Thursday, October 9, 2025
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रचनाकार का स्वप्न: क्या मुझे इस विकृत और विदूषक समय से डर जाना चाहिए?

सपने इंसान की जिंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। सपने देखना और उन्हें मुकम्मल करने की कोशिश ही इंसान को इंसान बनाती है। क्या किसी रचनाकार का स्वप्न आम मनुष्य के स्वप्न से अलग और वृहत्तर होता है? आज इस स्तम्भ की नवीनतम कड़ी के रूप में पढ़िये चरण सिंह पथिक को-

एक रचनाकार का स्वप्न उसकी रचना प्रक्रिया से गुत्मथगुत्था हुआ रहता है। या मैं कह सकता हूं कि जूझता रहता है। ये आपके रचनात्मक, जीवन के विभिन्त दौरों में अलग-अलग हो सकता है। शुरुआती दौर में ये स्वप्न बहुत सीमित दायरे में होता है। बाद में ये स्वप्न बाकायदा बदलता रहता है। ये भी हो सकता है कि शुरु‌आती दौर की आपकी रचनात्मक विधा बाद में बदल जाए, जाहिर सी बात है कि फिर विधा के बदलने के साथ-साथ आपकी रचना-प्रक्रिया भी बदलेगी। रचना-प्रक्रिया बदलेगी तो स्वप्न भी बदल जाएगा। मनुष्य की विचारधारा भी बदलती है और रचनात्मक कौशल भी बदलने लगता है। इससे होता ये है कि आपका रचनात्मक स्वप्न तो बड़ा होता जाता है, मगर लिखना कठिन प्रतीत होने लगता है।

मैंने जब लिखना शुरू किया तो मेरा स्वप्न बस इतना सा था कि मेरी कविताएँ प्रदेश की, देश की हर पत्र-पत्रिका में प्रकाशित हो और अखबारों के रविवारीय परिशिष्टों में अपने नाम के साथ अपनी कविता को प्रकाशित देखने का स्वप्न पाले मैं रात रात‌ भर जागकर तुकबंदी करता रहता था। मेरी रचनात्मक प्रक्रिया में कोई घटित घटना या कोई विचार तुकबंदी में दबकर कागज पर उतरने को बेताब रहता। मगर सब कविताएं लौटकर खेद सहित जब आती तो स्वप्नों पर तुषारापात हो जाता। ये एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया थी, जो चार-पाँच साल जारी रही। इससे हुआ ये कि रचानात्मक कौशल में निखार आता गया। वैचारिक परिपक्वता भाने लगी और विधागत चुनाव की समझ भी बढ़ने लगी थी। शिल्प और शैली की महत्ता भी कलात्मक कौशल के साथ-साथ थोड़ी-थोड़ी बढने लगी। ये बिना स्वप्न के संभव नहीं था।

सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते कोई मामूली सी घटित घटना विचारों के साथ जुगलबंदी करने लगती। फिर एक कहानी का अवतरण होने लगता। संवाद आने लगते। मगर शुरुआत कैसे हो ये एक रोड़ा रास्ते में जब-तब खड़ा ही मिलता। इस जैसा, उस जैसा लिखने का स्वप्न देखने लगता। मगर नहीं हो पाता। फिर कोई नया सपना आँखों में पलने लगता कि अलग हटकर कैसे लिखा जाए, कि दूर कोई पाठक सराहने लगे? अच्छी पत्रिका में छपूं और थोड़ी चर्चा हमारी भी हो जाए। ये हर रचनाकार का बुनियादी और शुरुआती स्वप्न होता हैं। अगर कथाकार है तो उसके अपने आदर्श लेखक दो-चार तो होंगे ही..! कवियों के भी। लेकिन ये शुरुआती स्वप्न है। बाद में ये भी बदलने लगते हैं।

किताबें प्रकाशित होने के बाद तो हर रचनाकार के स्वप्न वैश्विक स्वप्नों में परिवर्तित होने लगते हैं। धीरे धीरे ये वैश्विक स्वप्न भी दिवास्वप्नों में बदल जाते हैं। देश-विदेश की 22 भाषा में अनुवाद हो। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ से लेकर बुकर पुरस्कार तक के सपने आंखों में पलने लगते है। आखिर क्यों नहीं एक रचनाकार ये स्वप्न पाले कि उसकी रचनाओं को ज्यादा से ज्यादा पाठक मिले? वह ज्यादा से ज्यादा लोगों की बीच अपनी रचनाओं के चलते जाना जाए? डॉक्यूमेंटरी, सिनेमा टेलीविजन और सोशल मीडिया के दृश्य श्रव्य माध्यमों के जरिये उसका रचनात्मक दायरा बढ़े। ये हर किसी रचनाकार का एक स्वप्न होता है।

लेकिन स्वप्न और उसका दायित्व या उसकी जिम्मेदारी, उसकी चुनौती बन फिर गुत्मथगुत्था होने लगते हैं। लेखक के अपने स्वप्न, दिवास्वप्न हो सकते हैं। मगर इस कठिन समय में या कहें की हर दौर में हर लेखक के लिए कठिन होता है लिखना। उसको उसकी जिम्मेदारी और चुनौतियां पार करनी होती हैं। यह प्रश्न चसे बेचैन करता रहता है कि इस परिवर्तित समय में वो अपने दायित्वों का निर्वाहन कर पा रहा है? क्या वो अपने वक्त को अपनी रचनाओं में ठीक से दर्ज कर पा रहा?

