Friday, October 10, 2025
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दृश्यम: बीच के सिनेमा के शिल्पकार- हृषिकेश मुखर्जी

हृषिकेश मुखर्जी ने वैसे तो बहुत तरह की फ़िल्में बनाईं मगर अपने मध्यवर्ग के दर्शक को उन्होंने हमेशा ध्यान में रखा। हृषि दा ने शुध्द फार्मूले की ( दो दिल), सस्पेंस ( बुड्ढा मिल गया) और कभी कभार बहुत अधकचरी प्रेरणा पर आधारित फ़िल्में ( चैताली ) भी बनाईं लेकिन उनकी असली धातु ‘अनुराधा’, ‘अनुपमा’, ‘सत्यकाम’, ‘आनन्द’ ‘बावर्ची’ और ‘अभिमान’ जैसी फ़िल्मों में है। इनमें से ज़्यादातर में एक क़िस्म का शुगरकोटेड, कभी कभी भावुक, आदर्शवाद हमेशा मिलता है। 

प्रायः बांग्ला फ़िल्मकारों की परम्परा में एक अच्छी कहानी या साहित्यिक कृति उनकी फ़िल्मों का आधार रही है। ‘चुपके चुपके’ से वे पूरी तरह कॉमेडी की ओर आते हैं और ‘गोलमाल’ में यह जॉनर अपनी बुलंदियों पर पहुंचता है। सिचुएशनल गलतफहमियों पर टिकी हुई उनकी अनेक हल्कीफ़ुल्की कॉमेडी फ़िल्में हैं जैसे ‘नरम गरम, ‘रंगबिरंगी’ और ‘किसी से न कहना’ आदि। एक बड़ी सफलता के हैंग ओवर में बनाई गई इन फ़िल्मों को उतनी सफलता भले ना मिली हो, हृषि दा के अपने ब्रांड का मनोरंजन दर्शकों को ज़रूर मिला है।

जाहिर है कि मुखर्जी अपने गुरु विमल रॉय की तरह विविधता में तो गए पर उनकी तरह महत्त्वाकांक्षी नहीं रहे। विपुलता में गुणवत्ता को कायम रखना वैसे भी मुश्किल होता है, लेकिन एक स्तर से नीचे उनके यहाँ अक्सर कुछ नहीं है। विमल रॉय का क्लासिकी अंदाज़ उनके यहाँ मिसिंग है। इसकी बजाय एक क्षैतिज विस्तार है, जिसमें औसत से कुछ बेहतर सिनेमा उन्होंने दिया और अपना एक दर्शक वर्ग बना कर उसे कायम और प्रसन्न रखा। 

बासु चटर्जी इसी स्लॉट के एक और दावेदार रहें। यह हिन्दी का बीच का सिनेमा था जिसमें बड़ी स्टारकास्ट नहीं होती थी लेकिन अपनी रंजकता से यह एक वर्ग को अपील करता रहा। कम बजट, आम से चेहरे, आसपास की कहानियाँ, ऐसा वातावरण कि जिससे मध्यवर्गीय दर्शक अपना राब्ता क़ायम कर सके, इस सिनेमा की अपनी ख़ासियत थी। बहरहाल, इसकी भी एक उम्र थी। नये दौर में अनिल कपूर, जूही और अमरीश पुरी के साथ ‘झूठ बोले कौआ काटे’ में इस दौर का अवसान नज़र आता है।

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बासु चटर्जी और हृषिकेश मुखर्जी में यूँ तो अनेक समानताएँ हैं, जैसे साधारण चरित्र, वैसे ही चेहरे, प्राय: किसी साहित्यिक कृति का आधार; लेकिन कुछ फ़र्क़ भी हैं। बासु की फ़िल्मी रफ़्तार तेज़ थी और वे अपनी कुछ फ़िल्मों में हृषि दा की तरह कथा, निर्माण के पहलुओं, और समग्रत: प्रभाव के बारे में बहुत गंभीर नहीं लगते। जैसे जैसे फ़िल्में निर्देशित करने की उनकी रफ़्तार बढ़ती है, उनकी फ़िल्मों की गुणवत्ता पर असर नज़र आता है। हृषि दा के समग्र काम में ऐसी फ़िल्में बहुत कम हैं जिनमें कम तैयारी या गुणवत्ता मिलती है। उनकी विषयवस्तु तो इतनी सशक्त होती ही थी कि प्रोडक्शन के स्तर पर यदि कोई कसर रही भी हो तो वह कभी अखरती नहीं थी।

