Thursday, October 9, 2025
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पाकिस्तान-सऊदी अरब का रक्षा समझौता…क्या ये ‘इस्लामिक नाटो’ की शुरुआत है? भारत के लिए इसके क्या मायने हैं

सऊदी अरब-पाकिस्तान रक्षा समझौते ने एक पुरानी चर्चा को फिर से केंद्र में ला दिया है। वो ये कि क्या एक एक सामूहिक मुस्लिम सैन्य गठबंधन जिसे अक्सर इस्लामी या ‘अरब नाटो’ कहा जाता है, उसकी तैयारी हो रही है?

सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच हुआ रक्षा समझौता चर्चा में है। इसमें घोषणा की गई है कि किसी भी देश पर हमला दोनों देशों पर हमला माना जाएगा। इसका मतलब ये हुआ कि अगर पाकिस्तान पर हमला होता है तो सऊदी अरब सीधे उसकी मदद के लिए आगे आएगा। ऐसे ही अगर सऊदी अरब पर किसी देश ने हमला किया तो पाकिस्तान उस देश के खिलाफ जंग के मैदान में उतर सकता है। यह ठीक वैसा ही है जैसा नाटो देशों के बीच है।

पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच यह समझौता कतर के दोहा में इजराइल के हवाई हमले के कुछ ही दिनों बाद हुआ है, जिसमें कथित तौर पर हमास के कुछ नेता मारे गए थे। इजराइल के इस हमले से अरब देशों में आक्रोश फैल गया था। बहरहाल, परमाणु हथियार संपन्न देश पाकिस्तान अब आधिकारिक तौर पर सऊदी अरब से रक्षा के मामले में जुड़ गया है। माना जा रहा है कि इससे खाड़ी और दक्षिण एशिया में रणनीतिक समीकरण नए सिरे से आकार ले सकते हैं।

सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने रियाद में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए। पाकिस्तान के सेना प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर भी इसमें शामिल हुए। इससे संकेत मिलता है कि इस समझौते को अमलीजामा पहनाने में पाकिस्तानी सेना की दिलचस्पी ज्यादा थी।

पाकिस्तान-सऊदी अरब का ये समझौता क्यों अहम हो गया है?

दरअसल, यह समझौता एक तरह से मध्य पूर्व में पुराने अमेरिकी केंद्रित सुरक्षा ढाँचे को बदल रहा है। साथ ही एक नए गठबंधन का संकेत मिल रहा है। इजराइल के लिए भी यह चिंता करने वाली बात होगी। परमाणु हथियारों से लैस पाकिस्तान के जुड़ने से इजराइल के लिए अब भविष्य में वो भी एक चुनौती बनेगा।

भारत के लिए लिहाज से बात करें तो ये समझौता उसके लिए भी चिंताजनक है। भारत और पाकिस्तान का टकराव कई मौकों पर होता रहा है। अब नए हालात में भविष्य के संघर्षों में ये अनिश्चितता बढ़ेगी कि ऐसे मामलों में अरब समर्थन भारत को मिलेगा या नहीं। सऊदी अरब से दूरी बढ़ने का खतरा अब बढ़ेगा।

वहीं, चीन के लिए एक तरह से पाकिस्तान-सऊदी अरब का समझौता अप्रत्याशित लाभ है। इसमें अमेरिका को एक तरह से दरकिनार करते हुए दो देश आगे आए हैं। अब तक खाड़ी क्षेत्र में अमेरिका सुरक्षा की गांरटी देता हुआ नजर आता था। जानकारों के अनुसार अब वाशिंगटन की विश्वसनीयता गंभीर सवालों के घेरे में है।

सऊदी अरब ने क्यों किया पाकिस्तान से समझौता?

ये सवाल उठता है कि आखिर सऊदी अरब की ऐसी क्या मजबूरी थी कि वो पाकिस्तान के साथ ऐसे रक्षा सौदे के लिए तैयार हुआ। पाकिस्तान की बात तो समझ आती है। उसे हमेशा भारत से खतरा महसूस होता है और हर बार की भिड़ंत में उसे मुंह की खानी पड़ी है। ऐसे में उसे ऐसा साझेदार चाहिए था जो भारत के खिलाफ उसकी मदद के लिए खुल कर सामने आए। जाहिर तौर पर इस समझौते का सबसे ज्यादा फायदा पाकिस्तान ही उठाएगा, लेकिन सऊदी अरब को इसकी क्या जरूरत पड़ी?

