पिछले कुछ दिनों में मीडिया में दो घटनाएं छाई रहीं। पहली घटना में रोहिणी आचार्य का नाम मीडिया की सुर्खियों में रहा, दूसरी में धर्मेंद्र की मृत्यु के बाद हेमा मालिनी के द्वारा धर्मेंद्र के पहले परिवार से अलग अपने निजी स्पेस में धर्मेंद्र को दी गयी शोकांजलि की चर्चा हुई। हेमा मालिनी वाली घटना के दौरान मेरे मन में लगातार यह सवाल आता रहा कि यह उनका व्यक्तिगत चुनाव था या फिर उन पर थोपी गई कोई बाह्य मजबूरी। इन्हें देखते और समझते हुए मुझे कानूनविद और लेखक अरविंद जैन की दो किताबें लगातार याद आती रहीं— ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’ और ‘औरत होने की सजा’।
ये दोनों घटनाएं सिर्फ इसलिए पब्लिक स्फीयर में नहीं छाई रहीं कि इनका संबंध राजनीति और फ़िल्मी ग्लैमर-दुनिया से था, बल्कि इसलिए भी कि इनका संबंध स्त्री से था, स्त्री के हक और उसकी आवाज़ से था।
रोहिणी आचार्य के संघर्ष और धर्मेंद्र की विवादित विदाई ने हमें याद दिलाया है कि स्त्रियां केवल रिश्तों की योजक-चिन्ह ही नहीं, बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्व भी होती हैं। उनकी पहचान, उनकी भावनाएं, उनका सम्मान केवल शब्दों से या शब्दों में नहीं, बल्कि देश, सियासत, समाज, परिवार और मीडिया- सभी जगह समुचित रूप से होना चाहिए।
मैं रोहिणी आचार्य की तथाकथित राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से अवगत या अनवगत और सहमत या असहमत नहीं। न हेमा मालिनी के एक विवाहित व्यक्ति से बगैर उनके तलाक लिए दूसरी शादी के समर्थन में हूं।
हेमा ने खुद भी अपने इस चुनाव को न कभी जस्टिफाई-ग्लोरीफाई किया और न करना चाहा। बल्कि इसे एक नियति की तरह स्वीकार करते हुए न अन्य अभिनेत्रियों की तरह उनके घर गईं, न उन्हें अपने पहले परिवार से जुदा किया, न अपनी जरूरी-गैरजरूरी जिम्मेदारियां उन पर थोपीं। न उन्हें अपने साथ या केवल अपने साथ रहने को मजबूर किया।
रोहिणी भी उस वक्त चुप ही रही थीं जब उनकी भाभी ऐश्वर्या को इसी तरह घर-बदर किया गया था, जब उनके बड़े भाई को परिवार से बाहर किया गया। हो सकता है उस चुप्पी में उनकी सहमति शामिल न हो, बस परिवार की गलती को किसी तरह दबा लिए जाने की नाकाम कोशिश भर हो। हो सकता है, फिलवक्त उन्हें अपनी इस चुप्पी पर कहीं अफसोस भी हो।
पर फिलहाल इन सारी संभावनाओं और दुर्भावनाओं को पीछे रखकर हम एक बेटी की मायूसी, उसके दर्द, उसके बलिदान और इसके ऐवज में मिले उसके अपमान की बात पर आते हैं।
ये दोनों ही घटनाएं महज़ कोई पारिवारिक विवाद नहीं हैं, बल्कि उस सामाजिक संरचना का प्रतीक हैं जिसमें बेटियों या फिर स्त्रियों को “घर” या “परिवार” तक ही महदूद कर दिया जाता है। उनका अपना व्यक्तित्व, और पहचान मायने नहीं रखते। दूसरे यह कि इस पितृसत्तात्मक समाज में उनके पति-पिता या भाई का घर तो होता है, पर इनमें से कोई घर उनका नहीं होता। उनका घर वही होता है जिसे वे अपनी शिक्षा, मेहनत, स्वावलंबन और कमाई के बल पर अर्जित करती हैं।
