Tuesday, October 14, 2025
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कांटों भरी हकीकत के दौर में: रचनाकार का स्वप्न

सपने इंसान की जिंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। सपने देखना और उन्हें मुकम्मल करने की कोशिश ही इंसान को इंसान बनाती है। क्या किसी रचनाकार का स्वप्न आम मनुष्य के स्वप्न से अलग और वृहत्तर होता है? आज इस स्तम्भ की नवीनतम कड़ी में पढ़िये कहानीकार, उपन्यासकार तरुण भटनागर को-

स्वप्न निराश करते हैं। सपने देखना हताशा का सबब है। पर हताशा स्वप्न के सार्थक होने को तस्दीक भी करती है। दुनिया की बेहतरी के स्वप्न का हश्र यही है। वह अनिश्चितता पैदा करता है। बल्कि एक तरह की असंभावना को कि जो स्वप्न है वह फलीभूत न होगा। स्वप्न सिर्फ़ स्वप्न होगा। वह सच में परिणित न होगा। वह एक खामखयाली से ज्यादा कुछ न होगा। भले वह किसी बेहतर इंसान का स्वप्न हो या किसी सहृदयी लेखक का।

स्वप्न की यह नियति स्वप्न की ऐतिहासिक नियति है।सभ्यता की शुरुआत पतन की शुरुआत भी थी। इस पतन ने लगातार बेहतरी को अपदस्थ किया।हमारा जो समाज बना वह अच्छाइयों से ज्यादा बुराईयों का वाहक रहा। इसका कोई आकलन तो नहीं हो सकता है पर बुराई और बदनीयती का बोलबाला बहुत रहा है। मुक्वितिबोध की एक कविता का शीर्षक ही है – ‘अँधेरे में ‘- और जो उस कविता में है, भय और विकृति से युक्त अन्धकार, तो वह वही है, तमाम बुराईयों से भरा हमारा स्याह समय! इस अंधकार ने बेहतरी के स्वप्न को नष्ट कर देने के तमाम तरीके बनाये।

लेखक के स्वप्न में यह अंधकार भी दिखता है और उसका प्रतिरोध भी। लेखक का स्वप्न दर्पण की तरह होता है। ऐसा दर्पण जिसमें हमारे दौर का सच चमकता है। इस दर्पण की खासियत यह होती है कि उससे आप जितना मिटाना चाहेंगे, पोछना चाहेंगे, तो वह और भी चमकेगा. लेखक के स्वप्न-रुपी इस दर्पण को पोंछकर स्वप्न को मिटाने का ख़याल रखने वाले को यह अहसास नहीं होता है कि पोछकर तो वह उस दर्पण को और चमका रहा है। वह शायद हतप्रभ भी होता हो क्योंकि उसे लेखक के स्वप्न की प्रकृति नहीं पता और न ही उस ज़िद के बारे में कुछ पता जो लेखक के मन में पनपती रहती है।

स्वप्न एक कल्पना लोक की तरह से भी है। एक ऐसा कल्पना लोक जो बेहतर दुनिया का कल्पना लोक है। भले यह सच में संभव न हो पा रहा हो इसलिए भी और इसलिए भी कि चूँकि वह सच में है ही नहीं इसीलिए भी, उस स्वप्न के कल्पना लोक में है, जिसे वह लेखक संजोता है, जिसकी वह आकांक्षा करता है। दुनिया की बेहतरी को इसी लोक में संजो कर रखता है लेखक। इसे ही वह लिखता है। उस अन्धकार को भी, उस आकांक्षा को भी। लेखन शायद यही है। उस स्वप्न को बरतना।उसे कहना। उसे रचना।

स्वप्नों के साथ यह भी है कि जब हकीकत काँटों भरी हो तो लगता ही लगता है कि स्वप्न सहारा देगा। भले यह कोई झूठी दिलासा ही हो। स्वप्न उम्मीद बाँधते हैं। उनका कल्पना लोक सहारा देता है। भले हकीकत कुछ भी हो पर स्वप्न बेहतरी की बात करता है। स्वप्न की जो नियति है वह तय है। बेहतरी के स्वप्न का भविष्य तय है। वह भंग होगा ही। वह किरच-किरच होकर बिखर जाएगा। युद्धरत दुनिया में शान्ति का स्वप्न, सामाजिक अन्याय से जूझती दुनिया में सामाजिक न्याय का स्वप्न, घृणा के विरुद्ध प्रेम का स्वप्न…और भी स्वप्न…क्या वह टिक पाता है? वह नहीं टिकता। अब समय ऐसा है कि उसके टिकने की उम्मीद और भी कम हो गयी है। दुनिया के बुरे होने ने यह तय किया कि बेहतरी का स्वप्न टिकेगा नहीं। वर्तमान के और भी बुरे होते समय ने इस स्वप्न के टिकने की उम्मीद को और भी क्षीण कर दिया लेकिन यह भी है कि स्वप्न की नियति चाहे जो भी हो वे देखे जाते रहे हैं। लेखक स्वप्नजीवी होता है। स्वप्न उसके लिए ईंधन का काम करते हैं। वह स्वप्न को संजोता है, बरतता है।

