Friday, October 10, 2025
Homeविचार-विमर्शकातते-बुनतेः ‘रूह-अफजा’ के शिल्‍प में विकृतों का नाच

कातते-बुनतेः ‘रूह-अफजा’ के शिल्‍प में विकृतों का नाच

इधर बीच हफ्ते भर से कुछ अलहदा किस्‍म की मसरूफ़ि‍यात रही, तो ख़बरों की दुनिया, रिसालों और सोशल मीडिया पर शाया बकवाद पर ध्‍यान कम गया। गोकि एक तस्‍वीर लगातार यहां-वहां वर्चुअल फ़िज़ा में तैरती हुई निगाहों से ज़रूर गुज़री- लाल बोतल वाले रूह-अफ़ज़ा शरबत की। तस्‍वीर के साथ एक सेकुलर ब्राह्मण ने लिखा कि उन्‍हें डायबिटीज़ है, लेकिन दोस्‍तों के लिए उन्‍होंने घर में बोतल मंगवा रखी है। किसी दूसरे सेकुलर ब्राह्मण को उन्‍होंने एक बोतल पार्सल भेजने की पेशकश भी की। तीसरे सेकुलर बनिये ने तस्‍वीर के साथ लंबी-सी तक़रीर मारी थी जिसमें एक चौथे कम्‍यूनल बनिये की ऐसी-तैसी कर दी थी जिसके ऊपर रूह-अफ़ज़ा को बदनाम करने की तोहमत है। तर्ज़ ये कि एक कम्‍यूनल बनिये के एक बयान ने समाज के दो हिस्‍से कर दिए हैं- एक रूह-अफ़ज़ा पीने वाले, दूसरा उसे जीने वाले।   

अपन दोनों में नहीं आते, फिर भी मानते हैं कि रूह-अफ़ज़ा को बदनाम करना सरासर गलत बात है। क्‍या ही खूबसूरत तो नाम है। पक्‍का किसी शायर ने रखा होगा। मुझे भी लाला की यह बात दिल पर लगी थी, तभी तो मैंने सनक में ऊपर का पूरा पैरा अपनी सारी कुव्‍वत समेट कर मय-नुक्‍ता उर्दू में लिख मारा। माफ़ी, कि मेरे हिंदुस्‍तानी सेकुलरिज्‍म की चादर इतनी ही लंबी है, इसलिए इससे आगे हिंदी में ही लिखूंगा। और टिपिकल हिंदीवालों की तरह विशुद्ध शिल्‍प पर लिखूंगा, कथ्‍य बनाम शिल्‍प की जालसाज़ बहस में नहीं पड़ूंगा।  

रूह-अफ़ज़ा… सुनने में ही रस दे देता है। पीने की जरूरत ही नहीं। परवीन शाकिर याद आ गईं- ‘’उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा / रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की’’। ऐसा वाकई होता है। जलती हुई पेशानी तो लक्षण है। भीतर कैंसर भी हो सकता है। पर शायर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पेशानी यानी माथे पर हाथ रखते ही मरीज की रूह-अफ़ज़ाई हो जाती है और आदमी मसीहा बन जाता है। आदमी के मसीहा बनने और मरीज की रूह तक उसकी तासीर पहुंचने के बीच असल बीमारी की पहचान का सवाल किस खूबसूरती के साथ शायरा ने गुम कर दिया है, ऐसा विकट शिल्‍प हिंदीवाले रूह-अफ़ज़ा पीकर भी नहीं रच सकते। जो शिल्‍प में कमजोर होते हैं वही कथ्‍य को हर जगह बेवजह घुसेड़ते फिरते हैं। 