हेमा का घर उनका निजी था, जहां वे अपना शोक अपने तईं मना सकती थीं। अपने एकांत में, अपने निजी दुख के साथ, अपनी दोनों बेटियों के साथ। वे पहले भी खुद के लिए और अपनी बच्चियों के साथ पूरी थीं और आज भी हैं। जबकि रोहिणी आचार्य का यह सफर पितृ-घर से निष्कासित होने के बाद पति-घर तक की दूरी तय करने के फासले जितना ही लंबा था। हालांकि यह फासला उतना छोटा भी नहीं था क्योंकि वह लगातार यह सवाल उठाती रहीं कि बेटी “पहचान” और “सम्मान” दोनों की हकदार होती है और उनकी पीड़ा, उनकी चुप्पियाँ और उनके अधिकार केवल पितृ-परंपरा की शर्तों के अधीन नहीं होने चाहिए। उन्होंने खुलकर कहा कि सिर्फ खामोशी, सहना आदि उनका उद्देश्य नहीं, बल्कि सम्मान और स्वतंत्रता उनका अंतिम मकसद है।
“अगर बेटियाँ केवल ‘परंपरा’ या ‘परिवार’ के अनुसार नहीं चलें, तो उन्हें ‘घर से निकालना’ आज भी इतना आसान क्यों है?” उनका ट्वीट— उनका सोशल-मीडिया-पावर अपनी तरह का था। उन्होंने कहा— “घर से तो निकाल देंगे… लेकिन जनता के दिल से निकाल पाना मुश्किल।”
उनके शब्दों, उनके रुदन, उनके आक्रोश ने एक हंगामा खड़ा किया। बताया कि बेटियाँ सिर्फ चेहरा नहीं, आवाज़ भी होती हैं। उनकी कोई निजी पहचान भी हो सकती है। उनकी भी अपनी इच्छा और स्वतंत्र चेतना होती है। वे परिवार के हाथ की कठपुतलियां मात्र नहीं होतीं। इस सारी कवायद में जहां कई लोग उनकी निंदा कर रहे थे कि वे पारिवारिक मर्यादाओं को तोड़ रही हैं, परिवार की इज्जत को सड़क पर ला रही हैं, वहीं कुछ स्त्रियों और यहां तक कि कुछ राजनेताओं ने भी कहा कि वे विवाहित हैं और उन्हें अपने पिता-भाई के फैसले यानी परिवार में दखल नहीं देना चाहिए, अपने घर में सुख-चैन से रहना चाहिए। लेकिन अधिकतर ने उनकी इस आवाज़ को समाज में बेटियों की दबी-छुपी चीख और आवाज़ की तरह देखा, सुना और समझा।
प्रश्न यह भी है कि वे किस परिवार और किस समाज से अपनी जगह या अपना अधिकार मांग रही थीं? उस माता-पिता से, जिसने एक अदद कुल-उद्धारक बेटे की आस में बेटियों की एक समूची पंक्ति खड़ी कर दी? उस मां से, जो नीतीश जी की मानसिक स्थिति को देखकर कहती हैं कि अपना राजनीतिक कद और पद अपने बेटे को सौंपकर उन्हें आराम करना चाहिए? (गोया राजनीति राजनीति नहीं, फलाने-ढिकाने की पैतृक और वंशानुगत संपत्ति हो!) या फिर उस जनता से, जिसके लिए बिना पुत्र का परिवार अभी भी अपूर्ण है, जहां बेटे ही वंशवाहक होते हैं और उनके बिना मां-बाप को मृत्योपरांत मोक्ष मिलना असंभव है?
