Friday, October 10, 2025
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विरासतनामा: कश्मीर के कदल- बहते पानी पर ठहरा इतिहास

सदियों पहले अपने महबूब महीवाल से मिलने के लिए सोहनी ने उफनती हुई चेनाब नदी को कच्चे घड़े के सहारे पार करने का जोखिम उठाया था। अगर तब कोई चेनाब पर पुल बना देता तो यह प्रेम कहानी अधूरी न रहती। कमाल देखिए कि आज जम्मू कश्मीर में बहने वाली चेनाब नदी का नाम इसपर बनाए गए दुनिया के सबसे ऊंचे पुल चेनाब ब्रिज के चलते सुर्खियों में आया है। 

यूँ तो वादी-ए-कश्मीर में नदियों के किनारों को जोड़ने वाले पुलों की विरासत काफ़ी पुरानी है। कहते हैं कि कश्मीर में झेलम नदी पर कुल 13 कदल यानि पुल हुआ करते थे, जिनमें से सात तो अकेले श्रीनगर में ही थे, जिसके चलते श्रीनगर को ‘सात पुलों वाला शहर’ भी कहा जाता था। काठ के बने ये कदल कश्मीरी वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं, जो लकड़ी के घरों के परिदृश्य के साथ मिल कर शहर को एक कलात्मक शक्ल देते हैं। झेलम नदी पर बने ये पुल, जैसे अमीरा कदल, हब्बा कदल, फतेह कदल, जैना कदल, आली कदल, नवा कदल और सफा कदल, 15वीं और 18वीं शताब्दी के बीच बनाए गए थे। इन पुलों ने सदियों तक श्रीनगर शहर के अलग अलग हिस्सों को आपस में जोड़ा है।

आली कदल झेलम नदी पर बना पहला पुल था, जिसे सुल्तान अली शाह (अली शाह मीरी) ने 1415 ईस्वी में बनवाया था। इसके आस-पास कई सूफी दरगाहें और मंदिर बसे, जैसे कि वूसी साहब की दरगाह और बटियार मंदिर। इस पुल पर आज भी धोबी कपड़े और कालीन धोते हुए दिखाई देते हैं, इसलिए इसे ‘दाइब घाट’ भी कहा जाता है।

ज़ैना कदल को सुल्तान ज़ैन-उल-आबिदीन, जिन्हें ‘बुदशाह’ के नाम से भी जाना जाता है, ने लगभग 1426 ईस्वी में बनवाया था। यह कदल डाऊनटाउन यानि पुराने श्रीनगर का मुहाना भी है। यह अपने पास के ‘गाड’ई बाज़ार’ के लिए जाना जाता है, जो पीतल के नक्काशीदार बर्तनों के लिए मशहूर है। इस पुल के पास शाह-ए-हमदान (खानकाह मौला) की दरगाह भी है, जो श्रीनगर की सूफियाना तबीयत की गवाह है। 

हब्बा कदल को लगभग 1550 के आसपास सुल्तान हबीब शाह ने बनवाया था। कहा जाता है कि इस कदल का नामकरण प्रसिद्ध कश्मीरी कवियित्री हब्बा खातून के नाम पर हुआ। कभी इस पुल के किनारों पर दुकानें भी हुआ करती थीं जिससे यह लंदन ब्रिज की याद दिलाता था। 1893 की भीषण बाढ़ में यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया था और बाद में इसका पुनर्निर्माण किया गया।

अमीरा कदल श्रीनगर का एक प्रसिद्ध पुल है, जिसे अफगान गवर्नर अमीर-उद-दीन खान जवान शेर ने 1774 ईस्वी में बनवाया था। यह भी 1893 की बाढ़ में क्षतिग्रस्त हो गया था और इसका पुनर्निर्माण किया गया। यह शहर के पुराने और नए हिस्सों को जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण पुल रहा है।

