क्या नाम है इस स्टेशन का? स्टील के बेंच पर बैठी मैं अपने चारों ओर देख रही हूँ। एकदम निर्जन… दूर-दूर तक कोई नहीं… स्टेशन के नाम की पट्टिका भी कहीं दिखाई नहीं दे रही… गहरी ऊमस के बाद हवा चलने लगी है… हवा तेज होती जा रही है… हवा के तेज होते ही बत्ती गुल… मैं काँप उठी… चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा… आँधी के साथ आई बारिश की तेज बौछारों से टीन की छत शोर मचाने लगी है… भींगने से बचने के लिए मैं अपने पैरों को सिकोड़ लेती हूँ… खुली बाँहों की पतली टी-शर्ट में ठंड लगने लगी है… अपनी हथेलियों से बाँहों को ढकने के असफल प्रयास में और भी सिकुड़ जाती हूँ… ठंड से काँपने लगी है मेरी देह… वॉशरूम जाने की इच्छा देह के भीतर उमड़ने लगी है… इच्छा तीव्र होती जा रही है… और तीव्र… और आँखें खुल जाती है…
पर्दे का उदास रंग… गुलाबी दीवारें… स्टडी टेबल पर रखी किताबें… खिड़की से आती ठंडी हवा… कोने में रखा बड़ा सा सूटकेस…
ओह श! मैं तो अपने घर पर, अपने कमरे में हूँ… रात लंबे सफर की थकान के बाद होश ही नहीं रहा कि यहाँ सुबह-सुबह ओढ़ने के लिए दोहर की जरूरत पड़ती है। लगता है, रात बारिश हुई है। जब सोई थी, तब गहरी ऊमस वाली गर्मी थी। जल्दी से उठकर पंखा बंद कर दिया है।
वॉशरूम जाने के लिए दरवाजा खोलकर बाहर जाना पड़ेगा। कमरे के साथ अटैच नहीं है। एक साधारण से सिपाही की नौकरी करने वाले पापा को, इस दो कमरे के छोटे से घर को बनाने के लिए, बैंक से कर्ज लेना पड़ा था। जिसकी, अदायगी आज तक नहीं हो पाई है। फिर, भाई की इंजीनियरिंग की फीस और मेरी शादी के खर्चे…
जब हम सब किराये के एक कमरे वाले घर में रहते थे, दिन हो या रात, अँधेरे गलियारे को पार करके वॉशरूम जाना पड़ता था। सोचा करती थी…जिस दिन अपना घर होगा… अपना कमरा होगा… …तो कमरे के साथ अटैच्ड.वॉशरूम भी होगा… कभी भी किसी अँधेरे गलियारे से गुजर कर वॉशरूम नहीं जाना पड़ेगा… न ही उसके वॉशरूम में कोई और आएगा। लेकिन वह इच्छा, बस एक चाहत बनकर ही रह गई। तब कहाँ समझ आता था कि, उन जैसे साधारण लोगों को इस तरह के आभिजात्य सपने नहीं देखने चाहिए।
कमरे का दरवाजा लिविंग रूम में खुलता था। उसके बाद किचन फिर वॉशरूम और आखिर में पापा-मम्मी का कमरा।
अभी वॉशरूम का दरवाजा खोलने ही वाली थी कि पापा की भारी भरकम आवाज को मम्मी से फुफुसाते हुए सुना “कुछ पता चला कि, श्रेया अकेले क्यों आ गई है? वह भी इतनी जल्दी?”
“आप भी न, हद करते हैं! पहली बार बेटी ससुराल से घर आई है, और आप हैं कि खुश होने के बजाए शक कर रहे हैं!” मम्मी ने झिड़क दिया।
“जितना बड़ा सूटकेस लेकर आई है, लगता नहीं है कि वापस जाएगी। अच्छा हुआ कि, देर रात को आई है नहीं तो मोहल्ले वालों से झूठ बोल-बोल कर परेशान हो जाते!” पापा की आवाज मे अजीब सी खिसियाहट और आत्महीनता थी। हर रोज फोन पर मिलने वाली आवाज और इस आवाज में जमीन आसमान का फर्क था।
“आप तो यही चाहते थे! …कि बेटी रोती बिसूरती वापस आ जाए! और कुछ हो न हो आप बस सही साबित हो जाएगें! है न?” मम्मी ने पूरे कड़वाहट से प्रहार किया।
तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया! हम अईसा काहे सोचेगें?”