उन्हें तो उस वक्त भी समझ आ जानी चाहिए थी जब तथाकथित रूप से अपनी पढ़ी-लिखी बेटियों को तीन या तेरह में न गिनते हुए एक अधपढ़ बेटे को अपना और अपनी पार्टी का उत्तराधिकारी चुनने का निर्णय उनके माता-पिता ने लिया। यह आवाज़ जो आज बुलंद हुई है, उन्हें तभी करनी चाहिए थी।
खैर, देर से आना हमेशा देर आना नहीं होता, कभी-कभी दुरुस्त आना भी होता है।
बेटियों के संदर्भ में अगर हम देखें तो न सिर्फ बिहार, बल्कि लगभग पूरा भारत कमोबेश उसी स्थिति में है। हालांकि 2004 में पुश्तैनी संपत्ति संबंधी बेटियों के पक्ष में आए कोर्ट के निर्णय ने समाज में एक बड़ी तब्दीली लाई है। बदलते समय और माता-पिता के सोच का भी इसमें बड़ा हाथ है कि बेटियां अब पहले जितनी कमजोर और असुरक्षित नहीं रहीं। आज वे पारंपरिक दबावों और चुनौतियों के बावजूद परिवार में अधिक सक्रिय, सशक्त और कानूनी तौर पर मजबूत स्थिति हासिल कर रही हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएं अब सीमा नहीं देखतीं। उनके सपने पुरानी व्याख्याओं से बाहर पैर पसारने लगे हैं। वे सिर्फ परंपराओं की परछाइयां नहीं, अपनी रोशनी में अपना नया सूरज गढ़ने की ताब रखती हैं। पर यह वास्तविकता आज भी असमान है, जिसका बंटवारा शहर-प्रांत, गांव-महानगर, शिक्षित-अशिक्षित परिवारों में स्पष्ट दिखता है।
सच्चाई यह है कि सामाजिक रूढ़ियां, आर्थिक निर्भरता और व्यवहारिक भेदभाव अभी भी बहुतायत में मौजूद हैं। कानूनी सुधारों ने अहम अधिकार तो दे दिए, पर सामाजिकता के बने-बनाए ढांचे अमूमन अब भी वही हैं। मानसिकता भी लगभग वैसी की वैसी।
कोर्ट के इस निर्णय का लागू होने और इसकी सामाजिक स्वीकार्यता की राह में अभी भी अनेक बाधाएं हैं। इसके लिए माता-पिता और समाज को बेटियों की शिक्षा, सुरक्षा और वजूद के लिए चैतन्य होना पड़ेगा। पहला काम- उन्हें शिक्षित करना चुनना होगा, न कि विवाहित करना। फिर यदि वे समर्थ हैं, तो दहेज देना अस्वीकार करके (जो कि कानूनी तौर पर दंडनीय है), उन्हें एक छत मुहैया करानी होगी, छोटा-सा ही सही, एक घर, जो उसका हो, उसके पिता या पति का नहीं। जहां वह कभी भी, कहीं से जाकर लौट सके। ‘आजादी मेरा ब्रांड’ की लेखिका अनुराधा बेनीवाल ने कहा है कि वो सारी दुनिया इसीलिए आराम से घूमती हैं कि उन्हें पता है कि उनके पास उनका अपना घर है, जहां उनके नाम की नेमप्लेट लगी है। उनके पिता का दिया हुआ छोटा-सा घर।
लड़कियों को चाहिए कि वे खुद भी प्यार और रुमानियत के ऊपर शिक्षा और स्वावलंबन को तरजीह दें। खुद कमाकर ब्याह के लिए दहेज बनाने या इस मुहिम में पिता का हाथ बंटाने के बजाय अपने निजी घर की अहमियत और जरूरत को समझें।
घर, छत और स्वावलंबन के स्त्री-जीवन में महत्व पर लौटते हुए हम पुनः हेमा मालिनी की तरफ चलते हैं, क्योंकि यह सब उनके पास था। क्या उनका अनुपस्थित रहना, जानबूझकर अनुपस्थित रहना था, या अलग होने / किए जाने की मजबूरी? क्यों एक पत्नी, एक बेटी को अपने पति-पिता की अंतिम यात्रा में मुख्य नहीं माना गया? क्यों इस प्रकार की विभाजनकारी व्यवस्था अब भी हमारी सोच में है?
