Monday, September 8, 2025
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दृश्यम: कमालुद्दीन नीलू, इब्सन और नेटिव पियर

बांग्लादेशी निर्देशक और नॉर्वे में इब्सन स्टडीज़ के प्रमुख विश्विख्यात नाट्य निर्देशक कमालुद्दीन नीलू का नाटक है ‘नेटिव पीयर’। यह नाटक अपने अविस्मरणीय कथ्य और फंतासी के कारण याद रह जाता है। कुछ वैसी फंतासियां जिनकी जड़ें अतीत में न होकर कहीं भविष्य में ह़ैं। आज यहां इस नाटक पर बात कर रही हैं के. मंजरी श्रीवास्तव-

बचपन से सुनती आ रही हूँ कि कलाकार भविष्यद्रष्टा होते हैं और कमालुद्दीन नीलू के बारे में मुझे ऐसा कई बार महसूस हुआ है। कमालुद्दीन नीलू के नाटकों को देखने पर मुझे हमेशा यह महसूस होता रहा है कि उनके भीतर भविष्य को देखने की दिव्य दृष्टि है आनेवाले खतरे का संकेत वह अपने नाटकों में सालों साल पहले ही दे देते हैं। जैसे अपने नाटक ‘मैकाबरे’ में 2014 में ही उन्होंने एक दृश्य चमगादड़ों को लेकर रचा है और दिखाया है कि भविष्य में चमगादड़ विश्व के लिए ख़तरनाक हो सकते हैं। इस नाटक को देखते समय मुझे या किसी को भी यह अनुमान भी नहीं था कि इस नाटक का यह दृश्य एक दिन सच साबित होगा और 2020 में कोविड जैसी महामारी आएगी, जिसके उत्पन्न होने के मूल में चमगादड़ बताये गये थे। जब न्यूज़ चैनल्स इस बात को दिखाने लगे कि कोविड चमगादड़ से फैला है तो मुझे नीलू जी के नाटक मैकाबरे का यह दृश्य सहसा याद आ गया।

‘नेटिव पीयर’ के अंतिम दृश्य में उन्होंने बिना सर वाले मानवों की एक कतार को मंच पर से गुज़रते दिखाया है। इस दृश्य के बारे में उनका यह कहना था कि – “मैंने यह दृश्य इसलिए दिखाया है क्योंकि मेरा मानना यह है कि दुनिया में सारी खुराफ़ातों की उत्पत्ति के पीछे इंसानी दिमाग है। दिमाग न रहे तो खुराफात ही न हो।”

उनका यह कथन भी अक्षरशः सत्य है। दुनिया कोविड जैसी जिस भयंकर महामारी से गुज़री, उसके पीछे भी एक हद तक इंसान के शैतानी दिमाग़ की ही ख़ुराफ़ात थी और आज दुनिया विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ी है उसके पीछे भी इंसान का शैतानी दिमाग़ ही है।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अंतिम वर्ष के छात्रों ने मशहूर बांग्लादेशी निर्देशक कमालुद्दीन नीलू, जो हेनरिक इब्सन के नाटकों के अपरम्परागत व्याख्याकार और इब्सन विशेषज्ञ माने जाते हैं, के कुशल निर्देशन में नाटककार इब्सन द्वारा रचित नाटक ‘नेटिव पीयर’ की शानदार प्रस्तुति दी।

ऊपरी तौर पर तो यह नाटक एक मामूली लड़के ‘पीयर गिन्ट’ की कहानी है, लेकिन निर्देशक नीलू ने इसकी जो व्याख्या की है वह अद्भुत है। उन्होंने नाटक को इस अवधारणा के इर्द-गिर्द लाकर केन्द्रित कर दिया है कि सारे मुसीबतों की जड़ इंसानी दिमाग है और इसीलिए नाटक के अंत में वह मंच पर ऐसे लोगों की एक क़तार को गुज़रता दिखाते हैं जिनके सिर नहीं है।