जिस तरह की जाती हैं प्रार्थनायें। माँगी जाती हैं दुआएँ। जिस तरह लगाए जाते हैं नज़र के टीके, प्रेत बाधा के विरुद्ध। जिस तरह कोई दवा होती है दर्द की। उसी तरह स्वप्न भी हैं, वे देखे जाते हैं। देखे जाते रहे हैं और देखे जाएंगे, हमेशा। काल का कोई ऐसा कालखंड न रहा कि वे न देखे गए हों और काल का ऐसा भी कोई कालखंड न होगा कि वे न देखे जाएँ। वे देखे जाते हैं नींद से बाहर।

लेखक के स्वप्न नींद के स्वप्न नहीं हैं। भले स्वप्न नींद में ही आते हों पर लेखक के स्वप्न का चेतना सम्पन्न होना जरूरी है, इसलिए वे सोई हुई अवस्था में चेतनाविहीनता में नहीं देखे जाते हैं। लेखक के स्वप्न जागृत आँखों में उगते हैं। दृष्टि से सराबोर आँखों में वे बसते हैं। समर्थ लेखक के बेचैन मन में वे बसते हैं। वे स्वप्न देखते हुए आते हैं। महसूस करते हुए अपनी जगह बनाते हैं। भोगते हुए वे एक तरह की मुकम्मल शक्ल अख्तियार करते हैं। इन स्वप्नों के होने के लिए जागते रहना शायद पहली शर्त है।

न जाने कितने पुराने हैं ये स्वप्न। मालूम नहीं। स्वप्नों का कोई इतिहास नहीं। इतिहास की किताबों में स्वप्नों का इतिहास दर्ज़ नहीं। जब स्वप्नों का ही कोई इतिहास नहीं तो लेखक के स्वप्नों को आप कहाँ खोजियेगा? फिर भी, भले स्वप्न इतिहास में दर्ज़ नहीं हैं, पर लगता है वे अवश्य ही बहुत प्राचीन है। वह बुराई के विरुद्ध बेहतरी का कोई स्वप्न ही था जिसने आज की सभ्यता की शुरूआत की। उससे ही आगे का रास्ता दिखा। बेहतरी के लिए बुराईयों का प्रतिरोध भी यहीं से शुरु हुआ शायद। भले इतिहास में न हो पर देखा जा सकता है कि जिसने रचा, जिसने लिखा, उसने स्वप्न देखे थे। लिखने वाला स्वप्न देखता था। इतिहास की किताबों में न होने पर भी उस दौर में, उस बहुत पुराने समय में भी उन स्वप्नों की आहट, उनके होने और उनकी पुरजोर उपस्थिति का कोई लेखकीय मन दिखता है। इतिहास में नहीं बल्कि उन कहानियों और कविताओं में जो उन रचनाओं को रचने वालों ने देखें।