हृषिकेश मुखर्जी शायद अकेले निर्देशक होंगे जिनकी कई फ़िल्मों के केन्द्र में चरित्र अभिनेता हैं, हीरो हीरोइन चाहे कोई हो। जैसे ‘चुपके चुपके’ में ओमप्रकाश, ‘गोलमाल’ में उत्पल दत्त, ‘खूबसूरत’ में दीना पाठक, ‘मेम दीदी’ में ललिता पवार, ‘आशीर्वाद’ में’ अशोक कुमार, ‘अर्जुन पंडित’ में संजीव कुमार और अशोक कुमार, ‘बुड्ढा मिल गया’ में फिर ओमप्रकाश वगैरह वगैरह। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि हृषिकेश मुखर्जी के लिए कहानी अधिक महत्त्वपूर्ण थी और जब भी ऐसा होता है चरित्र कलाकारों के लिए अधिक स्पेस निकलता है।

एक और बात यह भी कि हिन्दी सिनेमा के उस ड्रामा प्रधान दौर का हिस्सा होते हुए भी, हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में पारंपरिक मेलोड्रामाई रंगढंग से अलग, वास्तविक से किरदारों और स्थितियों के ज़्यादा नज़दीक जाती हुई लगती हैं। यह वह शुरुआत थी जिसने आजकल के दौर में एक मजबूत जगह पा ली है। मुख्यधारा की फ़िल्में अब यथार्थ के बहुत क़रीब हैं और उस यथार्थ के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ड्रामा को एक्सप्लोर करती हैं। 

ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में हृषिकेश मुखर्जी का शुगरकोटेड तरीका पीछे छूट चुका है लेकिन बेहद अवास्तविक किस्म के विशुद्ध पलायनवादी मनोरंजन से एक बड़ा प्रस्थान हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में ही पहले-पहल संभव हुआ था, इसमें संदेह नहीं।

फ़िल्मों में मध्यवर्गीय साधारण चेहरों को प्रमुखता देने का श्रेय भी सबसे पहले हृषि दा और बासु दा को ही है। ‘बुड्ढा मिल गया’ में अर्चना, ‘गुड्डी ‘में जया भादुरी, ‘आनन्द’ में अमिताभ बच्चन ऐसे ही चेहरे थे। आसपास के और साधारण। यह भी अपनी फ़िल्मों के परिवेश को वास्तविकता का स्पर्श देने में महत्त्वपूर्ण कदम था। कह सकते हैं कि हृषि दा ने विमल रॉय की छाया से निकल कर अपनी फ़िल्मों का अलग दर्शक वर्ग बनाया और इस वर्ग के रुचि को परिष्कृत भी किया।

हृषिकेश मुखर्जी की एक और अन्यतम विशेषता है: उनकी फ़िल्मों की मधुर मध्यवर्गीय पारिवारिकता। उनके पात्र प्राय: छोटों के प्रति स्नेह और संरक्षणशील होते हैं। ‘गुड्डी’ हो या ‘खूबसूरत’, ‘बावर्ची’ हो या ‘चुपके चुपके’ : हृषि दा ने इस पारिवारिकता के बहुत प्यारे और आत्मीय चित्र प्रस्तुत किये हैं। 

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‘गुड्डी’ में जहाँ उन्होंने मध्यमवर्गीय दर्शकों के फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध और सम्मोहन के पीछे की वास्तविकताओं को, बिना कड़वाहट के प्रस्तुत किया है; वह दर्शकों के अनुभव संसार के भी बहुत नज़दीक रहा है। एक युवा होती हुई लड़की का फ़िल्म स्टार धर्मेंद्र के प्रति ऑब्सेशन और उसकी भाभी के मामा का धर्मेंद्र के मदद से ही उसे इस सम्मोहन से बाहर लाना ; हृषि दा इस नाज़ुक कथा सूत्र को अपनी रोचक शैली में निभाते हैं। 

