इस क्रिसमस को मैं पैंसठ बरस का हो गया। चौंसठ का हो रहा था और ब्लड प्रेशर रहने लगा। रोज सुबह एक टेबलेट लेने की शुरुआत हो गयी। बीच-बीच में हैरानी भी होती रही कि जिंदगी के पैंसठ बरस बीत गये। पैंसठ बहुत ज्यादा नहीं है तब कम भी नहीं है।
पिछले बरस पत्नी नहीं रही। उसी बरस मैं एक और बच्चे का दादा बना। एक नये घर में रहने लगा। पिता का बनाया मकान छूट गया। अपने बनाये गये मकान में रहने लगा। यह मकान शहर की सरहद पर खड़ा है। कभी जंगल रहा होगा। करीब ही रेल्वे स्टेशन है। शिव का एक प्राचीन मंदिर। छोटी-छोटी पहाड़ियों का एक इलाका भी, जहां पर एक छोटी सी नदी बहती रहती है। छोटी गंगा कहलाती है।
हमारे यहां हर नदी के साथ गंगा को जोड़ देने का विचार बना रहा है। इसी इलाके में कहीं वैनगंगा है, कहीं पैनगंगा।
मैं रोज ही छोटी गंगा तक सैर के लिए जाता हूँ। अभी गर्मियां है, नदी सूख गयी है। उसके होने का निशान भर नजर आता है। पर न जाने क्या हुआ है, क्यों हुआ है कि सूख चुकी नदी, छोटी-छोटी पहाडियों, शिव के प्राचीन मंदिर, रेल की पटरियों को देखकर, अपनी जिंदगी के उन पाँच बरसों की यादें आने लगती है, जिन्हें मैंने महाराष्ट्र के एक कस्बे में बिताया था।
अपनी उम्र के पच्चीसवें बरस में, मैं केंद्रीय विद्यालय में अध्यापक हो गया। मेरी पहली पोस्टिंग उस कस्बे में हुई। वह कस्बा मेरे बचपन के शहर से दो घंटे की दूरी पर था। वहां गांधीजी का सेवाग्राम खड़ा था। इस आश्रम की शुरुआत उन्नीस सौ छत्तीस में हुई थी। अब भी वहाँ आदि-निवास खड़ा ही हुआ है। मीरा बहन की देखरेख में बना था। मिट्टी बांस और खपरैल की बरसों पुरानी संरचना।
लेकिन यह सब मुझे याद नहीं आता है। मुझे अगर कुछ याद आता रहता है तो उसका रिश्ता चित्रा से बनता है। चित्रा के कस्तूरबा नगर के मकान से, संगीत विद्यालय की शामों से। कॉलेज के उस गेट से जिसमें वह पढ़ा करती थी। पर जो शाम मेरी यादों में बार-बार लौटती है, वह कस्बाती स्टेडियम के करीब खड़ी एक निर्जन, सुनसान जगह की है, जहां एक शाम चित्रा ने नोट लिखकर मुझे बुलाया था।
मुझे लगता है कि वह शाम मेरी जिन्दगी की एक ऐसी शाम है, जिसे मैं अपनी आखरी सांस तक याद रखना चाहूंगा।
वहां कभी स्टेडियम रहा होगा। अब दर्शकों के बैठने के लिए बने चबूतरों के कुछ हिस्से, दो गोल पोस्ट और जंगली घास लिए हुए उबड़-खाबड़ मैदान के सिवाय कुछ न था। रात के घिरने का वक्त। लौटती बारिश की शाम। स्टेडियम के उजाड़ के करीब खड़ी हुई मिट्टी की कुछ झोपड़ियां, जिसके सामने दो-तीन घोड़ो को बांधकर रखा गया है। मैं जब नीम के उस पेड़ के करीब पहुँचा तब मैंने चित्रा को पेड़ के चबूतरे पर बैठे हुए पाया। वह इधर-उधर देख रही थी। उसके सांवले चेहरे पर डर और घबराहट के निशान थे।
“मुझे देर हो गयी”
“मैं भी अभी अभी ही आयी”
“ऐसा क्या काम आ गया . . . . . . . .तुम्हारे मम्मी डैडी ठीक है न?”