बस और नहीं सुनना है मुझे! वॉशरूम में घुसकर मैंने जान बूझकर इतनी जोर से दरवाजा बंद किया कि मम्मी-पापा अलर्ट हो जाएं। पापा-मम्मी की बहस कोई नई बात नहीं थी। मैं नहीं चाहती थी कि, मम्मी, पापा से बहस करके अपना मूड खराब कर लें। अरसे बाद आज इतनी गहरी नींद आई थी। आज बस मम्मी के हाथों का मनपसंद खाना खाकर खुश रहना चाहती थी।
…तो क्या अब तक मैं खुश नहीं थी?
स्वयं से पूछा… आज ही क्यों? पिछले कुछ महीनों से लगातार स्वयं से यही प्रश्न पूछ रही हूँ। सब कुछ तो मेरे अनुसार हुआ। लड़का मेरी पसंद का! विवाह की सारी तैयारी मेरी पसंद की! फिर ऐसा क्या है जो, “समथिंग मिसिंग”सा लग रहा है?
फिर से कमरे में आकर लेट गई हूँ…
पापा बिल्कुल नहीं चाहते थे कि, मैं फेसबुक पर की गई अभिनव से दोस्ती पर इतना भरोसा कर लूँ ! इतना कि, पूरब से जाकर दक्षिण भारत के सुदूर प्रदेश में किसी अनजान के साथ घर बसा लूँ। मैंने और अभिनव ने बहुत कोशिश की थी कि, पापा सहज हृदय से अपनी स्वीकृति दें लेकिन, पापा को यही लगता रहा कि, एक तेलुगु भाषी परिवार, इतनी दूर बिहार के किसी हिन्दी भाषी परिवार के साथ रिश्ता क्यों जोड़ना चाहता है?जरूर, तेलंगाना में कन्या नहीं मिल रही होगी इसलिए, मीठी-मीठी बातों के जाल में उलझा कर रिश्ता जोड़ लिया। पता नहीं क्यों, दुनिया के तमाम माता-पिताओं को उनके अपने बच्चे मासूम और दूसरों के बच्चे चालाक क्यों दिखाई देते हैं?
उन्हें मालूम ही नहीं था कि अभिनव के एक पोस्ट पर मैंने ही सबसे पहले लाइक और कमेंट किया था। फिर शुरू हुआ था तार्किक बहसों का सिलसिला। इनबॉक्स पर किए गए सवाल-जवाब कब सामान्य से व्यक्तिगत हो गए पता ही नहीं चला।
अब सोचने पर लगता है कि मैं कितनी व्यग्र थी, बातें करने के लिए, किसी भी अनजान से। अपनों से कह नहीं सकती थी। ऐसा नहीं था कि, कहना नहीं चाहा था मैंने। लेकिन पहली बार जब हमारे मकान मालिक के बेटे ‘बब्बन’ ने अँधेरे में मुझे दबोचा था, किससे कहती! “कहीं किसी से बता दिया तो? बात फैलेगी! फैलेगी तो दूर तक जाएगी !”
आठ साल की उम्र में कहा था मम्मी से। मम्मी ने पापा तक को नहीं बताया। ऊपर से ये सारे डर, मन में भर दिए सो अलग!