अक्सर वे फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर नाकाम रह जाती हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री के स्याह सचों को सामने लाती हैं लेकिन ‘गुड्डी’ ऋषि दा के निजी स्पर्श के कारण एक यादगार फ़िल्म रही है। इसने जया भादुड़ी जैसी अप्रतिम कलाकार से हिंदी फ़िल्म जगत और दर्शकों को परिचित करवाया, अनेक अन्य नवोदित कलाकार इसके ज़रिए सामने आए, गुलज़ार के साथ उनके सहकार के उस प्यारे दौर में प्रगाढ़ता आई और सत्तर के दशक के फ़िल्मी ढर्रे से हट कर एक नई क़िस्म की शुरुआत हुई।

ऐसे ही ‘ख़ूबसूरत’ में उन्होंने रेखा को एक अलग ही ढंग से प्रस्तुत किया। दर्शक रेखा को व्यावसायिक सिनेमा के एक क़ामयाब और ग्लैमरस अभिनेत्री के रूप में ही जानते थे। ‘घर’ से उन्होंने साबित किया था कि वे चुनौतीपूर्ण किरदार भी बख़ूबी निभा सकती हैं। ‘ख़ूबसूरत’ में उन्होंने अपने भीतर से जैसे एक नयी ही रेखा को पर्दे पर उतार दिया। बिना हृषि दा के स्पर्श के यह सम्भव नहीं था। 

इसके पहले ‘नमक हराम’ और ‘आलाप’ में भी रेखा उनके साथ काम कर चुकी थीं लेकिन ‘ख़ूबसूरत’ में तो वे अनूठी हैं। घर के अति अनुशासन के नीचे घरवालों की मुरझाती जीवंतता को कुरेद कर नयी संजीवनी देने वाली रेखा और उनके सामने अपने अनुशासन और सख़्ती के साथ दीना पाठक। यूँ इसके बाद उन्होंने ‘ख़ूबसूरत’ के हैंगओवर में ‘झूठी’ भी बनाई लेकिन किसी भी जादू को दुबारा जगाना बहुत कठिन होता है।

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‘खूबसूरत’ में रेखा

हृषिकेश मुखर्जी आला दर्जे के फ़िल्म संपादक भी थे। उन्होंने अपने गुरु विमल राय की फ़िल्मों के अलावा अनेक फ़िल्मों का संपादन किया और इसके लिए अनेक पुरस्कार प्राप्त किए। बेहतरीन फ़िल्म संपादकों की किसी भी सूची में उनका नाम अगले क्रमों में रहेगा, इसमें संदेह नहीं। संपादन की यही पकड़ उनके निर्देशक के लिए बहुत मददगार साबित हुई होगी। इसीलिए उनके यहाँ फ़िज़ूल के दृश्य और संवाद अक्सर नहीं मिलते।

गुलज़ार ने उनकी अनेक फ़िल्मों में गीत, संवाद, पटकथा आदि लिखे हैं। हृषि दा और गुलज़ार दोनों ही विमल रॉय स्कूल के उत्पाद हैं जिन्होंने मिडिल ऑफ़ द रोड सिनेमा को मजबूती से स्थापित किया। हृषिकेश मुखर्जी ने जहाँ अक्सर एक तरह के आदर्शवाद को अपनी फ़िल्मों में प्रमुखता दी, गुलज़ार को मानवीय सम्बन्धों के जटिल तानेबाने ने ज़्यादा खींचा । जिस एक जगह दोनों मिलते हैं- वह है ‘सिचुएशनल कॉमेडी’; जिसे हृषि दा ने ‘चुपके चुपके’, ‘गोलमाल’, ‘रंगबिरंगी’, ‘नरम गरम’, ‘किसी से ना कहना’ आदि फ़िल्मों के ज़रिए अपने ख़ास पारिवारिक रंग में प्रस्तुत किया और गुलज़ार ने विमल राय की ही ‘दो दूनी चार’; जो शेक्सपियर के कॉमेडी ऑफ़ एरर्स पर आधारित थी, को ‘अंगूर’ के रूप में पुनर्प्रस्तुत किया। स्वस्थ हास्य की ये फ़िल्में हिन्दी सिनेमा के दर्शक के स्मृति कोश की अनमोल धरोहर हैं।