आप संसार की पहली-पहली कहानियों को लें जैसे प्रलय में उस नाव की कहानी जो जीवन को बचाती है और सृष्टि की फिर से रचना करने का मार्ग प्रशस्त करती है। यह अनायास नहीं है कि हमारे यहाँ मनु ऐसी नाव को लेकर चलते हैं और हमसे हज़ारों मील दूर के किसी दूसरी ज़बान और दूसरी सभ्यता के क्षेत्र में भी ऐसी ही एक नाव का किस्सा सुनाई देता है जो नूह की नाव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस तरह वह स्वप्न इधर भी था और हज़ारों मील दूर उधर भी। वह स्वप्न सार्वभौमिक था, लेखक का स्वप्न, रचने वाले का स्वप्न, चाहे वह यहाँ रहा हो या दुनिया के किसी और भू-भाग में। ये स्वप्न इतने अपने हैं, इतने एकसार कि वे किसी भूभाग से, किसी भाषा विशेष से, किसी विशिष्ट सभ्यता तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि इस तरह की तमाम सीमाओं को तोड़ देते हैं। आप किसी भी भाषा के किसी भी समर्थ लेखक को पढ़ें आपको लगेगा कि उसकी बात आपकी अपनी बात है। यह उस लेखक का स्वप्न ही है जो हमें अपनी बात सा लगता है भले उसकी भाषा हमें समझ न आती हो या उसकी सभ्यता हमें अपनी सभ्यता से बिल्कुल अलग दिखती हो। लेखक की रचना उसके स्वप्न की वाहक होती है। उसमें उसके स्वप्न का विस्तार होता है। स्वप्न की बातें होती हैं। इसलिए उस अनजान देश के अनजान लेखक का स्वप्न भी हमारे अपने स्वप्न से इतना एकाकार हो जाता है कि उसकी कही बात हमें हमारी अपनी बात लगती है। संसार में मनुष्यता के सवाल एक से रहे हैं, भले क्षेत्रीय स्तरों पर उनके स्वरूप में कुछ भिन्नताएं हों और उनकी इंटेसिटी अलग-अलग हो तब भी मनुष्यता का संकट एक सा है। हम एक तरह से महसूस करते हैं। एक तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। इसलिए हमारे सपने भी एक जैसे हैं। यहाँ तक की बहुत अलग-अलग कथानकों वाले उपन्यास भी अपनी आंतरिक लय में मनुष्यता के एक से स्वप्नों के वाहक लगते हैं। यही वह बात है जो लेखक के स्वप्न को एक तरह का यूनिवर्सल स्वप्न बनाती है।

तो वह जो कथा है, सभ्यता की पहली-पहल कथा, प्रलय में जीवन को बचाने की कवायत की कथा वह विनाश के विरुद्ध सृजन की गाथा ही तो है। इस सदिच्छा के साथ कि हर प्रकार की वनस्पति और जीव-जन्तु को, हर एक को बचा लिया जाए। यह सदिच्छा, यह स्वप्न एक यूनिवर्सल स्वप्न है। विशाल प्रलयंकारी समुद्र में तिनके के माफ़िक डोलती एक नाव जो सृष्टि को बचाने के लिए संघर्षरत है। एक लेखक का स्वप्न शायद यही है। प्रलय में उस नाव का स्वप्न जो जीवन को बचाती है। भले यह कल्पना लगे, भले हकीकत में कहीं न दिखे तब भी।

स्वप्न सफल और असफल जैसे कमजोर खांचो में नहीं बंटा। वह हार को भी चिन्हित करता है और उसकी वकालत करता है। बल्कि हार और असफलता को जानना-बूझना और हारे हुए की वकालत करना उसका सबसे पहला काम है। वह किसी कमजोर और मजबूर की आँखों से देखा गया स्वप्न है। महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ यही करता है, यही करता है लेव तोल्सतोय का ‘युद्ध और शान्ति’ जिसमें क्रमशः संघर्ष और इंसानियत की समर्थ पक्षधरता है। यह दृष्टि है। स्वप्न से उपजी दृष्टि जो समर्थ और सार्थक विषय को उपन्यास का विषय बना देती है. साहित्य में जो परकाया प्रवेश की बात की जाती रही है और भोगे हुए यथार्थ के बरक्स रखी जाती है, लगता है उसके मूल में भी यही बात है।

अस्मितावाद की तमाम तरफदारी के बाद भी जो कल्पना से अर्जित स्वप्न है किसी कमजोर और मजबूर के नेत्रों से देखने की कोशिश की तरह से वह साहित्य का प्रण-प्राण रहा है।

लेखक का स्वप्न धारा के विपरीत होता है। जो गलत है और सुखद है वह उसके स्वप्न में जगह नहीं बना पाता है। जिससे कोई शिकायत नहीं वह उसके स्वप्न में नहीं। ग़ालिब की जो बात है – ‘नुक्ताचीं है ग़मे दिल’- तो यह वही है, एक ऐसा मन जो मीन मेख निकालता रहता है। सब कुछ अगर सही हो तो स्वप्न की जरूरत ही क्या, क्या जरूरत लिखने की ही। तो यह कमी को देखने से शुरू होता है। इसके बाद वह असहमत होता है और फिर उसके बाद उसमें एक तरह का हठ या ज़िद का प्रवेश होता है। इसलिए वह न तो इस संसार को साधने के लिए प्रयत्नशील रहता है और न ही किसी के अनुकूल स्वयं को ढालने की फितरत में होता है। वह अपने बनाये रास्ते का मुरीद होता है। वह स्वयं पर विश्वास की अटूटता में होता है।