“वे दोनों अच्छे हैं . . . . . लेकिन मेरा बुखार नहीं उतर रहा है।”
“फिर यहां क्यों बुलाया . . . . . . .मैं घर आ जाता” . . . . .तुम्हारे नोट ने डरा ही दिया था”
“मैं हमारी मुलाकात को छिपाना चाहती हूँ।”
“क्यों?”
“डैडी मेरे से बहुत ज्यादा नाराज हैं . . . . इतने कि घर छोड़ने का मेरा मन कर रहा है।”
“तुम पागल हो गयी हो?”
“मेरी एक मदद करेंगे?
“कैसी मदद?” मैं चौंका था।
“मेरे साथ नागपुर आयेंगे?”
“तुमने अपने घर में पूछ लिया है। “
“उनको बताना नहीं चाहती।”
फिर मैं आ न सकूंगा।”
“उनको कुछ भी पता नहीं चलेगा।”
“मैं भाई साहब को धोखा नहीं दे सकता।”
“और मुझे धोखा दे सकते हैं . . . . . . वे कौन से आपके सगे हैं . . . आपको टिफिन मुफ्त में नहीं दे रहे हैं।”
“यह बात नहीं . . . . तुम्हारे माता-पिता ने मेरा बहुत ख्याल रखा है।”
“और मेरे प्रति अपकी कोई जिम्मेवारी नहीं है?”
चित्रा के कहने में उपहास था। शिकायत भी। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। हमारी थोड़ी सी ही पहचान थी। हम संगीत विद्यालय में शाम के वक्त संगीत सीखने के लिए एक क्लास में इकट्ठे होते रहे थे। इस बारिश की शुरुआत से ज्यादा से ज्यादा तीन महीने हुए होंगे। वहीं पर इनके घर में टिफिन तैयार किये जाने की बात जानी थी। इनका एक आदमी मेरे घर दो वक्त का टिफिन पहुंचाने लगा था। इस तरह भाई साहब और भाभी से मिलना-जुलना शुरू हुआ। चित्रा का छोटा भाई कभी-कभार हमारे विद्यालय की लाइब्रेरी में आ जाया करता था। बच्चों की पत्रिकाओं के लिए।
मेरे बचपन के शहर से दो घंटों की दूरी पर स्थित, महाराष्ट्र के इस कस्बे में मैं इस बारिश की शुरुआत से रहने लगा था। केंद्रीय विद्यालय में अध्यापन के साथ-साथ स्कूल की लाइब्रेरी की व्यवस्था मुझे सौंपी गयी थी। महिने में दो बार एक-दो दिनों के लिए अपने शहर चले जाया करता था। बाकी का समय इसी कस्बे में बिताना पड़ता। यहां से थोड़ी दूरी पर सेवाग्राम, पवनार और भद्रावती नाम की जगहें थीं, जहां जाना अच्छा लगता रहा था। सेवाग्राम का इलाका गांधी से जुड़ा था, पवनार विनोबा भावे से। भद्रावती में पॉटरी का बड़ा सा केंद्र था, जहां कुम्हार अपना काम करते थे। मिट्टी से बनी चींजे बिकती थी। कुम्हारी सिखायी जाती थी।
चित्रा को मुझसे निराशा मिली। उसे लग रहा था कि मैं अगली बार उसे भी अपने साथ नागपुर ले जाऊंगा। वहां उनका कोई रिश्तेदार रहा होगा। मुझे चित्रा को उनके घर पर छोड़ना था।
“मैं कल सुबह ही भाई साहब से पूछ लूंगा।”
“इसकी कोई जरुरत नहीं है।”
“फिर तुम किसके साथ जाओगी?”