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सम्पूर्ण नाटक और उसके दृश्य इसी अवधारणा के इर्द-गिर्द बुने गए हैं… सिर्फ इतना ही नहीं, निर्देशक का यह नाटक वैश्विक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिदृश्य को न सिर्फ ध्वनित करता है, बल्कि जेंडर स्टडीज और उससे जुड़े आयामों, विशेष रूप से स्त्री-देह और उसे लेकर की जाने वाली राजनीति के नए अर्थ भी खोलता है।

नाटक एक झरने के किनारे बैठे पीयर और उसकी माँ के वार्तालाप से शुरू होता है, जिसके बहाने निर्देशक नीलू नेहरु की डैम पॉलिटिक्स से अपनी बात शुरू करते हैं और नाटक के दूसरे-तीसरे दृश्य तक आते-आते वे न सिर्फ भारत की बल्कि पूरे विश्व की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को भी उजागर करके रख देते हैं। जब उनके नाटक का एक चरित्र पीयर से कहता है कि तुमने दानव राजा की बेटी से बलात्कार किया है तो तुम्हे गौमूत्र पीकर खुद को पवित्र करना होगा। क्योंकि हमारा आबे ज़मज़म है गौमूत्र, तो भारत में गाय को लेकर हो रही राजनीति की वे धज्जियां उड़ा देते हैं। साथ ही ख़त्म होती जा रही इंसानियत को वह इस दृश्य द्वारा दिखाते हैं, जहाँ प्यार और बलात्कार में कोई फ़र्क नहीं रह गया है। मानव और दानव के बीच कोई फ़र्क नहीं रह गया है।.हमारे समाज का सच यही है कि प्यार का मतलब बलात्कार और बलात्कार का मतलब प्यार। कितने संवेदनहीन होकर रह गए हैं हम जहाँ एहसासों के लिए कोई जगह नहीं बची और प्यार की अवधारणा केवल देह-केन्द्रित होकर रह गई है। इस दृश्य के अंत में दानव राजा कहता भी है- ‘तुम सब मानव एक जैसे हो आवेग को कबूल करने में मुस्तैद रहोगे, लेकिन एहसासे जुर्म स्वीकार नहीं करोगे जबतक कि वो अपराध जिस्मानी तौर पर घटित न हुआ हो!.तुम्हारे मुताबिक़ कामातुर होना गुनाह नहीं।’

नाटक के एक दृश्य का यह संवाद गौरतलब है जब पीयर को दानव राजा अपनी बेटी से शादी करने के लिए मजबूर करता है और कहता है कि उसे कुछ दानवी तौर तरीके अपनाने होंगे। पीयर राजा से पूछता है कि क्या इंसान को जानवर बना दोगे तो राजा का जवाब आता है–‘’पुत्र, तुम्हें ग़लतफ़हमी हो रही है। मैं तुम्हें एक मुकम्मल दानव बनाना चाहता हूँ।’ यह व्यंग्य है हमारे समाज पर जहाँ एक व्यक्ति अगर इंसान बना रहना चाहे तो उसे मुकम्मल दानव बनने को मजबूर कर दिया जाता है। आज इंसान ऐसा दानव बन चुका है जो अपने ही दांतों से खुद को काट रहा है और उसका जिस्म लहूलुहान हो चुका है।.इंसानियत के इस खात्मे को बहुत मुखरता से ध्वनित किया है अपने नाटक में निर्देशक ने।

