दिल्ली विधानसभा चुनाव में 70 में से 48 सीटें जीतकर भारतीय जनता पार्टी 26 साल से ज़्यादा समय के बाद राजधानी में सरकार बनाने में कामयाब हो गई। दिल्ली विधानसभा चुनावों ने राजधानी के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया है, जिसे समझने में लोगों की दिलचस्पी बढ़ती जा रही है। यह दिलचस्पी कई कारणों से है। पहला कारण यह है कि एक वैकल्पिक राजनीति को जन्म देने वाली पार्टी का इतना बुरा हश्र कैसे हुआ। दूसरा, भाजपा, जो अपने स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में भी पहले दो प्रयासों में असफल रही थी, आखिरकार तीसरे प्रयास में कैसे सफल हुई। तीसरा, कांग्रेस लगातार तीसरी बार असफल क्यों रही? इन तीन कारणों के माध्यम से दिल्ली चुनावों को समझने का प्रयास किया जा सकता है।
जिस आम आदमी पार्टी ने एक वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत की थी, जिसमें साधारण और छोटा आदमी शामिल था—जो ‘आम आदमी’ की तरह कपड़े पहनना और व्यवहार करना पसंद करता था—और उन तबकों के मुद्दों की आवाज़ बना, जिनकी आवाज़ आमतौर पर सुनी नहीं जाती, उसे इसका फायदा भी मिला। लेकिन धीरे-धीरे वह पार्टी अपने निजी स्वार्थ का उपकरण बनने लगी। उन्होंने खुद को एक नए तरह के राजनीतिक नेता के रूप में प्रस्तुत किया, जो भारत को एक सनकी और भ्रष्ट राजनीतिक संस्कृति से बचा सकता था। लेकिन जल्द ही, दिल्ली की बसों के पीछे और पूरे शहर में लगे होर्डिंग्स पर उनके बड़े और चमकीले रंगों में चित्रित फोटो दिखाई देने लगे, जो उनके बदलते राजनीतिक चरित्र को दर्शाने लगे। उन पर और उनकी पार्टी के प्रमुख नेताओं पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें और उनके सभी प्रमुख नेताओं को जेल जाना पड़ा। इस घटना ने उनकी छवि को गहरा नुकसान पहुंचाया। विरोधी पार्टियों ने इस मुद्दों को गंभीरता से उठाया, बल्कि उनके द्वारा किए गए सुशासन और क़ाबिलों के सलाहकारों पर भी सवाल उठाए।
लगातार हो रही कानूनी कार्रवाईयां, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की जांच से जनता के मन में यह धारणा बनी कि पार्टी भ्रष्टाचार में गहराई तक धंसी हुई है। इसके अलावा, पार्टी के भीतर भी असंतोष बढ़ता गया, क्योंकि नेताओं की गिरफ़्तारी और जांच के कारण पार्टी के अंदर विरोध के स्वर तेज हो रहे थे। मीडिया ने भी इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया, जिससे पार्टी के ख़िलाफ़ नकारात्मक, तानाशाही रवैये वाली छवि बन गई। इन सभी घटनाओं का सीधा असर जनता की मनोस्थिति पर पड़ा, जिससे वे “आप” से दूर होते गए और एक वैकल्पिक नेतृत्व की तलाश करने लगे। बीजेपी ने इस स्थिति का पूरा लाभ उठाया और यह सिद्ध करने में सफल रही कि “आप” एक बेकार और अक्षम पार्टी है।
अरविंद केजरीवाल की बड़ी गलती
अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती यह रही कि उन्होंने अपनी पार्टी को एक गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) की मानसिकता से बाहर निकालने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की। उन्होंने आम आदमी पार्टी को एक पूर्ण राजनीतिक दल के रूप में विकसित नहीं होने दिया, जिससे यह एक मजबूत संगठन बनने में विफल रही। किसी भी सफल राजनीतिक दल के लिए आंतरिक लोकतंत्र और संस्थागत विकास आवश्यक होते हैं, लेकिन आप में इन मूलभूत सिद्धांतों की अनदेखी की गई। आप में शुरू से ही एक केंद्रीयकृत नेतृत्व देखने को मिला, जहां केजरीवाल का निर्णय अंतिम और सर्वमान्य माना गया। पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर दिया गया, जिससे असहमति के लिए कोई जगह नहीं बची। राजनीतिक दलों में विचार-विमर्श और आंतरिक बहसें स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी होती हैं, लेकिन आप में यह प्रक्रिया धीरे-धीरे समाप्त हो गई। नतीजतन, पार्टी में व्यक्तिगत विचार रखने वाले नेताओं को दरकिनार कर दिया गया, जिससे संगठन में एकतरफा निर्णय लेने की प्रवृत्ति बढ़ गई।