“क्या मैं अकेले नहीं जा सकती हूँ . . . . . . एडल्ट हो चुकी हूँ. . . . . .बच्ची नही हूँ।”
“लेकिन ऐसा क्या हो गया है?”
“आप पर भरोसा रहता तो आपको जरुर बताती . . . . पर आप भी बुजदिल निकले।”
“मैंने ऐसा क्या कह दिया है?”
वह देर तक चुप बनी रही। रात गहराने लगी। स्टेडियम को अंधेरे ने घेर लिया था। दूर की झोपड़ियों से आती मद्धिम-सी आती रोशनियों का एकाध धब्बा आसपास खड़ा था। वह अपने घर की तरफ बढ़ी थी। मैं उसे रुकने को कहता रहा। समूची स्थिति की जटिलता मेरे साथ खड़ी थी। मैं उसके साथ की ऐसी अकेली मुलाकात से भी भयभीत बना रहा था। संकोच और संशय से घिरा रहा था।
मैं अभी-अभी तो घर से बाहर निकला था। बी. ए. की पढ़ाई पूरी होते ही नौकरी के लिए पढ़ाई में जुट गया। मुझसे छोटी तीन बहनें थी। पिता की नौकरी के तीन साल ही बचे थे। घर में दादा-दादी के अलावा एक विधवा होकर हमारे साथ रही बुआ भी थी।
“अब तुम बड़े हो गये हो।” . . . . . . . दादा-दादी कहते रहते।
“तुमको अपने बाबू का हाथ बंटाना है “. . . बुआ समझाती रहती।
बाबू को रेल्वे का क्वार्टर मिला हुआ था। उनके पास न अपनी कोई जमीन थी और न ही कोई छोटा-सा, पुराना सा अपना घर। बरसों पहले दादा-दादी आंधप्रदेश से आये होंगे। दादाजी दर्जी का काम करते रहे। दर्जी की कमाई से ही अपने चार बच्चों का पालन-पोषण किया था। मेरे बाबू को ही मैट्रिक तक पढ़ा पाये और बाबू रेल्वे में बुकिंग क्लर्क बन गये।
“बाबू के रिटायर होते ही हम हैदराबाद लौट जायेंगे।” मां कहती रहती।
“वहां हमारा क्या बचा है?” बहनें पूछती।
“हमारा सब कुछ वहीं है . . . . . . .हमारे पुरखों का इलाका है . . . . यहां हमारा कौन है? “
“लेकिन घर कहां है?” बहनें पूछती।
“हम बना लेंगे” अम्मा जवाब देती।
अम्मा के इस हम में मैं भी शामिल था। बाबू को रिटायर होने के बाद मिलने वाले पैसों से तीनों बहनों की शादियां होनी थी। बाबू के अपने घर में मां-बाप के साथ और आठ भाई-बहनों का बड़ा सा परिवार रहा था। उनका विवाह चालीस बरस की उम्र में हुआ था। उनकी और दादा की कमाई पर ही सभी छोटे भाई-बहनों का पालन-पोषण हुआ। सबके विवाह हुए। सबकी गृहस्थियां बसी। बाबू अपना घर नहीं बना सके। रेल्वे क्वार्टर में ही सनतावन बरस की जिंदगी बीत गयी। उनकी अपनी, उनके माता पिता और बचे हुए हम सबकी। बाबू खूब ज्यादा मेहनत करते रहे। अम्मा ने भी खुद को पूरी तरह गृहस्थी में झोंक रखा था।