अगर नहीं तो सारे स्वप्न मुंगेरीलाल के सपनों से इतर कुछ भी नहीं है। कोरे स्वप्न उसे रचनात्‌मक रुप से कहीं भी पहुं‌चाते नहीं है। लिखना तो निकोटिन के नशे की तरह है, जो आपके रक्त में घुलकर नर्सों में दौड़ने लगता है। आँखों से टपकने लगता है। वो कोरे ईंट- गारे, खाँचे पर मिट्टी का लोदा डालकर ईंट थापने जैसा काम नहीं है। वो कोई फाइव-स्टार की किसी डिश की रेसिपी जैसा भी नहीं है, कि फलाँ-फलाँ मसाले उतने उतने ग्राम या चम्मच डालो और कहानी, कविता या उपन्यास तैयार। ये खाँदागत और रेसिपीग्रस्त लेखन एक तरह का कृत्रिम लेखन है। ये कोई अगरबत्ती बनाने जैसा कुटीर-उधोग भी नहीं है। इसलिए ही लेखन साहस नहीं बल्कि दुस्साहस का काम है। एक स्चनाकार के स्वप्न में ये दुस्साहस भी होना जरूरी है। आम जनता के जीवन में काँटे की तरह धंस कर ही कोई कालजयी रचना का स्वप्र रचनाकार पाल सकता है।

नब्बे के दशक के शुरुआती दौर में अच्छी पत्रिका में छपना एक स्वप्न हु‌आ करता था। अब 2025 आते-आते यह लिखना एक स्वप्न जैसा लगने लगा है। ये बात सब पर या कहूँ कि मुझ पर लागू है तो क्या ये स्वप्न-भंग का दौर है? इसे ठीक से पड़‌ताल करने की महती आवश्यकता है कि हम एक मोहक स्थान से स्वप्न-भंग तक पहुँचे कैसे?

सत्ता की मलाई के लोभ लालच में?
आज की सत्ता के आतंक से?
या अपनी ही स्वप्नों की खुद गढ़ी हुई आत्ममुग्धता की अपनी छवि के कारण?

आज वक्त इतनी तेजी से बदल रहा है कि अपनी छाया ही आपसे कतराने लगी है। मैंने 80 के दशक में लेखन की बाकायदा शुरुआत की थी तो मैं सोचता था कि मेरी कहानी पढ़‌कर लोग सोचने पर मजबूर होंगे, कुछ तो बदलेंगे ! मगर अब देखता हूँ, तो पाता हूं कि ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ। कुछ भी तो नहीं बदला। बल्कि सच्चाई और विकृत बन मुझसे रूबरू है। क्या मुझे इस विदूषक और विकृत वक्त से डर जाना चाहिये और बतौर रचनाकार मैं अपने देखे हुए स्वप्न को मार डालूं?

कतई नहीं…

मैंने बतौर रचनाकार एक स्वप्न देखा है तो मैं हरगिज ऐसा न करूंगा। मैं चाहता हूँ कि मेरा लेखन उन असंख्य
आंखों में एक स्वप्न बनकर समा जाए, जिनके लिए मैं लिखता हूँ। मेरा स्वप्न है कि मैं सिर्फ लिखने के लिए ही ना लिखूँ। पंजाबी के प्रसिद्ध कवि पाश की भाषा में कहूँ तो मैं अपनी आँखों के स्वप्न को कभी मरते हुए नहीं देखना चाहता।

चरण सिंह पथिक
चरण सिंह पथिक
जन्म: मार्च, 1964, राँसी, करौली (राजस्थान) में। सृजन: सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी प्रकाशित। बाल कहानियां भी प्रकाशित। पांच कहानी संग्रह प्रकाशित। अंग्रेजी-उर्दू भाषा में कहानियों का अनुवाद। कहानी 'दो बहनें' पर विशाल भारद्वाज द्वारा फिल्म 'पटाखा' और गजेंद्र एस ओत्रिय द्वारा कहानी 'कसाई' पर फ़िल्म का निर्माण। कुछ अन्य कहानियों पर फ़िल्मों का निर्माण जारी। सम्मान : 'बक्खड़' कहानी के लिए 1998 में 'नवज्योति कथा सम्मान', राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक पुरस्कार 2009, रांगेय राघव पुरस्कार 2012, अनुराग साहित्य सम्मान 2012, कलमकार मंच निर्णायक सम्मान 2018, पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी कथा सम्मान 2018
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