रूह-अफ़ज़ा मने दिल को राहत पहुंचाने वाला, दिल को हौसला देने वाला, रूह को जगाने वाला, आत्‍मा को ठंडक देने वाला, दिल को खुश रखने वाला, चाहे जो मान लीजिए। पीने के बाद अपने-अपने अहसास का मामला है कि आप कैसे इस सुंदर शब्‍द का अनुवाद करते हैं। अहसास के अनुवाद में हालांकि कभी-कभार सौंदर्य का ह्रास हो जाता है। एक बार एक भरी महफिल में मैंने किशोर कुमार का एक दुख भरा नगमा गाया। वहां बैठे एक सज्‍जन को नगमा कुछ ज्‍यादा ही छू गया। उन्‍हें जो अहसास हुआ उसे कहे बगैर ही वे चाहे तो रह सकते थे, लेकिन अपनी सीमित शब्‍दावली में उन्‍होंने उसका अनुवाद करने की ठानी। दूसरों की तालियां खत्‍म होने पर वे बोले, ‘’गुरू, एकदम अइसा लगा जइसे फरसा मार दिए हों खच्‍च से दिल में। एकदम कतल कर दिए।’’ 

यह विशुद्ध बनारसी प्रसंग है। वहां सच कहने के लिए शिल्‍प पर ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया जाता, इसलिए बात फरसाऔर कतलजैसे कड़े शब्‍दों के प्रयोग के बावजूद थोड़ी ज्‍यादा ऑथेन्टिक बन पड़ती है। दिल्‍ली सूरज की पत्‍नी छाया का शहर है। यहां सच बोलने में शिल्‍प की कोताही बरतनी होती है। सुख हो चाहे दुख, उसके ऊपर थोड़ा मुलम्‍मा चढ़ाना होता है। छाया के दो बच्‍चे हुए थे यम और यमुना। जिस शहर पर छाया का राज हो, जहां से यमुना बहती हो, वहां सच्‍चाई के हाथों जान बचाने के लिए छायाओं की ओट लेना लाजिमी है। इसीलिए गालिब कह गए थे- ‘’…दिल के खुश रखने को गालिब ये खयाल अच्‍छा है…।‘’ मने, अकेले परवीन शाकिर ही नहीं, गए जमाने में हुए गालिब भी हकीकत के ऊपर रूह-अफ़ज़ाई का मर्म समझते थे। 

प्रसंगवश, आप दिल्‍ली के टिपिकल लोगों को (ऐसी आबादी अब कम बच रही है) ध्‍यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उन्‍हें किसी की मौत पर वैसा बोक्‍काफाड़ दुख नहीं होता, जैसा देश की बाकी जगहों पर लोगों को होता है। इस शहर पर चूंकि मौत की छाया हैयह शहर उजड़ चुकी कई दिल्लियों और जल चुके एक खाण्‍डव-वन के ऊपर सदियों से पोते-जमाये गए लाभ-लोभ का एक महाकाय लेप हैतो यहां के लोग काले कपड़े पहनकर मौत में भी जीवन का उत्‍सवमनाते हैं। यह उनकी मजबूरी है। यह जीवन का उत्‍सव न केवल मौत और जिंदगी की तल्‍ख हकीकत से आंख चुराने का एक बहाना है, बल्कि वास्‍तविक जीवन की निरंतरता का एक सैडिस्‍टनकार भी है। बीत चुके जीवन के उत्‍सव और चालू जीवन के नकार से मिलकर बना यह शरबत मौत के शहर का पसंदीदा रूह-अफ़ज़ा है, जो प्राय: लाल रंग में आता है। 

मेरे प्रिय दार्शनिक जिजेक लाल रंग से पहचाने जाने वाली सियासी बिरादरी की ऐसी उदार जीवनदृष्टि पर पंद्रहवीं सदी का एक चुटकुला सुनाते हैं। कहानी मंगोलिया की है। एक किसान अपनी बीवी के साथ किसी गांव की ओर जा रहा था। रास्‍ते में राजा के आततायी घुड़सवार सिपाही मिल गए। सिपाहियों के नायक को किसान की बीवी रास आ गई। उसने उसके साथ वहीं संभोग करने की इच्‍छा जाहिर की। संकट यह था कि वह रास्‍ता बहुत धूल भरा था। तो नायक ने किसान को आदेश दिया कि पूरे कार्यक्रम के दौरान किसान को बस एक चीज का ध्‍यान रखना है कि उसके अंडकोष में किसी भी कीमत पर धूल न लगे। किसान राजी हो गया। कार्यक्रम संपन्‍न हुआ। सिपाही चले गए। 