केजरीवाल अब दिल्ली की जनता को आत्मसुधार का यकीन नहीं दिला पाएंगे। भाजपा और कांग्रेस के अलावा तीसरे विकल्प की राजनीति फिलहाल हाशिए पर जा चुकी है। वाम-समाजवादी राजनीति के पतन के बीच केजरीवाल की विफलता एक दुखद प्रसंग है, लेकिन इसके लिए वही जिम्मेदार हैं। जनता के भरोसे के बावजूद उन्होंने छल किया। एनजीओ की कार्यशैली किसी दल को मजबूत कर सकती है, लेकिन एक वास्तविक राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए विचार और संगठनात्मक विवेक जरूरी होता है, जिसकी कमी ने आप को कमजोर कर दिया।
नरेंद्र मोदी की भाजपा की रणनीति
भाजपा ने केंद्र सरकार की कल्याणकारी योजनाओं—जैसे मुफ्त राशन, उज्ज्वला योजना, और आयुष्मान भारत—को दिल्ली के मतदाताओं तक प्रभावी ढंग से पहुंचाया, जिससे जनता में उसकी स्वीकार्यता बढ़ी। इसके अलावा, भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दों को भी प्रमुखता से उठाया, जिससे पार्टी ने अपने पारंपरिक वोटबैंक को बनाए रखने के साथ-साथ नए मतदाताओं को भी आकर्षित किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने आक्रामक प्रचार अभियान चलाया, जिसमें उन्होंने आप सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करते हुए भाजपा के विकास एजेंडे को प्रस्तुत किया।
जातिगत समीकरणों को साधना भी दिल्ली चुनाव में भाजपा की जीत का एक प्रमुख कारण बना। भाजपा ने गैर-जाटव दलित समुदायों—जैसे वाल्मीकि, पासी और धोबी—में अपनी पैठ मजबूत की, जो परंपरागत रूप से बसपा और आप के समर्थन में रहे थे। इसी तरह, पंजाबी हिंदू और बनिया समुदाय, जो कुछ वर्षों से आप की ओर झुके थे, भ्रष्टाचार और कानून-व्यवस्था के मुद्दों के कारण भाजपा के समर्थन में आ गए। बाहरी दिल्ली में प्रभावशाली जाट और गुर्जर समुदायों के बीच भाजपा ने किसान आंदोलन के बाद नए सिरे से काम किया, जबकि ब्राह्मण, राजपूत और वैश्य मतदाताओं को हिंदुत्व और मंदिर समितियों के माध्यम से अपने पक्ष में किया।
इसके अलावा, भाजपा ने अग्रवाल महासभा, यादव समाज, वाल्मीकि संघ जैसे जातिगत संगठनों और धार्मिक समितियों से घनिष्ठ संबंध बनाए, जिससे पार्टी ने न सिर्फ आप के सामाजिक आधार को कमजोर किया बल्कि उन इलाकों में भी अपनी पकड़ मजबूत कर ली, जहां पहले उसका प्रभाव सीमित था। इन सभी कारकों के संयोजन ने भाजपा को तीसरे प्रयास में दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दिल्ली में कांग्रेस की लगातार तीसरी हार ने उसके संगठनात्मक पतन, नेतृत्व संकट और जातिगत समीकरणों में पकड़ खोने को उजागर कर दिया है। कभी राष्ट्रीय राजधानी की राजनीति पर राज करने वाली पार्टी आज पूरी तरह हाशिए पर नजर आ रही है। शीला दीक्षित के बाद कांग्रेस के पास कोई ऐसा लोकप्रिय चेहरा नहीं बचा, जो जनता के बीच भरोसा जगा सके। पार्टी का जमीनी संगठन लगभग खत्म हो चुका है, कार्यकर्ता निष्क्रिय हो गए हैं, और मतदाता आधार तेजी से खिसक चुका है।
आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक (दलित, मुस्लिम और गरीब) पर पूरी तरह कब्जा कर लिया, जबकि भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे के जरिए अपनी स्थिति मजबूत कर ली। जातिगत समीकरणों की बात करें तो कांग्रेस पहले पंजाबी हिंदू, वैश्य और ओबीसी वर्गों में मजबूत थी, लेकिन भाजपा ने इन समुदायों को अपने पाले में कर लिया। वहीं, वाल्मीकि, पासी और अन्य गैर-जाटव दलित समुदाय जो कभी कांग्रेस का कोर वोटर हुआ करते थे, अब या तो आप के साथ चले गए या भाजपा की राजनीति से प्रभावित हो गए। बाहरी दिल्ली में प्रभावशाली जाट और गुर्जर मतदाता, जो कभी कांग्रेस को समर्थन देते थे, अब भाजपा के साथ मजबूती से खड़े हैं। इस ध्रुवीकरण के बीच कांग्रेस न तो आक्रामक प्रचार कर पाई और न ही कोई ठोस चुनावी रणनीति बना सकी। पार्टी की नीतिगत अस्पष्टता, जातिगत गठजोड़ की विफलता और निष्क्रियता ने उसे पूरी तरह अप्रासंगिक बना दिया।