भीतर-ही-भीतर सुलगती रही मैं… अंगारे जलते रहे… …और पकती रही कुंठा और बेबसी… भागती रही … किससे ?… नहीं मालूम! भागना है बस… कभी क्लास बंक करके यूँ ही घूमते रहना… कभी इस मॉल में तो कभी उस मॉल में… जेब में पैसे होते नहीं थे। फिर भी… जब तक पैरों के तलवे जवाब न दे दें… बस घूमते रहना है…! विंडो शॉपिंग करते-करते मॉल की हर दुकान के बारे में इतना कुछ जान गई थी, कि अब बिना देखे ही बता सकती थी कि कहाँ क्या रखा होगा। शाम को जब थकी हारी घर लौटती तो किताबें मुँह चिढ़ाने लगती। आसान सवालों के हल निकालती। कठिन सवाल आते ही, चिड़चिड़ाहट हावी हो जाती। कभी गुस्से में आकर पेन की निब तोड़ देती… तो कभी चादर तान कर सो जाती… । सपने में कभी, दिन भर की देखी हुई दुर्लभ चीजों के बीच स्वयं को पाती… तो कभी किसी अरण्य में भटकती हुई खाई में गिरने लगती… पसीने से लथपथ बीच नींद में उठ बैठती… तो कभी, दो सख्त खुरदुरे हाथ दबोचने लगते मुझे। घबड़ाकर उठ जाती। सुबह उठती तो, पहले दिन की थकान हावी रहती।
झूठ बोलने की कला में जो निपुणता आ रही थी, सो अलग! कभी कहती कि “मम्मी! आज क्लास कैंसिल है!”, तो कभी कहती, “आज एक्सट्रा क्लासेस थे!” परीक्षा नजदीक आते ही घबड़ाहट बढ़ जाती। प्रश्न पत्र मिलते ही हथेलियों में पसीना आ जाता। घुमावदार प्रश्न तर्क माँगते और मैं, भागती हुई स्मृतियों के जंगल में भटकने लगती जहाँ वे दो खुरदुरे हाथ, अपनी बेशर्म हँसी के साथ मौजूद रहते। बस पास होने भर के नंबर आते। हरेक रिजल्ट पापा के माथे पर एक शिकन और बढ़ा देता। पापा की उम्मीदों पर खरा न उतर पाने की ग्लानिमुझे इतना कमजोर कर देती कि, मैं नज़रें मिलाकर बातें करने से बचने लगी थी।
किसी तरह से स्कूल की परीक्षाएं पास करके कॉलेज पहुँची। कॉलेज जाने का समय स्कूल के समय से अलग था। यह वही समय होता जब आम लोग दफ्तर के लिए निकल रहे होते। अब अक्सर ऐसा होने लगा कि वे दो पाशविक हाथ, पूरे शरीर के साथ बीच सड़क में टकराने लगे। मुझे उससे ज्यादा मम्मी पर गुस्सा आता। तंग आकर एक दिध मैंने मम्मी से कहा कि “अब मैं अकेले नहीं जाऊंगी। या तो पापा से सबकुछ बताकर उसकी पिटाई कराओ! या तो तुम साथ चलो!”
मम्मी ने फिर से वही बच कर निकलने का रास्ता चुना। “बेटा ! वह हमारे पुराने मकान मालिक का बेटा है। इस शहर में आने के बाद उसके घर पर ही हमें आश्रय मिला था। पापा से कुछ भी बोलने का मतलब है, लड़ाई झगड़ा होगा और रिश्ता खराब होगा। फिर हमारा समाज ऐसा है कि, बदनामी सिर्फ लड़कियों के हिस्से आती है। तुम तो समझदार हो! ”