नाटक के दूसरे भाग में यह दिखाया जाता है कि नाकारा और सिर्फ हवाई किले बनानेवाला पीयर गिन्ट बहुत अमीर हो चुका है और इस अमीरी को पाने के लिए उसने ऐसा कोई दुष्कर्म नहीं है, जो न किया हो। हथियारों और ड्रग्स की तस्करी से लेकर औरतों की खरीद-फ़रोख्त और तस्करी भी। पीयर का यह कथन कि ‘’ख़ूबसूरती क्या है, एक ऐसा सिक्का जिसकी कीमत वक़्त और जगह के मुताबिक आंकी जाए।’ – औरतों के जिस्म को लेकर बाज़ार की सोच को ही दिखाता है। पीयर के लिए औरत का जिस्म गोश्त का एक लज़ीज़ टुकड़ा भर है, जो पूरी दुनिया के पुरुषों की सोच को प्रदर्शित करता है। औरतों को आज भी एक जिस्म से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाता। उनके दिमाग की कोई कद्र नहीं, इस पुरुषवादी समाज में। आज भी पूरे विश्व के पुरुष वर्ग का अधिसंख्य औरतों को सिर्फ जिस्म के तौर पर, उसके जिस्म को लज़ीज़ गोश्त के टुकड़े की तरह ही देखता है और इस एंगल से देखता है कि बाज़ार में इस जिस्म की कीमत कितनी ऊंची होगी।.कहीं खुलेआम तो कहीं चोरी-छिपे औरत सिर्फ और सिर्फ एक जिस्म भर है। यही हमारे समाज की तल्ख़ सच्चाई है और उतनी ही तल्खी से निर्देशक नीलू इसे दिखाते भी हैं।

जब औरतों को सिर्फ जिस्म समझा जा रहा है उस हालत में अनित्रा नामक चरित्र द्वारा निर्देशक यह दिखाता हैं कि स्त्रियाँ भी अपनी कीमत वसूलने में पीछे नहीं रहती हैं इन दिनों। अनित्रा की नज़र पीयर के पैसे पर होती है और उसकी सारी दौलत लेकर वह उसे ठेंगा दिखाकर चली जाती है।.आज धड़ल्ले से यही हो रहा है। औरतें अनित्रा की तरह स्मार्ट हो गयीं हैं। लेकिन गौर से देखें तो यह सिर्फ स्त्रियों का नहींपूरे विश्व के लिए नैतिक अवमूल्यन का समय है।

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अंतिम दो-तीन दृश्यों में जब पीयर गिन्ट दुनिया का बेताज बादशाह बनना चाहता है, वह युद्ध की वकालत करता है। यह कहते हुए कि टायकून बनने के लिए जंग ज़रूरी है। पीयर प्रतीक है उन लोगों का जो दुनिया पर राज करने के लिए, शक्तिशाली होने के लिए किसी भी हद तक गिरने और खुद को खोने को तैयार हैं। यहाँ तक कि हिंजड़ा बनने के लिए भी। ऐसे लोगों की यह सोच है कि खुद को खोकर ही इस दुनिया को पाया जा सकता है, उसपर राज किया जा सकता है।

निर्देशक नीलू पीयर के माध्यम से वक़्त को प्लेग जैसी महामारी के रूप में दिखाते हैं। वे यह दिखाते हैं कि दुनिया पर येन-केन प्रकारेण किसी भी तरह राज करनेवाला पीयर अंततः अपने दिमागी और अंतरात्मा के द्वंद्व में फंसकर एक फ़क़ीर बनकर रह जाता है और इसी द्वंद्व के साथ उसका अंत होता है।.उसका अहम् ही उसे ले डूबता है।

नाटक यद्यपि थोडा लम्बा खिंच गया है और थोड़ी धीमी गति से आगे बढ़ता है इसलिए यह दर्शकों को कहीं-कहीं बहुत बोर भी करता है।,थोड़ा उबाऊ भी लगता है। शुरुआती दो दृश्य दर्शकों को बांधकर रख पाने में वेअपेक्षाकृत कम सफल रहे हैं, लेकिन इन दो दृश्यों के बाद पूरा नाटक अबाध गति से चलता है।.

