Friday, August 22, 2025
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संसद की मंजूरी के बिना हुई थी सिंधु जल संधि, नेहरू को झेलना पड़ा था वाजपेयी सहित कांग्रेस सांसदों का भी भारी विरोध

नई दिल्लीः सिंधु जल संधि के बारे में स्वतंत्रता दिवस के भाषण में बोलते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर निशाना साधा और इस संधि को अन्यायपूर्ण और एकतरफा बताया था। उन्होंने कहा था कि संधि से भारत के किसानों को अकल्पनीय नुकसान हुआ है।

ऐसे में जानेंगे कि 1960 में सिंधु जल संधि पर चर्चा के दौरान संसद में क्या कुछ हुआ था?

सिंधु जल संधि को लेकर अधिकतर सांसदों यहां तक कि कांग्रेसियों ने भी इसकी आलोचना की थी। लेकिन उनकी बातें अनसुनी कर दीं गईं।

सिंधु जल संधि पर चर्चा

30 नवंबर 1960 को लोकसभा में इस संधि पर चर्चा हुई। भले ही यह चर्चा संक्षिप्त थी लेकिन गहन थी। इसमें कांग्रेस सरकार और अन्य दलों के बीच एक गहरी खाई को उजागर किया, क्योंकि कांग्रेस के सांसद भी इसके विरोध में थे। इन लोगों का मानना था कि भारत ने पाकिस्तान के लिए बहुत कुछ त्याग किया है।

संसद या विपक्षी नेताओं को विश्वास में लिए बिना ही संधि पर हस्ताक्षर कर दिए गए थे। जब तक संसद ने संधि पर चर्चा की तब तक इसे अनुमोदित किया जा चुका था। पंडित जवाहर लाल नेहरू को इस संधि को लेकर भारी विरोध झेलना पड़ा था। चर्चा के दौरान बोलने वाले लगभग हर सांसद ने इसका विरोध किया था। कई सांसदों ने इसे “दूसरा विभाजन” तक कहा। वहीं, युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इसे एक खतरनाक समझौता बताया जिससे स्थायी मित्रता नहीं बन पाएगी।

सिंधु जल संधि पर तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तान के सैन्य शासक राष्ट्रपति अयूब खान ने पहले ही 19 सितंबर 1960 को हस्ताक्षर किए थे। इसमें विश्व बैंक एक गारंटर था।

दस सदस्यों द्वारा इस संधि के प्रस्ताव को पेश किया गया और सिर्फ 2 घंटे चर्चा के लिए रखे गए। शुरू से ही यह स्पष्ट था कि संसद को संधि में आकार देने की कोई भूमिका नहीं दी गई थी।

इस संधि के तहत पूर्वी नदियां रावी, ब्यास, सतलुज नदियां भारत को दी गईं और पश्चिमी नदियां सिंधु, झेलम और चिनाब पाकिस्तान को दी गईं। लेकिन पाकिस्तान में प्रतिस्थापन कार्यों के लिए भारत 83 करोड़ रुपये देगा। नेहरू ने भले ही इसे सहयोग का एक आदर्श बताया था लेकिन सांसदों ने निराशा व्यक्त की।

संसद में बहस की शुरुआत ढेंकनाल से सांसद सुरेंद्र मोहांती ने की। वह ऑल इंडिया गणतंत्र परिषद से चुनकर आए थे। बहस के दौरान उन्होंन जोर देकर कहा कि प्रधानमंत्री को स्वयं उपस्थित रहना चाहिए। उन्होंने कहा “उन्होंने (नेहरू) ने हस्ताक्षर किए थे, केवल वही बता सकते हैं कि हस्ताक्षर क्यों किया गया?”

फिरोजाबाद से निर्दलीय सांसद ब्रज राज सिंह ने कहा कि संधि ने “देश में काफी चिंता पैदा कर दी है।”

वहीं सिंचाई मंत्री हफीज मोहम्मद इब्राहिम ने सदन को आश्वासित किया था कि “प्रधानमंत्री बोलेंगे।” यह मंच तैयार हो चुका था और फिर आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया था।

कांग्रेस सांसदों ने भी की आलोचना

कांग्रेस सांसद हरीश चंद्र माथुर ने किसी विपक्षी नेता की तरह बोले। उनके गुस्से ने राजस्थान की भावनाओं को दिखाया जो सिंधु नदी के पानी पर बहुत अधिक निर्भर है।

उन्होंने इस संधि को भारत के लिए पूरी तरह से नुकसानदेह और पाकिस्तान के लिए पूरी तरह से फायदेमंद बताया था। उन्होंने कहा कि भारत ज्यादा झुक रहा है। उन्होंने कहा “अपने ही लोगों की कीमत पर ज़रूरत से ज़्यादा उदारता दिखाना राजनेतागिरी नहीं है।”

उन्होंने इससे सालाना राजस्थान के लिए 70-80 करोड़ रुपये का नुकसान बताया था क्योंकि इससे पांच मिलियन एकड़ टन पानी का नुकसान होगा। उन्होंने कहा, “इस संधि में राजस्थान को बहुत बुरी तरह से निराश किया गया है।”

माथुर यहीं नहीं रुके थे। उन्होंने तर्क दिया था कि भारत ने 1948 से लगातार पाकिस्तान के आगे झुकता रहा है। उन्होंने इस संधि को कश्मीर से न जोड़ने को लेकर भी नेहरू की आलोचना की थी।