मम्मी ने बस इतना किया कि, पापा से बोलकर स्कूटी दिलवा दी । स्कूटी यानि कहीं भी आने-जाने की आज़ादी। मेरे तो जैसे पंख लग गए। पापा का ट्रांसफर जब दूसरे शहर में हुआ, कैसे पापा के हिस्से का काम मेरे जिम्मे आ गया, पता ही नहीं चला। किसी भी चीज की जरूरत होती, स्कूटी लेकर निकल पड़ती। खोया हुआ आत्मविश्वास, पुन: जागने लगा था। लेकिन अब बब्ब्न , जब-तब अचानक मोटरसाइकिल पर सवार होकर प्रकट होने लगा। कभी सामने से आकर रास्ता रोक लेता तो कभी साथ-साथ चलने लगता । मेरे हाथ काँपने लगते। हथेलियों में पसीना आ जाता। मैं लड़खड़ाने लगती और वह पूरी बेशर्मी के साथ हँसते हुए निकल जाता। मैं घर से निकलने से पहले मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना करती कि, “हे भगवान! आज मैं उसका चेहरा देखना नहीं चाहती। बचा लेना मुझे!” भगवान कभी-कभी तो सचमुच बचा लेता, लेकिन अक्सर भूल जाता ।
मेरे भीतर बची आस्था आहत होते-होते खत्म होने लगी थी। शायद पूरी तरह खत्म भी हो जाती, अगर अभिनव न आया होता जीवन में। इंटरनेट नामक चिड़िया हाथ आई, तो एक नया संसार खुल गया था मेरे सामने ! …और सामने आया था अभिनव…! अँधेरी गलियों से खींचकर तार्किक दुनिया में ले जाने… जीवन को मायने देने! स्मृतियों में पड़ी स्याही धुलने लगी थी… अँखुवाने लगा था भीतर कुछ… जिसकी तलाश मैं कर रही थी… । अभिनव का भरोसा मिला! साहस मिला! मैंने सबकुछ बता दिया अभिनव को। वह मेरे भीतर की गिरहों को धीरे-धीरे खोलने का प्रयास करने लगा। एक दिन अचानक ही अभिनव का मैसेज मिला “तुम्हारे शहर में हूँ ! रात की ट्रेन से वापसी है और पूरे दिन का समय है मेरे पास। कहाँ मिलूँ?”
मैं असमंजस में। क्या करूँ? कैसे जाऊँ? बात करने तक तो ठीक था लेकिन… नाराज नहीं करना चाहती थी… खोना नहीं चाहती थी एक ऐसे दोस्त को, जिसके साथ मैं बेहिचक होकर अपने जीवन के सारे राज बाँट सकती थी। अतत: तय किया कि, वाटर फॉल चलते हैं। मम्मी से कहा कि “मेरी फ्रेंड की तबियत खराब है, वह अपनी नानी के साथ रहती है। इसलिए मैं उसे डॉक्टर के पास लेकर जा रही हूँ।” एक और झूठ!
चट्टानों पर तेज रफ्तार से गिरती नदी के जल का विहंगम दृश्य सामने था। चट्टानों पर टकराकर बूँदें धुँवा-धुँवा हो रही थी। पानी का शोर, भीतर-ही-भीतर एक आवेग पैदा कर रहा था जिसे, संभालना मेरे लिए मुश्किल था। मैं ऊबड़-खाबड़ चट्टानों से होती हुई, पानी की तरफ उतर गई। “बी केयरफुल! बी केयरफुल! ” करता हुआ अभिनव भी मेरे पीछे-पीछे आ गया था। मैं देर तक पानी से अठखेलियाँ करती रही। अभिनव खुश होकर मुझे देखता रहा। तस्वीरें लेता रहा। कुछ देर बाद अभिनव ने कहा चलो उधर चल कर बैठते हैं। वहाँ का पानी बिल्कुल शांत था। ऐसा लग रहा था जैसे, चट्टानों से खेलने के बाद पानी थक कर बैठ गया हो। हम पैरों को पानी में डुबोये एक चट्टान पर बैठ गए थे। धीमी-धीमी उठती लहरें तलवों को सहला रही थी। मेरा रोम-रोम खिल उठा था। सब कुछ स्वप्न सा लग रहा था। अभिनव मेरे बहुत करीब आ गया था। मैं अपनी दोनों हथेलियाँ चट्टान पर टिकाए बेफिक्री में यहाँ-वहां की बातें किए जा रही थी। अचानक मुझे महसूस हुआ कि, अभिनव के हाथ मेरे हाथ के ऊपर आ गए हैं। मैंने झटके से अपने हाथ खींच लिए… सहसा मैं सतर्क हो गई… चुप हो गई… अभिनव सॉरी सॉरी कहता रह गया लेकिन, मैं और बात ही नहीं कर पाई। जाने क्यों मन रूआँसा सा हो उठा। ‘मम्मी से झूठ बोलकर क्या कर रही हूँ मैं ?’ मन में ग्लानि के भाव उठने लगे। कुछ देर तक बिल्कुल चुप रहे हम दोनों… ठहरे हुए जल को निहारते हुए…
