Friday, October 10, 2025
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ईश्वर चंद्र विद्यासागर की पुण्यतिथि: बंगाल पुनर्जागरण के स्तंभ, रूढ़िवादी कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

नई दिल्ली: ईश्वर चंद्र विद्यासागर की आज पुण्यतिथि है। उन्नीसवीं सदी के भारत के महान समाज सुधारक, शिक्षाविद, लेखक और दार्शनिक थे, जिन्हें बंगाल पुनर्जागरण का एक प्रमुख स्तंभ माना जाता है। उनका जन्म पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर जिले के वीरसिंह गांव में 26 सितंबर 1820 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

उनके पिता ठाकुरदास बंद्योपाध्याय और माता भगवती देवी ने उन्हें शिक्षा और नैतिकता का महत्व सिखाया। गरीबी और कठिनाइयों के बावजूद, विद्यासागर की तीक्ष्ण बुद्धि और ज्ञान के प्रति समर्पण ने उन्हें कम उम्र में ही संस्कृत और दर्शन में प्रवीणता दिलाई, जिसके लिए कोलकाता के संस्कृत कॉलेज ने उन्हें ‘विद्यासागर’ (ज्ञान का सागर) की उपाधि प्रदान की।

रूढ़िवादी कुरीतियों के खिलाफ उठाई आवाज

विद्यासागर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान सामाजिक सुधार के क्षेत्र में रहा। उन्होंने उस समय की रूढ़ियों और कुरीतियों, जैसे विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध, बाल विवाह और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। उनकी दृढ़ता और युक्तियों से प्रभावित होकर 1856 में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ, जिसने विधवाओं को सामाजिक सम्मान और जीवन जीने का अधिकार दिलाया। 

उन्होंने न केवल इस कानून के लिए जोरदार पैरवी की, बल्कि अपने बेटे का विवाह एक विधवा से करवाकर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी यह पहल उस समय की रूढ़िवादी मानसिकता के खिलाफ क्रांतिकारी कदम थी।

शिक्षा के क्षेत्र में विद्यासागर का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने बंगाली गद्य को सरल और आधुनिक रूप प्रदान किया, जिससे यह आम जनता के लिए सुलभ हो सका। उनकी पुस्तक ‘वर्ण परिचय’ ने बंगाली भाषा की शिक्षा को क्रांतिकारी बनाया।

मेट्रोपॉलिटन कॉलेज सहित कई स्कूलों की स्थापना

इसके अलावा, विद्यासागर ने कोलकाता में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज सहित कई स्कूलों की स्थापना की और बालिका शिक्षा को बढ़ावा दिया। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में प्राचार्य के रूप में कार्य करते हुए गैर-ब्राह्मण छात्रों के लिए शिक्षा के द्वार खोले, जो उस समय एक साहसिक कदम था। 

विद्यासागर की करुणा और परोपकारिता उन्हें ‘दयासागर’ की उपाधि दिलाने वाली थी। एक बार रास्ते में एक बीमार मजदूर को देखकर उन्होंने उसे अपनी पीठ पर लादकर गांव तक पहुंचाया।

ऐसी अनेक घटनाएं उनकी मानवता को दर्शाती हैं। अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष उन्होंने झारखंड के जामताड़ा में संथाल आदिवासियों के बीच बिताए, जहां उन्होंने संथाल लड़कियों के लिए देश का पहला औपचारिक बालिका विद्यालय और एक मुफ्त होम्योपैथी क्लिनिक स्थापित किया। साहित्य के क्षेत्र में भी विद्यासागर ने अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने ‘वैताल पंचविंशति’, ‘शकुंतला’ और ‘सीतावनवास’ जैसे कालजयी ग्रंथों का अनुवाद और लेखन किया।

उनकी 52 रचनाओं में से 17 संस्कृत में और पांच अंग्रेजी में थीं। ईश्वर चंद्र विद्यासागर का जीवन सादगी, साहस और समाज सेवा का प्रतीक है। ईश्वर चंद्र विद्यासागर 29 जुलाई 1891 को 70 साल की उम्र में इस दुनिया को छोड़ अनंत में विलीन हो गए।

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