लेखक का स्वप्न उसके लिए दिक्क़त का सबब होता है। होता यह है कि वह उस स्वप्न को जीता है। वह इतना कल्पनाशील तो होता ही है कि उसे कल्पना में रहना अच्छा लगता है।पर स्वप्न से प्रेम और उस स्वप्न को गढ़ने वाली कल्पना में बने रहना एक ऐसी चीज है जो दुनियावी अपेक्षाओं और सांसारिकता में लेखक को असफल बनाती है। लेखक एक स्वप्न गढ़ता है और फिर उस स्वप्न को अपना घर बना लेता है। इसीलिए वह सामान्य लोगों को अजीब भी लगता है क्योंकि वे उसकी उस दुनिया को समझ नहीं पाते जो सपनों में बसी है और रचती है। संसार लेखक को बर्दाश्त नहीं कर पाता है क्योंकि उसके स्वप्न और उसका कल्पनालोक उसे ऐसा बनाते हैं जिससे संसार को खतरा महसूस होता है। पर इसका उल्टा भी है। यानी लेखक को भी यह संसार विचित्र और उल्टा लगता है। इतना उल्टा कि संसार की तमाम निरर्थकतायें उसके सामने से गुजरती रहती हैं। इस तरह लेखक और दुनियावी संसार के बीच एक तरह की खाई, एक गहरा विभाजन होता जाता है। इस तरह भले स्वप्न हकीकत की ठोकर से टूटते हैं, बिखरते हैं। और इनका टूटना-बिखरना लेखक को उदास करता है, पर यही है जो उसे सही रास्ता भी दिखाती है और अंततः संसार और उसके बीच एक असहमति की दीवार खड़ी कर देता है।

लेखक का एक स्वप्न यह भी है कि वह लिखना चाहता है। वह क्यों लिखना चाहता है यह वह सवाल है जो दुनिया उससे पूछती है। दरअसल दुनिया को उस पर संदेह होता है या वह इस बात को समझना चाहती है कि वह क्यों लिखता है। लिखने की वजहों पर तमाम बातें विद्वानों ने कहीं हैं। सिग्मड फ्रायड ने लेखन को, बल्कि कला के हर रूप को कलाकार के इगो का प्रदर्शन माना है। यह डिबेटेबल है कि किसी सार्थक प्रतिक्रिया को जो समाज में बेहतरी की आकांक्षी हो उसे मात्र इगो का प्रदर्शन कहना क्या ज्यादती नहीं होगी? मनोविज्ञान के विश्लेषण अगर यह कहते भी हैं तो उन बातों का क्या जो समर्थ और गैरजरूरी लेखन के बीच स्पष्ट विभाजन करते रहे हैं? कला की मार्क्सवादी व्याख्या तो न सिर्फ़ सार्थक लेखन को चिन्हित करती है बल्कि उसे गैरबराबरी वाले सामाज में परिवर्तन का टूल मानती है। यह एक लम्बी बहस है कि लेखक क्यों लिखता है और अगर बेहतरी का स्वप्न जो तमाम लोग देखते हैं उनमें से कई लोग फिर लेखक ही क्यों नहीं हैं?

तो यह है कि लेखक का स्वप्न उससे लिखवाता है। उसका स्वप्न है कि वह लिखे।शायद वह कुछ ऐसा लिखना चाहता है जो उसे संतुष्टि दे कि उसने यह लिखा। पर यह संतुष्टि कभी होती नहीं है। दरअसल लेखक के लिए उसका लेखन हमेशा अपूर्ण रहता है। प्रकाशित होने के बाद भी अगर वह उसे देखे तो उसे लगेगा कि वह फिर से उसे ठीक करे। यहीं से वह अपने लिखे से मुक्त होना चाहता है। मुक्तिबोध की लिखी पांडुलिपियाँ देखते हुए मुझे यही महसूस होता है कि कितनी बार और बार-बार वे स्वयं के लिखे को ठीक करते रहे। प्रकाशित होने के बाद भी। हर बार खुद के लिखे को पढ़ते हुए यह अहसास होना कि इसे अब फिर से अलग तरह से किया जाए एक बेहतर बात है, क्योंकी जहाँ एक ओर यह स्वयं के नकार से भरी होती है वहीं इस बात का अहसास भी देती है कि कुछ भी पूर्ण नहीं है, वह हमेशा बदलने योग्य होगा, भले पाठक उससे मुतासिर होते रहें तब भी। दरअसल यह नकार का भाव भी वही है जो लेखक में एक तरह की असंतुष्टि भरता है। इस तरह लेखक का स्वप्न जहाँ उसे एक ओर लिखने के लिए उकसाता है वहीं उसमें अपने लिखे के प्रति मोह से मुक्त करता है।