शाम को घर लौटकर भी बात करने की इच्छा नहीं हुई। कई दिनों तक केवल औपचारिक बातें ही करती रही अभिनव से। तलाशती रही उस एक क्षण के कारण को, जिसने मेरे भीतर के उल्लास को नाग की तरह डस दिया था। लेकिन, अभिनव में बातचीत का वह कौशल था कि, मुझे तमाम असहजताओं से बाहर निकाल सके। अभिनव के लिए, मेरे मन में सम्मान धीरे-धीरे बढ़ने लगा था। हमने एक-दूसरे को और जाना। फिर मिले, लेकिन अभिनव ने हमेशा अपनी सीमाओं का… मेरी सहजता का ध्यान रखा। फिर तय किया कि घर पर इस बारे में बताया जाए। बहुत ही मान-मनुहार के बाद दोनों परिवारों ने रिश्ते को माना । धीरे-धीरे सबकुछ वैसा ही होता चला गया जैसा हमने चाहा था। लेकिन पापा के मन में अभिनव को लेकर एक संदेह बना हुआ ही रहा। मम्मी पूरे दिल से साथ रहीं, धूमधाम से शादी हो गई। नई गृहस्थी की हमारी रोमांचक यात्रा शुरू होने वाली थी। अभिनव बहुत ही ज्यादा खुश था। लेकिन, मैं भयभीत थी। जाने क्यों? जैसे ही अभिनव मेरे करीब आने की कोशिश करता, मैं काँप उठती। हाथ-पाँव थरथराने लगते। अभिनव मुझे सहज करने के लिए कहता “ओके ! आई विल वेट ! व्हेनेवर यू विल फील कम्फर्टेबल !” मुझे अपने-आप पर खीज होने लगती।
अभिनव मेरा ध्यान बँटाने के लिए कभी मूवी का तो कभी यूँ ही नदी किनारे घूमने का प्रोग्राम बनाता रहता । वह मेरे मन में पड़ी गाँठ को अच्छी तरह समझता था। खोलने का प्रयास भी कर रहा था, लेकिन, मैं ही अक्षम थी। जाने कैसी जकड़न थी, जो, छूट ही नहीं रही थी
एक दिन हम दोनों यूँ ही नदी किनारे बैठे थे। तभी अभिनव ने कहा, “जानती हो श्रेया ! दुनिया की नज़र में मैं एक कामयाब प्रेमी हूँ, लेकिन मैं अपने-आप से नजरें नहीं मिला पा रहा हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि, असह्य तपिश से बचने के लिए जैसे ही मैं नदी तट पर जाता हूँ… जल को अपने कोमल हाथों से स्पर्श करना चाहता हूँ… हथेलियों में सूखे रेत भर जाते हैं… रेत की किरचें मेरी शिराओं में रेंगने लगती हैं… …और मैं असहाय सा देखता रह जाता हूँ।”
मैं नि:शब्द ! बस नदी की मन्द धारा को देखती रह गई।
फिर एक दिन मैंने तय किया कि, मुझे अपनी छूटी हुई पढ़ाई फिर से शुरू करनी है। यहाँ रहकर ही। अभिनव से कहा कि, मुझे अपने कुछ जरूरी सामान, किताबें और सर्टिफिकेट्स लेने घर जाना होगा। अभिनव साथ आने की जिद करते रहे, लेकिन मैंने मना कर दिया और मम्मी-पापा, भाई के लिए बहुत सारे गिफ्ट्स लेकर आ गई।