बहुत से लोग जहां इसे हेमा मालिनी के निजी फैसले, उनकी गरिमा और सम्मान से जोड़कर देख रहे थे, वहीं अधिकतर इसे परिवार की विभाजन-कथा, पुरानी मर्यादा और बॉलीवुड की ‘पहली पत्नी बनाम दूसरी पत्नी’ की जटिलताओं का नतीजा बता रहे थे।
तमाम स्वाधीनता और खुद से कमाए सुख-साधनों के अलावा और भी कुछ था उनके पास- धर्मेंद्र के लिए उनका अंधा प्रेम। उनकी स्त्री स्वभावजन्य भावुकता। तभी तो एक बेटी, मां-बाप की अनिच्छा और नाराजगी के विरुद्ध जाकर, दूसरी पत्नी बनना चुनती है। तमाम रिश्तों को ठुकराकर धर्मेंद्र के साथ रिश्ते में आना कबूलती है।
हमारे सामाजिक-पारिवारिक तंत्र में आज भी ऐसी धारणाएं हैं जो बेटी, तलाकशुदा पत्नी, दूसरी पत्नी, सौतेली संतान- इन सभी को बराबर नहीं समझतीं। हेमा यह जानती थीं कि उनकी वैवाहिक स्थिति वैधानिक तौर पर एक असुरक्षित स्थिति है। लेकिन उन्हें इस रिश्ते के एवज में कुछ चाहिए भी नहीं था। वे मानती हैं कि वह कभी “किसी का घर तोड़ने वाली औरत” नहीं बनना चाहती थीं।
जब उन्होंने धर्मेंद्र से शादी का फैसला लिया, तब वे जानती थीं कि उनकी एक पत्नी और चार बच्चे हैं। इसलिए शादी के बाद उन्होंने सबसे मुश्किल, लेकिन सबसे शांत रास्ता चुना। उन्होंने कभी यह कोशिश नहीं की कि धर्मेंद्र अपनी पहली पत्नी प्रकाश कौर और बच्चों को छोड़कर उनके साथ एक ही घर में रहें।
अपने साक्षात्कारों और बायोग्राफी में हेमा खुलकर बताती हैं कि उन्हें लगा कि दो परिवारों को एक छत के नीचे रखने की जिद सबके लिए ज्यादा दर्दनाक होती। वह मानती हैं कि अगर वे उसी घर में चली जातीं, तो पहली फैमिली को हर पल अपना घर, अपना पिता, अपना स्पेस खतरे में लगता और वह यह नहीं देख सकती थीं। इसलिए उन्होंने अपना अलग घर बनाया। अपनी बेटियों ईशा और अहाना के साथ छोटी-सी दुनिया बसाई। और बस इतना चाहा कि जब भी जरूरत हो, धर्मेंद्र उनके साथ खड़े रहें।
दुनिया की अदालत ने उन्हें शायद ही कभी बरी किया हो। जब भी धर्मेंद्र और उनके रिश्ते की बात आई, उंगलियां ज्यादातर उन्हीं पर उठीं। जैसे दो लोगों के फैसले में गलती सिर्फ एक औरत की हो।
उन्हें “दूसरी औरत”, “घर तोड़ने वाली” जैसे टैग मिले, जबकि वह बार-बार कहती रहीं कि उन्हें न प्रॉपर्टी चाहिए, न शोहरत। उन्होंने सिर्फ इतना चाहा कि उन्हें और उनकी बेटियों को इज्जत के साथ स्वीकार किया जाए। और वह इज्जत, वह सम्मान भी उनके हिस्से कहां आता है?
