Friday, October 10, 2025
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‘इससे संवैधानिक अराजकता…’, राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय करने पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने क्या जवाब दिया?

नई दिल्ली: सरकार ने राष्ट्रपति और राज्यपालों पर विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा थोपने को लेकर चेतावनी दी है। यह इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के पहले के आदेश से अलग स्टैंड है। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने अप्रैल में राष्ट्रपति के लिए तीन महीने और राज्यपालों के लिए एक महीने की समय-सीमा निर्धारित की थी ताकि वे विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय ले सकें।

सरकार ने शीर्ष अदालत को दिए एक लिखित जवाब में कहा कि ऐसी समय-सीमाएँ सरकार के किसी अंग द्वारा उन शक्तियों का अतिक्रमण करने के समान होंगी जो उसमें निहित नहीं हैं। सरकार ने कहा है कि इससे शक्तियों के नाजुक बंटवारे में बाधा उत्पन्न होगी। साथ ही, सरकार ने चेतावनी दी कि इससे ‘संवैधानिक अराजकता’ पैदा होगी।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार की ओर से दिए जवाब में कहा, ‘अनुच्छेद 142 में निहित अपनी असाधारण शक्तियों के तहत भी, सुप्रीम कोर्ट संविधान में संशोधन नहीं कर सकता या संविधान निर्माताओं की मंशा को विफल नहीं कर सकता।’

मेहता ने कहा कि हालाँकि स्वीकृति प्रक्रिया के ‘कार्यान्वयन में कुछ सीमित समस्याएँ’ हो सकती हैं, लेकिन ये ‘राज्यपाल के उच्च पद को अधीनस्थ पद में बदलने’ को उचित नहीं ठहरा सकतीं।

‘अनुचित न्यायिक हस्तक्षेप से समाधान नहीं होना चाहिए’

सरकार ने तर्क दिया है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के पद ‘राजनीतिक रूप से पूर्ण’ हैं और ‘लोकतांत्रिक शासन के उच्च आदर्शों’ का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी कथित चूक का समाधान राजनीतिक और संवैधानिक तंत्र के माध्यम से किया जाना चाहिए, न कि ‘अनुचित न्यायिक’ हस्तक्षेप के माध्यम से।

दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल विधानमंडल द्वारा प्रस्तुत विधेयकों को स्वीकृति दे सकते हैं, या उन्हें राष्ट्रपति के विचार के लिए रोक सकते हैं। वे उन्हें पुनर्विचार के लिए सदन में वापस भी भेज सकते हैं, लेकिन यदि वे फिर पारित हो जाते हैं, तो राज्यपाल उस पर अपनी स्वीकृति नहीं रोक सकते। राज्यपाल उस विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए रिजर्व करने का विकल्प भी चुन सकते हैं यदि वह संविधान, राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के विपरीत प्रतीत होता है, या राष्ट्रीय महत्व का है।

गौरतलब है कि तमिलनाडु से संबंधित एक मामले में 12 अप्रैल को दिए गए अपने आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रक्रिया को विनियमित करने का प्रयास किया था और लंबित विधेयकों को निपटाने के लिए एक समय-सीमा का पालन करने का आदेश दिया था।

कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था, ‘हम गृह मंत्रालय द्वारा निर्धारित समय-सीमा को अपनाना उचित समझते हैं… और यह निर्धारित करते हैं कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचार के लिए रखे गए विधेयकों पर तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना आवश्यक है।’

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे थे सवाल

हालांकि, इस निर्णय का विरोध हुआ और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने ऐसी समय-सीमाओं की संवैधानिकता पर सर्वोच्च न्यायालय से प्रश्न पूछे थे। संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत, राष्ट्रपति ने शीर्ष न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को निपटने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों की शक्तियों पर उसकी राय मांगी गई थी।

चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने जुलाई में राष्ट्रपति संदर्भ मामले की सुनवाई और राष्ट्रपति द्वारा संदर्भित प्रश्नों पर निर्णय लेने के लिए एक शेड्यूल निर्धारित की थी। पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी एस नरसिम्हा और जस्टिस अतुल एस चंदुरकर भी शामिल थे। पीठ ने केंद्र और राज्यों से 12 अगस्त तक लिखित दलीलें पेश करने को कहा था। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ 19 अगस्त से मामले की सुनवाई शुरू करेगी।

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