नई दिल्ली: उत्तर-पूर्वी दिल्ली में 2020 में हुए दंगे से जुड़े मामले में हाईकोर्ट का मंगलवार अहम फैसला आया था। कोर्ट ने यूएपीए के तहत आरोपी तस्लीम अहमद की जमानत याचिका खारिज कर दी थी। तस्लीम ने ट्रायल में देरी को आधार बनाते हुए कोर्ट में जमानत की अर्जी दायर की थी। हालांकि कोर्ट ने जमानत नहीं दी। अदालत ने अपने तस्लीम को क्यों जमानत नहीं दी और क्या कहा, आइए जानते हैं।
जस्टिस सुब्रमणियम प्रसाद और हरीश वैद्यनाथन शंकर की खंडपीठ मामले की सुनवाई की। अदालत ने कहा कि इस देरी के लिए पुलिस या अदालत नहीं, बल्कि खुद आरोपी जिम्मेदार हैं। अदालत ने निचली अदालत के रिकॉर्ड्स की जांच की और पाया कि आरोपों पर बहस को बार-बार आरोपी के कहने पर ही टाला गया था। कोर्ट ने यह भी कहा कि इसके लिए कुछ सह-आरोपी भी जिम्मेदार हैं जिनमें छात्र एक्टिविस्ट देवंगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा शामिल हैं। कोर्ट ने कहा कि इन्होंने भी कार्यवाही में देरी की, जिसका खामियाजा उन लोगों को भुगतना पड़ा जो हिरासत में हैं।
कोर्ट ने मामले में 37 पन्नों के अपने आदेश में कहा कि तेजी से सुनवाई एक मौलिक अधिकार है। लेकिन जब आरोपी खुद ही देरी कर रहे हों, तो जमानत मांगना स्वीकार्य नहीं है। कोर्ट ने साफ कहा कि अगर ऐसा हुआ तो यूएपीए जैसे सख्त कानून को आसानी से कमजोर किया जा सकता है। अदालत ने कहा कि सिर्फ लंबी कैद को ही जमानत का एकमात्र आधार नहीं माना जा सकता, खासकर यूएपीए जैसे सख्त कानून के तहत।
क्यों खारिज हुई जमानत याचिका?
तस्लीम ने अपनी जमानत याचिका में तर्क दिया था कि बिना किसी खास प्रगति के पाँच साल तक न्यायिक हिरासत में रहना उनके संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन है। उसके वकील ने सुप्रीम कोर्ट के केए नजीब के फैसले का हवाला दिया था, जिसमें यूएपीए के तहत लंबी हिरासत वाले मामलों में जमानत दी गई थी। हालांकि, हाई कोर्ट ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा कि नजीब मामले का नियम वहाँ लागू नहीं होता, जहाँ देरी खुद आरोपी द्वारा की गई हो।
कोर्ट के रिकॉर्ड्स से पता चला कि आरोपों पर बहस को बार-बार टाला गया था और निचली अदालत ने भी इस देरी पर अपनी परेशानी जाहिर की थी।
यूएपीए की धारा 43डी(5) के तहत, अगर आरोप “प्रथम दृष्टया सही” पाए जाते हैं, तो जमानत नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने दोहराया कि इस नियम के कारण जमानत एक अपवाद बन जाती है, न कि एक अधिकार। कोर्ट ने कहा कि मामले की गंभीरता को देखे बिना, सिर्फ लंबी कैद जमानत के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।
गौरतलब है कि तस्लीम अहमद को 19 जून, 2020 को गिरफ्तार किया गया था। दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल का आरोप है कि 2020 के दंगे एक गहरी साजिश का हिस्सा थे, जिसे दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) पारित होने के बाद रचा गया था। पुलिस का दावा है कि मुस्लिम-बहुल इलाकों में 23 विरोध प्रदर्शन स्थल बनाए गए थे ताकि सड़कों को अवरुद्ध किया जा सके और भीड़ को उकसाया जा सके, जिससे फरवरी 2020 में हिंसा भड़की, जिसमें 53 लोगों की जान चली गई थी।
तस्लीम अहमद पर यूएपीए के अलावा भारतीय दंड संहिता (IPC), आर्म्स एक्ट और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने वाले कानून के तहत भी आरोप हैं। कोर्ट ने इस मामले में जगतर सिंह जोहल बनाम एनआईए और नईम अहमद खान बनाम राष्ट्रीय जाँच एजेंसी जैसे फैसलों का भी हवाला दिया, जिनमें कहा गया था कि आतंकवाद और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों जैसे गंभीर अपराधों में सिर्फ लंबी हिरासत जमानत का आधार नहीं हो सकती।
गौरतलब है कि इसी दिन हाई कोर्ट ने दिल्ली दंगों की साजिश के मामले में शरजील इमाम, उमर खालिद और सात अन्य आरोपियों की भी जमानत याचिकाएं खारिज कर दी थी।