उसके बाद किसान की बीवी भड़क गई और उसे लानत भेजने लगी। किसान उलटा हंसे जा रहा था। बीवी को समझ ही नहीं आ रहा था कि एक तो उसकी इज्‍जत लुट गई है, उस पर से पति हंस रहा है। किसान ने बीवी को समझाया कि मामला यह है कि जब कार्यक्रम जारी था उसी बीच उसने अपने दायित्‍व में जान-बूझ कर लापरवाही कर दी थी जिससे अंडकोष धूल से सन गया था। यह किसान का सिपाही के खिलाफ मौन और गुप्‍त प्रतिशोध था। बीवी की इज्‍जत लुट गई, लेकिन अपने एक छोटे-से अकृत्‍य से किसान की रूह-अफ़ज़ाई हो गई थी। अब वह बीवी की भी रूह-अफ़ज़ाई करने में लगा था। उसे हकीकत से कोई लेनादेना नहीं था। हकीकत का प्रतीकात्‍मक प्रत्‍याख्‍यान उसके सुख का कारण बन गया था। कथ्‍य कहीं और था, शिल्‍प कहीं और, लेकिन शिल्‍प के मद में चूर विषयी कथ्‍य को बिसरा चुका था। 

इस किस्‍से में हालांकि एक बात जो मुझे लगातार खटकती रही है, वो यह कि पूरे प्रकरण में अंतत: किसान का बाल बांका नहीं हुआ। बलात्कार उसका नहीं हुआ था, उसकी बीवी का हुआ था जबकि बलात्‍कारी को गच्‍चा देकर अपनी बीवी को अपने कथित प्रतिशोध से आश्‍वस्‍त कर रहा किसान न सिर्फ आत्‍मतुष्‍ट है बल्कि बीवी के दुख से गाफिल भी है। ऐसी रूह-अफ़ज़ाई का उसकी बीवी क्‍या ही करेगी? जिन अंडकोषों को वास्‍तव में मौका मिलते ही काट दिया जाना था, उन पर बस धूल लगाकर छोड़ दी गई। 

यह कहानी कम समझ आवे तो ज्‍यादा समझने के लिए क्‍लीमेन स्‍लकोंजा का ‘’द परवर्टेड डान्‍सयूट्यूब पर देख लीजिए। बहरहाल, कहने का आशय यह है कि शिल्‍प, प्रतीक, बिम्‍ब, आदि राह में पड़ी वह धूल है जो वांछित और अनिवार्य कथ्‍य को एकदम से गौण बना देती है और केवल कवि या उस जैसे ‘’परवर्ट’’ यानी विकृत लोगों की रूह-अफ़ज़ाई करती है। ऐसे विकृतों के नंगे नाच की कीमत जिसे चुकानी पड़ती है उससे शिल्‍प का भाव पूछो, रूह-अफ़ज़ा का असल स्‍वाद पूछो। जैसा धूमि‍ल कहते हैं, ‘’लोहे का स्‍वाद… उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है।‘’ 

अब संकट यह है कि घोड़ा तो कुछ बोल नहीं सकता जबकि दूसरी प्रजाति से आने वाला घुड़सवार उसके बदले संक्रामक ढंग से ‘’आह, वाह’’ कर के नाचे जा रहा है।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments

मनोज मोहन on कहानीः याद 
प्रकाश on कहानीः याद 
योगेंद्र आहूजा on कहानीः याद 
प्रज्ञा विश्नोई on कहानीः याद 
डॉ उर्वशी on एक जासूसी कथा