माथुर के भाषण के बाद सदन में और भी कांग्रेसी सांसदों ने विरोध किया था। कांग्रेस के एक अन्य नेता अशोक मेहता ने इस संधि को “दूसरा विभाजन” तक कह दिया था। उन्होंने कहा “हम 1947 के सारे ज़ख्मों को फिर से कुरेद रहे हैं…यह हमारे प्रधानमंत्री के हस्ताक्षर से फिर से किया जा रहा है।”

मेहता ने कहा था कि संधि के तहत 80 प्रतिशत पानी पाकिस्तान को जाएगा और भारत को सिर्फ 20 प्रतिशत मिलेगा जो कि पहले के 75:25 के अनुपात से भी खराब था। उन्होंने कहा “किसी भी सरकार को दोबारा गलती करने का अधिकार नहीं है। इसीलिए देश बहुत ज़्यादा व्यथित है।” उन्होंने यह भी कहा था कि पाकिस्तान संधि के बाद कीमती पानी को समुद्र में बहने देगा।

वहीं, एक अन्य सांसद एसी गुहा ने भी आर्थिक और वित्तीय असंतुलन पर ध्यान खींचा था। उन्होंने कहा कि भारत के पास सिंधु बेसिन में 26 मिलियन एकड़ भूमि है, लेकिन केवल 19% सिंचित है, जबकि पाकिस्तान की 39 मिलियन एकड़ भूमि में से 54% सिंचित है।

युवा सांसद अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि सरकार ने 1962 तक पाकिस्तान को पानी देना बंद करने की घोषणा की थी, अब वह स्थायी अधिकार दे रही है। वाजपेयी ने कहा, “या तो वह घोषणा गलत थी, या यह संधि गलत है।”

उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के उस दावे का हवाला दिया जिसमें उन्होंने दावा किया था कि भारत ने नदियों पर संयुक्त नियंत्रण स्वीकार कर लिया है: “संयुक्त नियंत्रण का अर्थ संयुक्त कब्ज़ा है,” वाजपेयी ने चेतावनी दी। उन्होंने कहा, “ऐसे समझौते करते समय संसद को विश्वास में नहीं लिया जाता।”

कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद के.टी.के. तंगमणि ने भी परामर्श के अभाव पर जोर दिया था। उन्होंने कहा कि संसद 9 सितंबर तक सत्र में थी; संधि पर 19 सितंबर को हस्ताक्षर हुए थे, इसलिए “निश्चित रूप से सदन को विश्वास में लिया जा सकता था?” उन्होंने संधि को एकतरफ़ा लेन-देन भी कहा, न कि लेन-देन।

नेहरू ने बचाव में क्या कहा था?

जब प्रधानमंत्री नेहरू इस संधि के बारे में बोलने के लिए उठे तो उन्होंने इसे भारत के लिए अच्छी संधि कहा था। नेहरू ने एक सांसद के दूसरे विभाजन पर बोला कि “किसका विभाजन? एक बाल्टी पानी का?”

नेहरू ने यह भी ज़ोर देकर कहा कि ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संधियाँ लगातार संसदीय अनुमोदन से नहीं हो सकतीं। नेहरू ने तर्क दिया, “कागज़ों का पहाड़ था, दर्जनों प्रस्ताव थे, दस साल का संघर्ष था। हमें कोई न कोई फ़ैसला लेना ही था।”

वहीं, उन्होंने पाकिस्तान को पैसे देने की बात को भी यह कहते हुए जायज ठहराया कि उन्हें नुकसान हुआ। नेहरू ने कहा, “हमने समझौता खरीदा, हमने शांति खरीदी।” उन्होंने स्वीकार किया कि पाकिस्तान ने शुरुआत में 300 करोड़ रुपये की माँग की थी, लेकिन भारत 83 करोड़ रुपये पर राजी हो गया था।

नेहरू ने इस दौरान यह भी चेतावनी दी थी कि संधि को अस्वीकार करने से पश्चिमी पंजाब एक वीरान जंगल में बदल जाएगा और उपमहाद्वीप में अस्थिरता पैदा हो जाएगी। उन्होंने एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की अपील की: “जब हम राष्ट्रों के बीच संबंधों जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार करते हैं, तो हमें संकीर्ण दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिए।”

यह बहस बिना किसी मतदान के समाप्त हो गई क्योंकि संधि पहले ही अनुमोदित हो चुकी थी लेकिन बहस में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नेहरू के विरोध की एकता दिखाई दी थी। इस दौरान नेहरू अलग-थलग दिखाई दिए और उन्होंने नैतिक और अंतर्राष्ट्रीयता आधारों पर संधि का बचाव किया।

भले ही नेहरू को वाजपेयी और यहां तक कि कांग्रेस के सांसदों की तरफ से भी आलोचना का सामना करना पड़ा हो लेकिन उन्होंने संधि को व्यावहारिक और दीर्घकाल में भारत के लिए अच्छी संधि बताया था।

अमरेन्द्र यादव
अमरेन्द्र यादव
लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में स्नातक करने के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई। जागरण न्यू मीडिया में बतौर कंटेंट राइटर काम करने के बाद 'बोले भारत' में कॉपी राइटर के रूप में कार्यरत...सीखना निरंतर जारी है...
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