हृषि दा की जिस फ़िल्म ने क्लासिक दर्जा पाया, वह ‘आनंद’ है। हँसाते हँसाते रुलाने वाली यह फ़िल्म हृषि दा की ही नहीं, राजेश खन्ना की भी शिखर फ़िल्म है, जिसने उनके स्टारडम को पुख़्तगी दी। राजेश खन्ना की जो छवियाँ हिन्दी सिने दर्शकों के मन में बसी हुईं हैं उनमें आनंद की भूमिका सर्वोपरि है। उसके संवाद – ‘ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं जहाँपनाह’… वगैरह आज भी दर्शकों के मन में गूँजते हैं। बिना रक्तसंबंधों के- प्रेम संबंधों की जो अनुरागमय पारिवारिकता ऋषि दा निर्मित करते हैं, वह लासानी है। 

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इस फ़िल्म में रमेश देव-सीमा देव, ललिता पवार, जॉनी वाकर जैसे सहयोगी किरदारों के नक़्श भी दर्शक के ज़ेहन में उतर जाते हैं। एक बड़ी फ़िल्म की यह भी एक पहचान है कि वह अपने गौण चरित्रों को भी यादगार हो जाने का स्पेस उपलब्ध करवाती है।

वे ‘अनुराधा, ‘अनुपमा’ और ‘अभिमान’ में भी मानवीय संबंधों के सूक्ष्म और जटिल तानेबाने को बहुत संवेदनशील ढंग से स्पर्श करते हैं। ख़ास तौर पर ‘अभिमान’ में, जहाँ वे गायक कलाकारों के दाम्पत्य में ईर्ष्या जैसे विवादी सुर के प्रवेश और उससे हुए अलगाव के विष-विद्रूप को महीन ढंग से दिखाते हैं। एस डी बर्मन का संगीत, जया अमिताभ का अभिनय और हृषि दा का निर्देशन इस फ़िल्म को ऑल टाइम फ़ेवरिट बनाए रखता है।

उन्होंने बयालीस फ़िल्मों का निर्देशन किया जिसमें से लगभग एक दर्जन फ़िल्में यादगार हैं। अमिताभ बच्चन ने उनकी सात फ़िल्मों में अभिनय किया है। ‘आनंद’ ने ही डॉक्टर भास्कर बैनर्जी के किरदार में अमिताभ को इंडस्ट्री में स्थापित किया। जया भादुड़ी को तो उन्होंने ही सिने दर्शकों से परिचित करवाया, जिन्होंने उनके साथ पाँच फ़िल्में कीं। यदि जया ने फ़िल्मों में काम करना विवाह के बाद छोड़ा न होता, तो यह संख्या और अधिक होती। वे हृषि दा को अपना मेंटर और फ़ादर फ़िगर मानती रही हैं। रेखा ने उनकी चार फ़िल्मों में अभिनय किया है। कह सकते हैं कि फ़िल्म जगत के इस चर्चित त्रिकोण का हृषि दा से एक अलग ही लगाव और आत्मीयता रहा है।

यह समय तेज़ी से पुरानी चीज़ों, लोगों और घटनाओं के विस्मरण का है, क्योंकि भले ही इंटरनेट चीज़ों को संदर्भों में संरक्षित करता है, उस पर कंटेंट का घमासान और रफ़्तार पुराने को तेज़ी से कालबाह्य भी करती रहती है। हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों ने मुख्यधारा में से अपनी एक धारा अलग बनाई थी, उनमें कुछ ऐसे किरदार आए थे, जो दर्शक स्मृति में अटके रह गए हैं; ऐसा संगीत जो अब भी गूँजता है, ऐसी हँसी जो आज भी उमगती है- उम्मीद यही है कि वे अपनी फ़िल्मों के बलबूते पर हमारी सामूहिक स्मृति में बने रहेंगे।

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