मैं यह सब कुछ चित्रा को बताना चाह रहा था। यह भी कि गरीबी में पले-बड़े लोगों की जिंदगियां ऐसी ही होती हैं। कठिनाइयों, तकलीफों और आधी-अधूरी तमन्नाओं से लबालब। गरीबी, अभाव और तंगहाली परिवार के एक-एक आदमी पर अपना बोझ डालती रहती है। किसी को भी उससे छुटकारा नहीं मिलता। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वह स्टेडियम के पास की अंधेरी और सूनी जगह से चली गयी थी। मैं उसके रोने-सिसकने की आवाजें सुनता रहा था।
उस शाम के बाद चित्रा से मिलना नहीं हुआ। वह शाम की संगीत की कक्षाओं में भी अनुपस्थित रही। मेरे अपने स्कूल जाते वक्त उसके कॉलेज के गेट की तरफ सहज ही मेरी निगाहें चली जाती। कभी- कभार उसे गेट के पास अपनी सहेलियों के साथ देखता आया था।
मेरे जेहन में स्टेडियम के करीब की उस शाम का ख्याल बना ही रहा था। फिर एक दुपहर में स्कूल के स्टॉफ रुम में अध्यापकों के बीच में इस कस्बे की एक ऐसी डॉक्टर पर बातचीत सुनी जो जवान होती हुई अविवाहित लड़कियों के अवैध रुप से किये जा रहे गर्भपातों के मामले में सुर्खियों पर आयी थी। इसी बातचीत में यहां के लोकल अध्यापकों को कस्बे में घट रही इसी तरह की घटनाओं के बारे में बोलते हुए सुन लिया। इन बातों का असर भी रहा होगा कि मैं एक शाम चित्रा के घर की तरफ निकल पड़ा था।
चित्रा का घर कस्बे की सरहद पर था। गांधी हिल्स के करीब कस्तूरबा नगर। वहां पर सड़क के दोनों किनारों पर खड़े हुए छोटे-छोटे मकान। वहीं चंपा के पेड़ के करीब का मकान। चित्रा के पिता हसन गैरेज में मोटर मैकेनिक थे। उसकी मां चार-पांच लोगों के लिए टिफिन तैयार कर उनके घर पहुंचाया करती थी। उनके घर से मेरे पास भी दोनों वक्त का टिफिन आता रहा था।
चंपा के पेड़ पर सितम्बर की शाम का अन्धेरा उतर रहा था। पेड़ से सटी हुयी एक लाल वाली रेसिंग साइकिल थी। पेड़ पर एक खुला पिंजरा टंगा था।
“पिंजरा खाली है” मैंने बाहर आये चित्रा के छोटे भाई से पूछा।
“हमने तोता पाला था . . . . .एक सुबह वह उड़ गया।“ शायद बिल्ली ने हमला किया होगा?”
“भाई साहब घर पर हैं?”
“आई घर पर है . . . . .बापू भी आते ही होंगे अंकल।
“और तुम्हारी अक्का? “
“वह बीमार है। “
“आई से कहो कि मैं आया हूँ।”
चालीस साल के बाद भी सितम्बर की उस ढलती शाम की याद बनी हुई है। हवा में हल्की सी ठंडक थी। मौसम में एक तरह का गीलापन। मैं छपरी में खड़ा रहा। वहां एक कोने में भूरे रंग की बूढ़ी बिल्ली बैठी हुई थी। उसके आगे एल्युमिनियम की एक तश्तरी थी, जिसमें दूध और रोटी के होने के निशान थे। धूसर रंग के परदे को हटाकर भाभी आयी थीं।
“आप कब आये . . . अंदर आ जाओ।”
“सेवाग्राम से लौट रहा था . . . . .याद आया कि यहीं आपका मकान है।” . . मैंने झूठ बोला था।
“इन्होंने बताया होगा।”
“भाई साहब कब आ जाते हैं?”