सालों की चुप्पी तोड़ते हुए जब हेमा कहती हैं, “मैंने किसी का हक नहीं छीना, बस अपने हिस्से का प्यार मांगा।” तो यह बात उन सारी औरतों की आवाज़ बन जाती है, जो रिश्तों के जटिल जाल में कहीं न कहीं “खलनायिका” घोषित कर दी जाती हैं। इसलिए उनका “I was blamed for everything” वाला वाक्य कोई फिल्मी डायलॉग नहीं, उस औरत का मन और दर्द है जिसने अपनी खुशी और दूसरों की इज्जत दोनों को बचाने की कोशिश की और बदले में अक्सर सिर्फ गलतफहमियां और दुनिया का जजमेंटल होना झेलती रहीं।
आज जब वह अपने फैसले की वजहों पर खुलकर बात करती हैं, तो कहानी ग्लैमर वाले प्रेम-प्रसंग से आगे बढ़कर एक इंसानी दास्तान बन जाती है, जिसमें प्यार, अपराधबोध, सम्मान और अकेलापन सब कुछ एक साथ गूंथा हुआ है। जिसमें अपनी गलतियों का स्वीकार भी है और अकेले रह जाने की उनकी नियति भी, जिसका स्वीकार भी उन्होंने गरिमा से किया, तमाम लड़कियों को जैसे एक मूक संदेश देते हुए…
हेमा मालिनी ने अपना ‘स्व’ अर्जित किया और रोहिणी उसकी यात्रा में हैं। यह यात्रा कितनी दूर तक जाएगी, यह अनुमान लगाना अभी कठिन है। पर ये दोनों ही स्त्रियां अपनी-अपनी तरह से स्त्रियों, खासकर युवतियों के लिए एक मॉडल तो तय करती ही हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं… क्या चुनना चाहिए, क्या नहीं।
सच यह भी है कि विवाद, विभाजन, निजी दर्द…इन्हें सार्वजनिक व्याख्याओं में सीमित करके समझा नहीं जा सकता। किसी के निजी दर्द में सार्वजनिक स्पेस वह जगह नहीं होनी चाहिए जहां पुरानी घटनाएं और धारणाएं बार-बार दुहराई जाएं। और इस सबमें सबसे जरूरी है- समाज के तौर-तरीकों की एक नवीन समीक्षा।


यह लेख बेहद संवेदनशीलता और वैचारिक गहराई के साथ आज की भारतीय स्त्री के ‘घर’, ‘हक’ और ‘आवाज़’ के प्रश्नों को उद्घाटित करता है। रोहिणी आचार्य की प्रतिरोधी पुकार और हेमा मालिनी की मौन गरिमा—दोनों प्रसंगों को आधार बनाकर लेखिका ने पितृसत्ता, उत्तराधिकार, पहचान, सम्मान और स्त्री-स्वतंत्रता के मूल मुद्दों पर अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रकाश डाला है। निजी कथाओं के माध्यम से सामाजिक संरचनाओं की विसंगतियों को देखने का यह प्रयास न सिर्फ भावनात्मक रूप से स्पंदनशील है, बल्कि विचारोत्तेजक भी है। लेख यह बताता है कि स्त्री केवल संबंधों की वाहक नहीं, बल्कि अपने स्वत्व, अपने संघर्ष और अपनी रोशनी से समाज को आईना दिखाने वाली सशक्त इकाई है। यह रचना समकालीन स्त्री-चेतना की एक प्रखर और आवश्यक आवाज़ की तरह पाठक के भीतर देर तक गूंजती रहती है।
बहुत अच्छा लिखा है आपने, ज़रूरी मुद्दे उठाए हैं।स्त्री को आज भी कुछ ख़ास बातों से ही जोड़ कर रखा जाता है, उसके लिए नियम समाज निर्धारित कर देता है। आपका यह लेख बेहद महत्वपूर्ण विषय पर आधारित है।
शुक्रिया लकी राजीव!
शुक्रिया उर्वशी!
कितना अच्छा लिखा आपने कविता l
आपने बहुत सुंदर लेख लिखा है। आपने नारी-स्वाभिमान और अधिकार जैसे जरूरी मुद्दों को बेहद सटीक ढंग से उठाया है। हमारे समाज में आज भी यही सोच गहरी जमी है कि स्त्री का प्रेम दोष माना जाता है, पर पुरुष का प्रेम गलती नहीं समझी जाती। इसी दोहरे मापदंड को आपने बहुत अच्छे से उजागर किया है।
रोहिणी का कुछ बातों पर चुप रह जाना भी एक बड़ा संकेत देता है—कि यदि स्त्रियाँ गलत होने पर आवाज़ नहीं उठाएँगी, तो कल वही आवाज़ जो आज किसी और को अपराधी ठहरा रही है, उन्हें भी नहीं बख्शेगी। किसी न किसी दिन, हर किसी की बारी आएगी।
बहुत सुंदर लेखन—आपको साधुवाद।
शुक्रिया नीलिमा जी!