“श्रेया ! श्रेया ! उठ जा बेटा ! बहुत देर हो गई है। फ्रेश होकर नाश्ता कर ले!” मम्मी ने कमरे में आकर कहा तो मेरी नींद खुली। पापा ऑफिस जा चुके थे। मैने फ्रेश होकर चुपचाप अपना नाश्ता निपटाया। देखा मम्मी जल्दी-जल्दी अपना काम निपटा रही थी। ताकि, मेरे साथ फुर्सत में बैठकर बातें कर सके। मैं इसी बात से बचना चाह रही थी। लेकिन, कब तक बचती। इसी बचने के चक्कर में तो दब्बू बनकर रह गई थी। नहीं ! अब और देर नहीं करना है ! मैंने अपने आप से कहा और मम्मी से खुद ही बात करने की पहल की।
“मम्मी ! दुनिया में ऐसा कोई इरेजर होता है क्या जो, पुरानी यादों को मिटा सके?” मम्मी किचन साफ कर रही थी। मैं पीछे से उनके गले में झूलते हुए बोली।
“इतना आसान तो नहीं होता है बेटा! लेकिन, किसी खराब अनुभव को भूलना हो तो अच्छे अनुभवों को जमा करना शुरू कर देना चाहिए। यही एक आसान रास्ता है।”
“फिर भी न भूल पाए तो? कुछ अनुभव लाईलाज बीमारी की तरह भी तो होते हैं न !”
“तो उस बीमारी की वजह को ढूंढ कर हमेशा के लिए उससे परहेज कर लेना चाहिए।”
“तो फिर तुम ऐसा क्यों नहीं कर पाई मम्मी? जब बचपन में बब्बन मेरे मन में घाव दे रहा था तब तुम उसको सबक क्यों नहीं सिखाई? आज वो घाव बीमारी बन गया है मेरे भीतर। मैं दब्बू बनकर रह गई हूँ। खुलकर अपनी जिंदगी नहीं जी पा रही हूँ। गलत तो उसने किया न… और सजा मैं भुगत रही हूँ।” मम्मी के हाथ रूक गए। वह निःशब्द हो गईं।
“सब ठीक है न बेटा ?” मम्मी के सवाल में चिंता से ज्यादा भय मौजूद था…
“क्या करोगी जानकर मम्मी ! तुम भी उन्हीं लोगों में से हो जो, जब तक हत्या या रेप न हो जाए, तब तक कुछ भी हो जाए किसी लड़की के साथ, वो घटना नहीं हो सकती है ! है न !” मैंने बड़ी बेरूखी से मम्मी पर तंज किया। गुस्सा तो पहले भी मुझे आता था लेकिन, केवल प्रतिरोध और खीज के रूप में प्रकट होता था। उसमें हताशा शामिल नहीँ हुआ करता था। आज पहली बार मम्मी मेरे, हताश व बेबस गुस्से को देखकर हैरान थी। उनका चेहरा रूआँसा हो आया।
मैंने चुपचाप खूँटी से स्कूटी की चाभी उतारा और बाहर निकल गई । मम्मी पीछे से आवाज लगाती रही… बेटा ! कहाँ जा रही हो ! जब तक मम्मी गेट तक पहुँचती मेरी स्कूटी के पहिए फर्राटे से सड़क नाप रहे थे । लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर ही तोउसका घर था। मेरे भीतर का आवेश ऐसा था कि, तनिक भी देर किए बिना मेरी ऊँगलियाँ कॉलबेल के स्विच पर थी।
“जी कहिए !” सिर पर पल्लू लिए एक युवा महिला ने दरवाजा खोला । कई सालों बाद यहाँ आई थी । एक अनजान महिला को देखकर मुझे समझ में नहीं आया कि क्या कहूँ । मैं सोच ही रही थी कि, भीतर से आँटी यानि हमारी मकान मालकिन की आवाज आई “कौन आया है कनिया !”
“ नमस्ते ! मैं श्रेया ! इसी घर में पहले हम किराएदार थे… ” मैंने हिचकिचाते हुए कहा ।
“अच्छा तो आप श्रेया हैं ! मम्मी जी, आप लोगों के बारे में खूब बातें करती हैं । खूब तारीफ करती रहतीं हैं आपकी मम्मी की । आइए न ! ये ऑफिस के लिए निकलने ही वाले हैं । उसके बाद आपसे खूब बातें करेंगे !”