यह पूरा नाटक एक चलती-फिरती पेंटिंग है, जिसमें जादू की तरह फ्रेम- दर -फ्रेम दृश्य बदलते हैं और दर्शक मंत्रमुग्ध से रह जाते हैं।

रुदन, विलाप और मृत्यु के लिए जिन धुनों और गीतों का चयन और इस्तेमाल किया गया है वह बेहद कारुणिक और हृदयविदारक है शुरुआत से लेकर अंत तक नाटक को पहली नज़र में सिर्फ स्लाइड शो भी कहा जा सकता है लेकिन छिद्रान्वेषण करें तो हम पाते हैं कि यह एक मल्टीलेयर्ड नाटक है।.प्याज़ के छिलके की तरह इसकी परतें उतरती चलती हैं, ज्यों-ज्यों नाटक आगे बढ़ता है।

अमिताभ श्रीवास्तव का अनुवाद लाजवाब है…कुर्ट हिमंसन की मंच परिकल्पना काबिले तारीफ़ है।.तन्मय गुप्ता ने कॉस्टयूम पर बहुत अच्छा काम किया है।.गौरव शर्मा को अभी अपनी प्रकाश व्यवस्था पर और काम करने की ज़रूरत है।.प्रकाश चरित्र पर केन्द्रित न होकर कई जगहों पर बिखर-बिखर सा जाता है। एहसान रज़ा खान का संगीत नाटक को और प्रभावशाली बना देता है।

पीयर की भूमिका में चन्दन कुमार, महेंद्र सिंह पंवार और राहिल भारद्वाज ने शानदार अभिनय किया है।.महेंद्र अपने अभिनय का लोहा इससे पहले भी रिचर्ड थर्ड सहित कई नाटकों में मनवा चुके हैं। राहिल ने मुर्गा बने पीयर की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया है। दूल्हे के रूप में सिकंदर कुमार का अभिनय सराहनीय है। अनित्रा की भूमिका में बर्नाली बरुआ ने भी अच्छा अभिनय किया है। लेकिन सर्वाधिक सशक्त भूमिका में रही हैं दानव राजा की बेटी इंद्राणी की भूमिका में गुरिंदरजोत कौर। पीयर के साथ गुरिंदर मंच पर गुत्थमगुत्था होकर मंच के कोने से दूसरे कोने तक लुढ़कती हुई आती हैं और ये दोनों कलाकार बलात्कार के दृश्य को जीवंत करते हैं। यह एक बोल्ड दृश्य है, जिसे करने के लिए ये दोनों कलाकार और निर्देशक बधाई के पात्र हैं।

नाटक के अंतिम दृश्यों में अपने आत्म से जूझते पीयर की भूमिका को अपने सशक्त अभिनय से वाणी दी है चेतन परिहार और तसव्वुरअली ने। कुल मिलाकर यह पूरी टीम बधाई की पात्र है अपने उम्दा प्रदर्शन के लिए, लेकिन नीलू जी के निर्देशन के साथ मुझे याद रह गया राहिल भारद्वाज का अभिनय। राहिल कमाल के अभिनेता हैं, उनमे अपार संभावनाएं हैं। हर बार की तरह एक बार फिर निर्देशक कमालुद्दीन नीलू इब्सन के अपरम्परागत व्याख्याकार के रूप में सफल रहे हैं।

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के. मंजरी श्रीवास्तव
के. मंजरी श्रीवास्तव
के. मंजरी श्रीवास्तव कवि एवं नाट्यविद है, विशेष रूप से कला समीक्षक। एनएसडी, जामिया और जनसत्ता जैसे संस्थानों के साथ काम कर चुकी हैं। कलावीथी नामक साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था की संस्थापक हैं।
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2 COMMENTS

  1. बिरले ही ऐसा होता है कि कोई नाट्य समीक्षा आपको नाटक के सारे पहलुओं से कुछ इस तरह मिलवाए कि लगे आपने भी नाटक देखा है!– मंजरी श्रीवास्तव ने इस आलेख में यही संभव किया है. निर्देशक कमालुद्दीन नीलू के निर्देशन की विशेषताओं, उनके भविष्य दृष्टा की तरह अपने नाटकों में दृश्यों को संजोने की क़ाबिलियत को वे क्या खूब रेखांकित करती हैं!☘️☘️☘️मंजरी जी का नाट्य विधा के प्रति प्रेम सहज ही उनके लेखों में छलकता है☘️

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