कोई और जी रहा है। लेकिन वह कौन है ? इसी ‘’स्व ‘’ तलाश इस फिल्म में होती है। और कभी-कभी तो मुझे भी लगता है कि जो पिछले कई साल हम जी चुके हैं, वह सच में हम ही थे ?? एकाएक हम यह मानने को तैयार ही नहीं होते। अगर हमें सचमुच जीने का आभास होता तो हम चौकते नहीं कि अरे अभी कल की ही तो बात है, जब हम पैदा हुए थे। तो फिर यह बीच का जीवन किसने जिया। जिसका हमें ज़रा सा भी आभास नहीं !! केके की इस फिल्म की व्याख्या कुछ ऐसे भी हो सकती है .यह है ज्ञान की खोज में केके संशय और संदेह का सिनेशास्त्र !!

बिम्बविधान

केके की फिल्मों में एक बिम्ब बार बार आता है –वह है एक बुजुर्ग का दृश्य। अलग-अलग फिल्मों में बुजुर्ग अलग अलग हैं। जैसे ब्लू में एक महिला है। फिल्म वाइट में एक पुरुष है। यही दृश्य ए शार्ट नोट अबाउट कीलिंग में भी है और आगे भी उनकी नहीं देखी गयी फिल्म में मिल सकते हैं।

ये सभी बुजुर्ग खाली हो चुके एक केन के साथ आते है। यह केन किसी गर्म पेय का हो सकता है या ठन्डे पेय का या फिर दूध के बोतल का भी हो सकता है। मैं ठीक से नहीं बता सकता। बस ये एक खाली और निरर्थक केन के साथ आते हैं। ये बुजुर्ग इतने बूढ़े हैं कि इनकी कमर झुककर पृथ्वी के समान्तर हो चुकी है। किसी से बात करने के लिए उन्हें अपना सिर सायास और कठिनाई से उठाना पड़ता है। झुर्रियों से भरे हुए हैं। त्वचा अपना अर्थ खो चुकी है और चेहरे की जगह उसकी नरम परछाई है। ये केन लिए बहुत धीमे-धीमे सड़क के एक किनारे से होते हुए आते हैं। जब ये आते हैं तो सड़क अकसर सुनसान और रात का समय होता है। ये डस्टबिन के पास जाते हैं। पोलैंड के सडकों के पास के डस्टबिन एक आम आदमी की ऊंचाई लिए होते हैं। और एक छोटी गाड़ी के बराबर। उसके अन्दर कूड़ा डालने के लिए कम से कम चार या पांच फुट की उचाई पर एक बड़ा सा छेद होता है। फ़ुटबाल के आकार जितना। जिसमे कूड़े को डालना होता है। उस छेद तक इनका हाँथ झुकी हुई कमर की वजह से नहीं पहुँच पाता है। वे धीरे-धीरे उस छेद तक अपना हाँथ ले जाते हैं। फिर भी नहीं पहुच पाता तो वे उचकते हैं। लेकिन टेढ़ी कमर की वजह से नहीं पहुँच पाते हैं। वे बार-बार कोशिश करते हैं और यह दृश्य अंततः बेहद दयनीय और कारुणिक हो जाता है। होता यह है कि इन दृश्यों को केके के पात्र बखूबी देख रहे होते हैं। वे अपनी परिस्थिति और दशा की इस दयनीय स्थिति से तुलना करते हैं। और एक मीठी और दुर्लभ मुस्कान मुस्कुराते हैं। चाहे वे किसी दारुण परिस्थिति में हो। एक बार दर्शक और पात्रों का ध्यान मूल कथा कहानी से हट जाता है। पात्र निरपेक्ष से हो जाते हैं। एक किस्म की दार्शनिकता उनके अन्दर भर आती है। शायद वे सोचते होंगें कि अंत में तो यही होना है, जो हो रहा है वह एक नाटक है, एक फिल्म। इन सब फिल्मों में बस बूढों की इतनी ही भूमिका होती है और वे गायब हो जाते हैं। फिर नहीं आते हैं।

बाद में अपने इंटरव्यू में वे कहते हैं तो सूत्र जुड़ते हैं कि भविष्य एक ब्लैक होल है। और सारी चीजें नष्ट हो जायेंगी। क्या यह बिम्ब, उस डस्टबिन का गोल अन्धाकार छेद इसी कथन का दृश्यानुवाद तो नहीं है ? समय या इसे दूसरा नाम दें– मृत्यु। सब कुछ खतम कर देता है तो क्या बचता है ? इसका भी जवाब वे एक फिल्म डेकलॉग की सीरिज में देते हैं. स्मृति! यही बचती है। हमारा काम बचता है।


अरविंद
अरविंद
अरविंद जन्म- 1987, चंदौली में। वाराणसी में हिंदी प्रवक्ता। कविता, कहानी और फिल्मों में रुचि। सम्पर्क- arvindreader@gmail.com
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments

मनोज मोहन on कहानीः याद 
प्रकाश on कहानीः याद 
योगेंद्र आहूजा on कहानीः याद 
प्रज्ञा विश्नोई on कहानीः याद 
डॉ उर्वशी on एक जासूसी कथा