“पक्का नहीं रहता . . कभी कभी कोई कार बहुत समय ले लेती है . . . आजकल इनका एक मैकेनिक बीमार भी है। .आप बैठिये . . . . . .चाय लाती हूँ।”
उस हाल ही में बने मकान का बीच का कमरा ही बड़ा था। वहीं एक दीवार के करीब पलंग पर चित्रा लेटी हुई थी। दीवार पर साईबाबा की बड़ी सी काली-सफेद तस्वीर थी। एक रैक पर फिलिप्स कम्पनी का रेडियो, जिसका कुछ हिस्सा ढंका हुआ था।
“अब तबीयत कैसी है?”
“बुखार नहीं आ रहा . . . .कमजोरी है।”
“उसको जाने में समय लगता है।”
“आपको बापू ने बताया होगा?”
“तुम क्लास में नहीं आ रही थी . . . . मुझे लगा कि कोई बात हो गयी होगी।”
“मेरी उसी शाम को तबियत बिगड़ गयी थी।”
“तुम्हें इतनी दूर तक आना ही नहीं था।”
भाभी चाय कप की ट्रे के साथ कमरे में आयी थी। उसी तश्तरी पर चिवड़ा और गोरस पाक रखा हुआ था। अब बिल्ली यहां आ गयी थी। एक जगह पर खड़ी हुयी टुकुर टुकुर ताक रही थी। चित्रा ने भाई से कहकर बिल्ली को अपनी गोद में ले लिया। वह गांव तकिये के सहारे बैठे हुए बिल्ली की देह को सहला रही थी।
“आप इसे समझाते नही? “ भाभी कह रही थी।
“क्या बात है भाभी?”
“आपको भाई साहब ने बताया नहीं?”
“कुछ दिनों से उनसे मुलाकात नहीं हुई है . . .अगस्त में रोज ही मिलते रहे थे।”
“आपसे क्या छिपाना . . . .इसने एक रात अपने बापू की नींद की गोलियां खा ली थी अस्पताल ले जाना पड़ा था।”
“क्या कह रही हैं आप?”
“साईबाबा ने हमारी बला को टाल दिया…”
वे साईबाबा के सामने हाथ जोड़ रही थी। उनकी आंखें भर आयी। उनका बेटा उनके पास आ गया। वह अपनी मां को छूने लगा। भाभी का हाथ उसके सिर को सहला रहा था। चित्रा ने बिल्ली को सहलाना छोड़ दिया था। उसका चेहरा खींच सा गया था। उस पर गुस्सा उतर आया था। बीमारी ही नहीं, गुस्सा भी उसके चेहरे को बिगाड़ रहा था।
“ये क्या चाहती है . . . आप लोगों को इसके मन को समझना चाहिए!”
“जिस लड़के के साथ ये मिल रही है, वह अच्छा लड़का नहीं है . . . . .इसे छोड़कर सब उस लड़के को जानते हैं।” भाभी बता रही थी कि गांधी नगर में उसके पिता की स्टेशनरी की दुकान है। वह चित्रा का सहपाठी है। ये दोनों यहां-वहां एक साथ दिखाई देते रहे हैं। इसके बापू उस लड़के और उसके पूरे परिवार को जानते आये हैं। भाभी ही कहती रही थी। अपनी आर्थिक परेशानियों का जिक्र करती रही। भाई साहब की तबियत और इस घटना के बाद की उनकी मन:स्थितियों के बारे में बताती रही। वे रोने लगी थी।
“हमारा यहां कोई नहीं है” . . . .बड़ी मुश्किल से अपने दिन काट रहे है”
“सब ठीक हो जायेगा . . . . चित्रा एक समझदार लड़की है। . . . . .वह जरुर समझ जायेगी।”