इस बात पर शायद हम सहमत हों कि एक समर्थ लेखक जिस बेहतरी के स्वप्न देखता है वे हमारे समय के सबसे अहम सवाल हैं। वे सवाल जिनसे हर आम नागरिक दो चार होता ही है, भले वह उससे अनभिज्ञ हो और भले वह पढ़कर भी लेखक की उस बात को न जान पा रहा हो, तब भी। अब जैसे यही बात है कि इंसानियत प्रेम का ही दूसरा नाम है और यह हमारी अनुभूतियों में है, गहन और स्थायी। भले हमारा समाज और लोग इसे नकारें तिस पर भी इसकी अनुपस्थिति बार-बार लोगों को उचटाती है, अकेला करती है और दुःख देती है, शायद कहीं उनके गलत होने का उन्हें अहसास भी कराती है। बेहतरी का स्वप्न अंततः लेखक का स्वप्न यही है, यानी इंसानियत की पक्षधरता, बिना किसी शर्त, बिना किसी लाग लपेट। इंसानियत का सवाल सबसे अहम सवाल है और इसलिए समर्थ रचनाओं का वह विषय है, उन रचनाओं की चेतना में है। एक लेखक के रूप में असफलता और हार का महसूस होना भी यही है क्योंकि इंसानियत के पक्ष में देखे गए लेखक के स्वप्न फलीभूत होते नहीं दिखते हैं।

जाति,धर्म और जेंडर के गंभीर होते मुद्दे और तमाम बढ़ती असंवेदनशीलता के दौर में इंसानियत का छीजना स्वभाविक है।

लेखक का स्वप्न जितना इंसानियत का पक्षधर होगा वह उतना ही प्रतिक्रियावादी और असहमति से भरा होगा। आज यही हो भी रहा है। बिगड़ते हालातों में लेखक का स्वप्न, उसकी आकांक्षा ज्यादा प्रतिक्रियावादी हुई है और अगर कहीं ऐसा नहीं हो रहा है तो उस पर लेखक बिरादरी स्वयं सवाल कर रही है। हो सकता है कि यह एक नया वर्तमान हो जिसे हम देख रहे हैं और इसका परिणाम भी दुःखद हो पर लेखक के स्वप्न और सामाजिक बुराईयों का यह द्वन्द अनवरत है। यह चलता रहा है और आगे भी चलता रहेगा।

तरुण भटनागर
तरुण भटनागर
कहानीकार और उपन्यासकार हैं । इनके चार कहानी संग्रह हैं- 'गुलमेंहदी की झाड़ियाँ','भूगोल के दरवाज़े पर', 'जंगल में दर्पण' तथा 'प्रलय में नाव'। चयनित कहानियों की किताबें 'गौरतलब कहानियाँ',' मैं और मेरी कहानियाँ', 'वनमाली सिरीज : दस कहानियाँ' आदि। तीन उपन्यास 'लौटती नहीं जो हँसी',' राजा, जंगल और काला चाँद' तथा 'बेदावा'। उपन्यास 'राजा, जंगल और काला चाँद' तथा कहानियों की किताब 'प्रलय में नाव' का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित। साहित्यिक पत्रिका 'रचना समय' और 'पल प्रतिपल' के रचना केंद्रित समग्र अंक,रचना समय की एक पुस्तिका कहानी 'पारगमन' पर। नवीन उपन्यास और चयनित कहानियों की एक किताब शीघ्र प्रकाशनाधीन। भारत भवन के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में कार्य। वागेश्वरी सम्मान, स्पन्दन कृति सम्मान, वनमाली सम्मान, मध्य भारत हिंदी साहित्य सभा का हिंदी सेवा सम्मान आदि। वर्तमान में इंदौर में निवासरत हैं।
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