“नहीं… अभी नहीं…! कभी इत्मीनान से आकर बात करूँगी । आप अपना फोन नंबर दे दीजीए, कॉल करके आऊँगी !”
उनका फोन नंबर लेकर मैं तेजी से वापस आने लगी । क्या करना है, पता नहीं… लेकिन अपनी सारी कुँठाओं को आज बहा देना चाहती थी । अपने घर की तरफ मुड़ने वाली सड़क के पास आकर मैं रूक गई । घर जाने का मन नहीं था । समझ में नहीं आ रहा था कि, ऐसा क्या करूँ जिससे मन को शांति मिले । थोड़ी दूर पर एक मंदिर था । मैं अपनी स्कूटी उसी तरफ बढ़ा दी । मंदिर छोटा था लेकिन, बड़े से अहाते के भीतर था । चारों ओर फूल लगे थे । बैठने के लिए, सीमेंट के बेंच भी थे । अपनी स्कूटी को सड़क किनारे पार्क करके मैं अंदर जाने ही वाली थी कि, बब्बन को मोटरसायकिल से आते देखा । मेरा सारा क्रोध पानी हो गया । हथेलियाँ पसीजने लगी । भय के मारे मैंने मोबाईल का वीडीयो रिकार्डर ऑन करके मंदिर के अंदर चली गई । सीढ़ीयों के नीचे ही भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़ी हो गई । मन-ही-मन प्रार्थना करने लगी कि, वो इधर बिना देखे ही निकल जाए । लेकिन, कुछ ही क्षण में मुझे अहसास हुआ कि, किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा । मुड़कर देखा तो वही पिशाच दाँत निपोर कर खड़ा था ।
“कब आई? सुने कि, तुमरा शादी हो गया!” बेशर्म हँसी हँसते हुए वह बोला तो घृणा और क्रोध से मेरा मन भनभना उठा। मैंने उसका हाथ झटका और तेजी से वहाँ से बाहर निकल गई। वह भी मेरे पीछे-पीछे आ रहा था, लेकिन किसी अन्य को देखकर ठिठक गया। घर जाकर मैंने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया। अपने आप पर ही झुँझलाहट हुई कि उसे देखते ही कमजोर क्यों पड़ जाती हूँ, थप्पड़ क्यों नहीं मारा। सैंडल खोलकर उसकी ठुकाई करना चाहिए था मुझे। लेकिन नहीं, शैतान को देखा नहीं कि, हाथ-पाँव थरथराने लगते हैं! दूसरे प्रदेश के एक अनजान से रिश्ता जोड़ लिया, पूरे परिवार को इसके लिए राजी कर लिया! यह क्या कम बड़ा काम था! लेकिन एक थप्पड़ मारने में जाने क्यों मेरी सारी शक्ति चूक जाती है! ये मम्मी भी न!
कुछ देर बाद थोड़ा नॉर्मल हुई तो मोबाईल पर ध्यान गया। खोलकर देखा तो कैमरे ने दृश्य तो नहीं, लेकिन साउंड रिकार्ड कर लिया था। जो किसी काम का नहीं था। लेकिन, इससे एक बात तो समझ में आई कि, थोड़ा और प्रयास किया जाए तो उसके खिलाफ सबूत जुटाए जा सकते हैं।
दूसरे दिन ठीक उसी समय जब बब्बन ऑफिस जाया करता था, मम्मी से कहा, “चलो मेरे साथ! ”
“लेकिन कहाँ जाना है बेटा!”