मेरे यह कहते वक्त, मैंने चित्रा के दीवार की तरफ अपना चेहरा ले जाते देखा था। बिल्ली अब नीचे उतर आयी। भाभी ने वहीं खाने का आग्रह किया था। इसमें समय लग जाता। मुझे स्कूल से जुड़े कुछ काम निपटाने थे। मैं अपनी विवशता, अपनी सीमाओं को भी जान रहा था। मैं अच्छी तरह जानता था कि मेरे कुछ भी कहने–सुनने का उसका लिए जरा-सा भी अर्थ नहीं रहेगा। स्टेडियम के पास की उस शाम के पहले मैंने उस लड़की को इतनी गंभीरता से लिया भी नहीं था। बीच-बीच में, बहुत ही कम समय के लिए उससे मिलता रहा था। मेरे उनके घर से निकलते वक्त भी चित्रा ने अपना चेहरा दीवार की ही तरफ रखा था। वह मुझसे भी नाराज रही होगी। मैं उनकी छपरी की देहरी से उसके सिरहाने के करीब रखे स्टूल पर हवा से फड़फड़ाते हुए अखबार को देखता रहा। वहीं ग्लूकोज का पैकेट, दवाइयों की शीशियां भी रखी हुई थी।
“खाना भी ठीक से नहीं खा रही है” . . . . छोटे भाई ने कहा था।
“तुम चुप रहो” भाभी ने डांटा था
“मैं फिर आऊंगा . . . . इस उम्र में आदमी ऐसा हो जाता है।”
“आपसे चार-पाँच साल ही तो छोटी होगी . . . . . .आपसे जिम्मेवारी ही सीख लेती . . . “
मैं लौटते हुए अपनी उन्नीस-बीस की उम्र को याद करने लगा। बी. ए. का इम्तहान देने के बाद के गर्मियों के मेरे दिन। दिनभर आवारागर्दी में डूबा रहता था। बीयर और सिगरेट पीने लगा था। घर के बिजली और पानी के बिल भरने में देर होने लगी। अम्मा की हैदराबाद में अपनी बूढ़ी मां को लिखी गयी चिठ्ठियां दिनों दिन तक पोस्ट नहीं होती। इस पर से मैं पड़ोस के घर में झाडू-पोछा करने के लिए आती मुझसे उम्र में बड़ी लड़की से लगाव रखने लगा था। घर के लोग मुझसे परेशान रहने लगे थे।
“तुम अब बच्चे नहीं रह गये . . . . बीस साल की उम्र कुछ कम नहीं होती” बाबू समझाते रहते। घर में तीन-तीन लड़कियां हैं, तुम उनके बड़े भाई हो और वे तीनों तुम्हें देखती रहती हैं” मां समझाती रहती। मैं बुरी संगत में पड़ गया था। अपनी परिस्थितियों को भूलने लगा था। मुझे अपनी उन भूलों, भटकावों का फल भुगतना पड़ा। इम्तहान का नतीजा निकला। मैं थर्ड क्लास में पास हुआ था। मेरे दो-तीन साथी फेल हो गये श। बाबू को धक्का लगा। अम्मा की बेचैनियां बढ़ गयी। मैं कभी भी इतना खराब रिजल्ट लिए हुए नहीं रहा था। रिजल्ट के दिन जब ‘कश्मीर बीयर बार’ में अपने फेल होने के बाद मटर-गश्ती करते हुए दोस्तों को हंसते-हंसाते हुए देख रहा था, तभी अपने लिए शर्म, अपने लिए नफरत की शुरुआत होने लगी थी।
मैं लौटकर भाभी से यह सब कहना चाह रहा था। चित्रा के सामने कहना चाह रहा था। मैं पूरी तरह फिसल ही जाता। गहरे गड्डे में ही गिर जाता। मेरा यहां तक आना मुश्किल ही रहता। अगर कश्मीर बीयर बार की उस दुपहर में, बिजली की तरह मेरे भीतर यह सवाल नहीं कौंधता कि मैं अपने जीवन का कर क्या रहा? यह सवाल मेरे भीतर से आया था। मेरा अपने आप से अपना ही सवाल। उन दिनों मैं अपने सवालों के साथ रहा था।
आज मुझे लगता है कि हम सबकी जिंदगी कभी न कभी हमारे सामने कुछ सवाल खड़े ही करती रहती है। बस हमें उन सवालों के साथ रहने, उनसे मुंह न मोड़ने का साहस जुटाते रहना चाहिए। एक न एक दिन चित्रा के साथ भी यह घट सकता है। किसी दिन अचानक ही उसे अपनी नादानियों का नर्क सताने लगेगा।
यह सब एक उम्र का तकाजा है । जवानी की शुरुआत के दिनों के कुछ भ्रम, जिनसे धीरे-धीरे छुटकारा मिल ही जाता है।
