Friday, October 10, 2025
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विरासतनामा: टीले- वैरागी दरवेशों का डेरा

“..उचड़ा रोज़ा पीरा तेरा, 
हेठ वगे दरिया, ओ बला, 
झूलेलाल !”

पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बसी लाल शाहबाज़ कलंदर की दरगाह पर आधारित यह सूफियाना कलाम कहता है कि पीर का स्थान ऊँचे टीले पर बना है और नीचे दरिया बह रहा है।

टीलों पर छपा सूफ़ी-सन्तों का इतिहास

अमूमन, सन्तों के डेरे और सूफ़ी दरगाहों का ऊँचे टीलों पर स्थित होना आम चलन है। पाकिस्तान की सिंध स्थित शाह अब्दुल लतीफ़ भितई की दरगाह भी सफ़द रेतीले भित्तों यानी टीलों पर ही बनी है। इन रेतीले टीलों के बीच शाह लतीफ़ ने एक छोटी सी गुफा बनाई थी, जहाँ वे अपनी आत्मा की गहराई में जाकर चिंतन करते थे। 

कहते हैं कि शाह लतीफ़ बचपन में भी बस्तियों और घरों से दूर आकर इन रेतीले टीलों के चारों ओर झाड़ियों के घने समूह में ध्यानमग्न हो जाया करते थे। आज भी उनकी दरगाह इन्हीं भित्तों (टीलों) पर आबाद है।

इसी तरह नाथपंथ के सबसे मक़बूल जोगी गुरु गोरखनाथ का ठिकाना भी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में टिल्ला जोगियाँ में स्थित है। टिल्ला जोगियाँ यानी योगियों का टीला, जहाँ अनगिनत साधु और योगी ध्यान, योग और ज्योतिष का अभ्यास करते थे। गुरु गोरखनाथ के दौरान, टिल्ला जोगियां आध्यात्मिक ज्ञान की खोज में सांसारिक जीवन त्यागने वाले जोगियों का स्थाई पता बन गया था। 

हीर के विरह में भटकते राँझे ने इसी टीले पर आकर कनफटे जोगी का भेष धरा। राजा भृत्रिहरि ने भी राजपाट त्याग यहीं जोग लिया। राजा रिसालू और पूरण भगत भी इसी टिल्ला जोगियाँ पर आकर ही जोगी बने। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव ने 16वीं शताब्दी में 40 दिनों तक टिल्ला जोगियां में ही ध्यान किया था। 

ऐसे ही लाहौर स्थित शाहजमाल की दरगाह भी एक टीले पर ही बनी है, जहाँ कभी एक मुगल राजकुमारी का महल हुआ करता था। एक लोककथा के अनुसार, शाहजमाल जब महल के पास आकर रहने लगे तो राजकुमारी ने इसके खिलाफ शिकायत की। जब शाहजमाल को इसके बारे में पता चला तो उसने गुस्से में धमाल नाच करना शुरू कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप महल नष्ट हो गया और उसके पैर के नीचे दब गया। महल के खंडहर का टीला बनने के बाद जोगी शाहजमाल उसके ऊपर ही रहने लगे और अब उनकी दरगाह भी इसी टीले पर स्थित है। 

इसी तरह पाकिस्तान की पीर नौलखा हज़ारी और मोरों वाली सरकार की दरगाहें भी टीलों पर ही बसी हैं। कश्मीर में ऐशमुकाम स्थित सूफ़ी संत ज़ैनुद्दीन वली की दरगाह भी इसी तरह एक पहाड़ी टीले पर बसी है, जहाँ बड़ी तादाद में ज़ायरीन आते हैं। 

निर्जन टीलों पर बसावट की वजह

टीलों पर संतों और दरवेशों का डेरा बनने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। सूफीवाद के आगमन से पहले ही कुछ टीले पवित्र स्थल या प्राचीन कब्रगाहें हुआ करती थी। इन स्थानों पर नए सिरे से आध्यात्मिक तीर्थस्थल बनाना श्रद्धा के मौजूदा केंद्र को अपनाने या अतीत के साथ ताल्लुक बनाने का एक तरीका हो सकता है।

यूँ भी टीले स्वाभाविक रूप से एक ऊँचाई प्रदान करते हैं, जिससे सांसारिक मोह से अलगाव पैदा होता है, जो संतों के आध्यात्मिक चिंतन के लिए अनुकूल था। किसी दरगाह तक पहुंचने के लिए टीले पर की जाने वाली चढ़ाई आत्मा के परमात्मा से मिलन की आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक हो सकती थी। टीले पर बनी दरगाह या डेरा अपने इर्द गिर्द की बसावटों से ज़्यादा नुमाया होता है, जो संभवतः उससे जुड़े संत के आध्यात्मिक कद और प्रभाव को दर्शाता है। इसीलिए भी टीलों का चुनाव इन अध्यात्मिक केंद्रों के रूप में किया गया। 

रूहानी पदचिन्हों के साथ-साथ

रूहानियत और सियासत की छाप लिए टीलों पर बसे सूफ़ी-स्थलों और डेरों की निर्माणकला में हर अंश का एक सांकेतिक महत्त्व रहा है। निर्जन टीलों पर रूहानियत के पदचिन्ह छोड़ते इन वैरागी दरवेशों के डेरों के ज़िक़्र के बगैर हमारी सांझी विरासत की कहानी अधूरी है।

यह भी पढ़ें- विरासतनामा: कालका शिमला रेलमार्ग- अतीत और वर्तमान को जोड़ती कड़ी

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