नवा कदल यानि ‘नया पुल’ जिसे पुराने पुलों के बाद एक नए प्रयास के तौर पर बनाया गया। यह व्यापारिक गतिविधियों के लिहाज से प्रमुख स्थान है और इसके आस-पास पारंपरिक कश्मीरी बाजार और पुराने मोहल्ले बसे हुए हैं।

जीरो ब्रिज के नाम के पीछे एक दिलचस्प किस्सा है। कहा जाता है कि इसे एक बहरे ठेकेदार ने बनवाया था, और कश्मीरी में ‘ज़ोर’ का मतलब ‘बहरा’ होता है, इसलिए इसे ‘ज़ोर ब्रिज’ कहा जाने लगा, जो बाद में ‘जीरो ब्रिज’ में बदल गया। यह 1950 के दशक में लकड़ी के तख्तों से बना था और कश्मीर की विरासत का एक प्रतीक माना जाता है।

ऊँट कदल श्रीनगर का एक बहुत ही अनोखा और सुंदर पुल है, जिसे डोगरा शासनकाल में पारंपरिक कश्मीरी शैली में पत्थर और चिनाई से बनवाया गया था, संभवतः 19वीं सदी के अंत या 20वीं सदी की शुरुआत में। यह पुल श्रीनगर की डल झील में स्थित है और यहां कई फिल्मों को दर्शाया गया है। इस पुल को यह नाम इसीलिए मिला क्योंकि इसकी आकृति ऊँट के कूबड़ जैसी प्रतीत होती है। 

कश्मीरी शायर आग़ा शाहिद अली अपनी कविता में भी लिखते हैं कि इन पुलों के नीचे बहते झेलम के पानी में मस्जिद, मंदिर, दरगाहों और गुरुद्वारों की परछाइयां एक साथ तैरती मालूम होती हैं, जो कश्मीर की बहु-सांस्कृतिक विरासत का सबूत है। इन कदलों की मजबूती का राज़ है इनकी कंकालनुमा काठ की बनावट, जो नदी के तेज़ बहाव वाले पानी की राह में रुकावट नहीं बनता, बल्कि पानी को रास्ता देता है। 

इन पुलों की अहमियत कश्मीर में इस कदर है कि कश्मीरी शादियों में कदल-ए-तार नामक एक रस्म भी होती है, जिसमें रुख्सती के बाद दूल्हे की बारात को उसके दोस्त ही कदल पर रोक कर नजराना मांगते हैं और फिर कदल पार करने दिया जाता है। मानते हैं कि रुख्सती की उदासी को कम करने के लिए इस रस्म को अपनाया गया था। 

कदल कश्मीर के इतिहास के मूक गवाह हैं, जिन्होंने अनगिनत लोगों और घटनाओं को अपनी लकड़ी की संरचनाओं से गुजरते देखा है। जिक्र कश्मीर का हो और यहां के पुलों का हो, तो तारीख में दर्ज गौ-कदल का खूनी किस्सा भी निकल आता है, जब नब्बे के दशक में निहत्थे प्रदर्शनकारियों को इसी पुल पर सरकारी गोलियों से भून दिया गया था और नीचे बहता दरिया-ए-झेलम तक सुर्ख हो गया था। आज भी फौजी बूटों की गड़गड़ाहट से बूढ़े कदल कांप जाते हैं।

आज इंटैक (INTACH) जैसी गैर सरकारी संस्थाएं इन कदलों के जीर्णोद्धार में लगी हैं। श्रीनगर की डल झील में स्थित ऐतिहासिक ऊंट कदल पुल के जीर्णोद्धार में जर्मन दूतावास द्वारा भी म्हाली मदद की गई है। इस सुधार का उद्देश्य पुल की पत्थर की चिनाई की मरम्मत करना और समय व पर्यावरणीय कारकों के कारण हुई टूट-फूट को ठीक करना है ताकि इस कदल के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को बनाए रखा जा सके।

आज चाहे अपनी सियासी उथलपुथल के चलते कश्मीर कई बार मुख्यधारा से कट जाता है लेकिन कश्मीर के कदल उसे आज भी अपने दोनों किनारों से जोड़े रखने का काम करते हैं।

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