उस रोज मैंने पाँच किलोमीटर की दूरी पैदल ही तय की थी। सितम्बर की शाम थी। हल्की-हल्की सर्दियों की शाम। गांधी हिल्स के नीचे की लम्बी, नयी और सूनी सड़क। पहाड़ी पर पेड़ ही पेड़ खड़े हुए, बीच-बीच में आते लैम्पपोस्ट जहाँ इक्का-दुक्का कोई आदमी बैठा हुआ नजर आ जाता था।
उसी शाम मेरे भीतर उस शाम की याद भी जबरदस्त ढ़ग से लौटी थी, जब चित्रा मुझसे मुलाकात के लिए कस्बाती स्टेडियम के करीब के उजाड़ तक आयी थी। यह मेरी जिंदगी में पहली बार था कि कोई लड़की मेरा इन्तजार कर रही थी। मुझे अपने कुछ होने का अहसास दिला रही थी। मैं वहाँ गया भी। मैंने उससे बातचीत भी की थी। पर मैंने ऐसा एक वाक्य भी नहीं कहा था जो मुझे ऐसी नाजुक, ऐसी निणर्यक घड़ी में किसी लड़की से कहना चाहिए था। अब मैं उस शाम को, अपनी इस शाम में बार-बार देख रहा हूँ। बार-बार महसूस कर रहा हूँ।
इधर मेरे जीवन की वह शाम लौट-लौट आती है। मैं कितनी ही बार चालीस साल पहले की उस सूनी, अंधेरी जगह पर पहुंच जाता हूँ। मेरा क्या है उस जगह पर? मेरा कौन खड़ा हुआ है उस स्टेडियम के करीब? क्या हमारा बुढ़ापा, हमारे ही जीवन के अतीत में खड़े हुए सुख और सान्तवना के क्षणों को पुकारने लगता है?
कोई आदमी इस सृष्टि में बरसों का अपना जीवन बिताता है। तरह-तरह की घटनाओं का सामना करता है। किस्म-किस्म के अनुभवों से गुजरता है। पर उसके जीवन के अंत-अंत तक उसे अपने ही जीवन का कितना कम याद रह जाता है। कितना मामूली-सा, कितना महत्वहीन भी। लेकिन क्या वह सब सचमुच में उतना ही मामूली-महत्वहीन रहता है?
स्टेडियम के पास की उस शाम को याद करता हूँ, तब यह याद नहीं आता है कि चित्रा वहां तक पैदल आयी थी या लाल रंग की अपनी रेसिंग साइकिल पर? चित्रा को अपनी रेसिंग साइकिल से संगीत विधालय के परिसर में आते हुए कितनी बार देखा था।
स्टेडियम की शाम के लगभग दो बरस बाद औरंगाबाद के एक सब-इंजिनियर से चित्रा का विवाह हुआ था। मैंने आखरी बार उसे बम्बई की तरफ जाती हुई दादर एक्प्रेस के स्लीपर कोच की खिड़की पर देखा था। चालीस बरसों के बाद अब यह याद नहीं आता की मैंने चित्रा को पहली बार कब देखा था, कहां देखा था? शायद वह आसावरी संगीत विधालय की सीढ़ियों से हाथों में तानपुरा लिए उतर रही थी या वह उस लड़के के साथ मेरे घर आयी थी जो मेरे लिए सुबह-शाम टिफिन ले आया करता था।
आदमी की स्मृति भी बरसों से बड़ा भारी रहस्य रहती आयी है। कौन सी याद, कब किसी को दबोच लेगी इसका अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता है। मैंने कहां सोचा था कि मैं चालीस बरस पुरानी अपनी किसी याद से इतनी बुरी तरह घिर जाऊंगा? कस्बाती स्टेडियम के करीब की उस शाम की याद मुझे उन दिनों के अपनी कस्बाती जिंदगी के इतने अलग–अलग हिस्सों में ले जायेगी? मैं उन बरसों के पेड़ और पहाड़ियों को, रास्तों और मैदानों को, सीढ़ियों, लोगों, चौराहों और मौसमों को याद करने लगूंगा?