मैं कुछ भी बताए बगैर उनका हाथ पकड़कर स्कूटी के पास ले आई। दरवाजे पर ताला लगाया और उन्हें बिठाकर चल दी। मम्मी पूछती रह गई कि, बेटा बताओ तो सही, कहाँ जा रहे हैं हम? लेकिन मैं एक भी शब्द बोले बगैर ठीक मंदिर के पास ले आई। उनके हाथ में कैमरा ऑन करके मोबाइल थमाकर फूलों की झाड़ियों के पीछे खड़ा कर दिया और खुद गेट के बाहर जाकर खड़ी हो गई। फिर से वही उपक्रम… स्कूटी स्टैंड करने के बहाने से बब्बन को आते हुए देखना। भय, उत्तेजना और आशंका की लहरों से घिरी मैं, समझ नहीं पा रही थी कि, आखिर मैं करने क्या जा रही हूँ। खैर… बब्बन आया… मैंने वही दृश्य उपस्थित करने की कोशिश में भगवान के सामने हाथ जोड़कर खड़ी होने ही वाली थी। भीतर एक तूफान चल रहा था। जैसे कि, अपराधी को पकड़ने की चेष्टा में क्राईम सीन रिक्रिएट किया जा रहा हो।
लेकिन, जरूरी नहीं कि, जो सोचा जाए वैसा ही होता चला जाए। इससे पहले कि बब्बन मेरे पीछे आता, दो परिचित महिलाएँ मंदिर के अंदर आ गईं। वे मुझसे बातें करने लगीं। मैं उनसे औपचारिक बातचीत करके पीछे मुड़ी ही थी कि, देखा मम्मी मंदिर के गेट पर बब्बन को डाँटते हुए कुछ बात कर रही थी। वह बहुत ही गुस्से में दिखाई दे रहीं थीं। मैं लपक कर उन तक पहुँची तो उन्होंने मुझसे कहा कि “आज के बाद अगर ये जानवर, तुमको छूने की कोशिश भी करे तो, इसका हाथ काट देना ! समझी ! … … अब चलो यहाँ से !” मम्मी की आँखों से लपटें निकल रही थीं। इस अप्रत्याशित घटना की मुझे उम्मीद नहीं थी। मैं मम्मी को ऐसे देख रही थी, जैसे ये मम्मी नहीं कोई और हैं। मम्मी ने मेरा हाथ पकड़ा और स्कूटी की तरफ मुड़ गईं। इस दौरान वह लज्जित था या बेहयाई से खड़ा रहा, मैं उसकी तरफ देखना ही भूल गई।
घर पहुँचकर मम्मी मुझ पर ही बरस पड़ी…
“तुमको क्या लगता है, तुम कोई कागज की बनी हो, जो किसी के छू देने से मैली हो जाओगी? कि तुमको भगवान हाथ गोड़ नहीं दिया है? दू झाप घींचकर मार नहीं सकती थी? उसको ई बात का घंमड है न कि, वो एक मर्द है, कुछ भी कर सकता है! तो उसका घमंड तोड़ना है तो उससे बड़ा अफसर बनके दिखाओ! रोना छोड़ो और रूला के दिखाओ!”
मम्मी गुस्से से काँप रही थी। मैंने एक शब्द भी बोले बगैर मम्मी को पीछे से पकड़ा और उनके गले में झूल गई। मम्मी का सारा क्रोध पानी हो गया। हम देर तक एक दूसरे से लिपटे ऐसे रोते रहे, मानो भारी वर्षा के आवेग से कोई बाँध टूट गया हो। मन-ही-मन मैं पूछ रही थी कि, आखिर इतना समय क्यों लग गया मम्मी, ये हिम्मत जुटाने में… ?
लेकिन मम्मी के आँसू बता रहे थे कि, वह स्वयं मन में कितना बड़ा बोझ लेकर जी रही थी।
खूब थक जाने के बाद मम्मी बिना कुछ बोले अपने कमरे में चली गई।
…और मैंने, अभिनव को कॉल करके पूछा कि “”क्या तुम मुझे लेने आ सकते हो? मैं वहीं रहकर अपनी परीक्षा की तैयारी करूँगी…”
मेरे रूँधे गले से निकली भर्राई आवाज को सुन अभिनव कुछ क्षण खामोश रहा… फिर खुश होकर कहा… “कमिंग फ्रॉम नेक्स्ट फ्लाईट!”