सऊदी अधिकारियों का कहना है कि यह समझौता ‘किसी खास देश के खिलाफ नहीं है।’ लेकिन जानकार इस बात पर सहमत हैं कि यह सबकुछ संयोगवश नहीं है। दोहा में इजराइल की ओर से किए गए हमले ने इस समझौते की जमीन तैयार की। इजराइल के उस हमले ने कतर को एक तरह से कमजोर स्थिति में ला दिया है, जबकि यहां प्रमुख अमेरिकी सैन्य अड्डा स्थित है। इसलिए क्षेत्र में अमेरिका की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होने लगे हैं।

खाड़ी देशों ने वाशिंगटन की चुप्पी को एक तरह से इजराइल से मिलीभगत माना है। सऊदी अरब इस पूरे घटनाक्रम के बाद पाकिस्तान के साथ अपने रक्षा संबंधों को स्थायी बनाने के लिए तेजी से कदम उठाया, जिसकी अटकलें लंबे समय से लगाई जा रही थीं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस समझौते में जानबूझकर इस बारे में अस्पष्टता बरती गई है कि क्या पाकिस्तान के परमाणु हथियार को भी इसमें शामिल किया गया है। समाचार एजेंसी रॉयटर्स के अनुसार एक वरिष्ठ सऊदी अधिकारी ने बताया, ‘यह एक व्यापक रक्षात्मक समझौता है जिसमें सभी सैन्य साधन शामिल हैं।’

‘इस्लामिक नाटो’ या ‘अरब नाटो’ की शुरुआत?

सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौते ने एक पुरानी चर्चा को फिर से केंद्र में ला दिया है। वो ये कि क्या एक एक सामूहिक मुस्लिम सैन्य गठबंधन जिसे अक्सर इस्लामी या अरब नाटो कहा जाता है, उसकी तैयारी हो रही है? दशकों से यह अवधारणा चर्चा में आती रही है और फिर ठंडे बस्ते में चली गई। इस बार हालात बदले हुए नजर आ रहे हैं। सऊदी अरब इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों का संरक्षक है और इस्लामिक दुनिया में उसकी अपनी अलग पहचान है। दूसरी ओर पाकिस्तान एकमात्र मुस्लिम देश है जिसके पास परमाणु हथियार हैं।

कतर, जिस पर इजराइल की ओर से सीधा हमला हुआ है, ऐसी ही गारंटी मांग सकता है। वहीं तुर्की पहले से ही नाटो में है, लेकिन लंबे समय से एक इस्लामी ब्लॉक की कल्पना करता रहा है। इसलिए चर्चा हो रही है, क्या खाड़ी का मूड बदल गया है। अभी तक ‘इस्लामिक नाटो’ की मांग अक्सर खोखली लगती रही है, क्योंकि कई अरब शासन ईरान पर भरोसा नहीं करते, जो इस तरह के गुट के लिए सबसे जोरदार आवाज उठाता रहा है। लेकिन बदलते हालात को नकारा भी नहीं जा सकता।

भारत के लिए पाकिस्तान-सऊदी समझौते के क्या मायने हैं?

भारत की ओर से अभी इस पर कोई अहम प्रतिक्रिया नहीं आई है। विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को कहा कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा पर इस समझौते के ‘प्रभावों का अध्ययन’ करेगा। सरकार की ओर से भविष्य में इस समझौते पर और क्या कुछ कहा जाता है, वो बाद की बात है लेकिन पहली नजर में ये साफ लगता है कि पाकिस्तान-सऊदी के बीच हुआ समझौता भारत के लिए रणनीतिक संकट बढ़ाने वाला है। सऊदी अरब और इजराइल, दोनों के साथ भारत के गहरे संबंध हैं और पाकिस्तान के साथ उसका लंबे समय से संघर्ष चल रहा है।

भारत-पाकिस्तान के संघर्ष में सऊदी अरब की प्रत्यक्ष भागीदारी को लेकर चिंता कम भी हो लेकिन प्रतीकात्मक समर्थन को लेकर चिंता जरूर बढ़ेगी। रियाद के समर्थन से उत्साहित पाकिस्तान भविष्य के संघर्षों में कड़ा रुख अपना सकता है। फिर चाहे वह कश्मीर, आतंकवाद या जल अधिकारों का ही मामला क्यों न हो। अगर सऊदी अरब का वित्तीय समर्थन पाकिस्तान के रक्षा आधुनिकीकरण में जाता है, तो भारत को भी खुद को नए सिरे से तैयार करना होगा।

भारत अभी सऊदी अरब पर अपने तीसरे सबसे बड़े तेल आपूर्तिकर्ता और एक प्रमुख निवेश साझेदार के रूप में निर्भर है। इजराइल के साथ उसके सैन्य संबंध भी गहरे हो रहे हैं। अब चुनौती यह है कि दोनों संबंधों को बनाए रखा जाए। इजराइल के साथ मजबूत रक्षा सहयोग, नई सैन्य खरीद और खाड़ी देशों के साथ गुप्त कूटनीति की संभावना तलाशी जानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता भारतीय हितों के खिलाफ न हो।

विनीत कुमार
विनीत कुमार
पूर्व में IANS, आज तक, न्यूज नेशन और लोकमत मीडिया जैसी मीडिया संस्थानों लिए काम कर चुके हैं। सेंट जेवियर्स कॉलेज, रांची से मास कम्यूनिकेशन एंड वीडियो प्रोडक्शन की डिग्री। मीडिया प्रबंधन का डिप्लोमा कोर्स। जिंदगी का साथ निभाते चले जाने और हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाली फिलॉसफी में गहरा भरोसा...
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