चित्रा को उसके विवाह की पोशाक में दादर एक्प्रेस की खिड़की के पास आखरी बार देखा था। बहुत बरसों के बाद उसके माता-पिता और भाई से एक बार मिलना हुआ था। अपने शहर के रेल्वे प्लेटफार्म पर जहां पर वे तीनों बम्बई जाने वाली ट्रेन का इन्तजार कर रहे थे। उनसे ही जाना था कि चित्रा दो लड़कियों की मां बन चुकी है। औरंगाबाद के एक प्रायमरी स्कूल में पढ़ाती है। वहीं के किसी संगीत विधालय में वायलिन बजाना सीख रही है।
बहुत ही सुंदर, स्लाइस ऑफ लाइफ विधा की कहानी। जयशंकर जी की कहानियों में ‘मा’ का अत्यंत महत्व रहता है। जापानी संस्कृति में मा का अर्थ ‘empty space’ से होता है। पर इस स्पेस का अर्थ खालीपन नहीं, वरन अनेकों संभावनाओं को कभी छिपाता, कभी उधेड़ता आवरण होता है। इस कहानी में जयशंकर जी की बाकी कहानियों की भांति न भावनाएं हावी हुई हैं, न प्लॉट, न किरदार। एक जीनियस कलाकार की भांति यदि यहां कुछ दैदीप्यमान है–तो मानव होने का ‘मानवपन’ (यहां मानवीयता शब्द प्रयोग नहीं कर रही क्योंकि मानवीयता का प्रचलित अर्थ नैतिकता के बंधन से बंधा हुआ है।) जयशंकर जी का लेखन सदैव मुझे चेखव एवं तुर्गनेव का स्मरण कराता है। आशा है किसी सुधी, सधे अनुवाद द्वारा उनकी कहानियों का सही मूल्यांकन विश्व पटल पर हो सके।
जयशंकर जी की नयी कहानी ‘याद’ अभी पूरी पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। यह सिर्फ एक पुरानी ‘याद’ की कहानी नहीं है । यह ‘याद करने के सलीके’ के बारे में भी है ।
एक अनायास उभर आई, बरसों पहले एक अन्य शहर की लौटती बारिश के दिनों की, रात को छूती हुई एक शाम की याद को लेखक ने कितनी नाजुकी, आहिस्तगी और सम्मान के साथ शब्दों में रखा है। उन्होंने उस पल को पुनर्जीवित किया है लेकिन उसे किसी अतिरिक्त अर्थ का बोझ नहीं दिया। उसका जो भी अर्थ है वह उसके होने में ही है। यही उसकी खूबसूरती है।
“पर मैंने ऐसा एक भी वाक्य नहीं कहा था जो मुझे ऐसी नाजुक, ऐसी निर्णायक घड़ी में किसी लड़की से कहना चाहिए था ।“
इस एक वाक्य ने पूरी कहानी का हृदय खोल दिया। इसे पढ़ते हुए अनगिनत ख्याल घिर आए और कितनी ही पुरानी बातें याद हो आयीं।
जयशंकर जी को इस सुंदर कहानी के लिए बहुत बधाई ।