Thursday, October 9, 2025
Homeकला-संस्कृतिपुस्तक समीक्षा: गहन है यह अंधकारा

पुस्तक समीक्षा: गहन है यह अंधकारा

मनोज कुमार पांडेय अपने समय की विसंगतियों को लिखने-रचने वाले एक विशिष्ट कथाकार हैं। उनकी कहानियां दिमाग में अपनी जगह बना लेने वाली कहानियां हैं। उनमें क्षमता है कि वह आपकी स्मृति में अपना स्थान बना लेने के क्रम में आपके दिमाग में पहले से उस भरे को बाहर कर दें जिसे बाहर करने में आप स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। यहां उनके नवीनतम कहानी संग्रह पर बात कर रहे हैं पवन करण

कहानियाँ अब भी असर करती हैं बस उन्हें नई और अनोखी और अविश्वसनीय होना चाहिए। लोग अविश्वसनीय कहानियों पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं-

यह मेरी स्मृति का दोष है कि मैनें मनोज कुमार पांडेय की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ी ही होंगी और अब मेरी स्मृति में उनकी कविताओं की स्मृति नहीं। जीवन बहुत तेजी से भागता है। स्मृति में दर्ज और ख़ारिज होने तथा पकड़ने और छूटने का खेल चलता रहता है। वैसे भी यह सामूहिक दोष है कि समकालीन कविताएं, छंद-विहीनता और लगातार दोहराये जाते रहने के अभाव में स्मृति में आद्योपांत बनीं-बचीं नहीं रहतीं। मगर इससे छंदमुक्त कविता की आवश्यकता और महत्त्व कम नहीं हो जाता।

स्मृति में बने रहना कविता की विषयवस्तु पर निर्भर करता है न कि उसके छंद में होने और दोहराये जाने की वजह से। अन्यथा अब तक लिखी गई असंख्य कविताएं छंद में होने के बावजूद अपनी अप्रभावी विषयवस्तु और दोहराव के अभाव में स्मृति में कहीं नहीं। यह भी है कि दोहराये जाने के अभाव में तो विषय-संपन्न छंद मुक्त कविताएं भी स्मृति में नहीं। रटा जाना, दोहराया जाना, गाया जाना एक प्रविधि है न कि कविता। उसे कविता की तरह नहीं देखा जा सकता। संभवतया समकालीन कविता की साख और उसकी उपस्थिति उसकी विषयवस्तु में बसती है न कि उसके रटे और दोहराये जाने में। चूकि मनोज कुमार पांडेय कवि भी हैं तो बात कविता से होकर कहानी तक। वैसे भी मनोज प्रतिरूप की अपनी छोटी कहानियों में कविता लिखते हैं और बड़ी कहानियों में कहानी। फंतासी और तंज उनके भीतर के लेखक का सबसे समृद्ध और नवसृजित-नवकल्पित स्थायी भाव है।

तब यह निश्चित है कि उनकी कविताओं को पढ़कर भी मैं उसी तरह हिलने-डुलने लगा होउंगा, जैसे उनके कहानी संग्रह ‘प्रतिरूप’ की कहानियों को पढ़कर मैं चलने-फिरने लगा। मुझे अपने बचपन की याद है। अधिकतर को होगी। बाइस्कोप आता था। हम उसमें अपनी आंखे गड़ाकर भारत दर्शन करते थे। ताजमहल, लाल किला, कुतुबमीनार, हावड़ाब्रिज आदि उसमें सब होता था। मनोज कुमार पांडेय की कहानियां भी बाइस्कोप के भारत दर्शन की तरह हैं। अंतर बस इतना है कि उनमें तबके दिखाए जाते भारत के प्रमुख प्रतीक नहीं समकालीन भारत की सर्वग्रासी दृश्यमान व्याधियां हैं। जिसका हर कोई हिस्सा है। वे भी जो इसके कारक हैं और वे भी जो इससे प्रभावित हैं। कारक जो भोग लेने को जीवन मानते हैं उन पर और जो सहते रहने को अपनी नियति मानते हैं उन पर बस तरस खाया जा सकता है।

जो इस कहानी संग्रह को पढ़ना प्रारंभ करने वाले हैं मैं उनसे कहूंगा कि वे इसे इस संग्रह को इसकी अंतिम कहानी जो इस संग्रह की शीर्षक कहानी है, से पढ़ना प्रारंभ करे। जो इसे पुन: पढ़ना चाहते हैं उन्हें भी ऐसा करना चाहिये। यह मुझे तब महसूस हुआ जब मैनें इसे पहली कहानी ‘खेल’ से अंतिम कहानी ‘प्रतिरूप’ तक पढ़ डाला। दरअसल मेरे अनुभव में यह संग्रह अपनी अंतिम कहानी प्रतिरूप से पाठक के समक्ष प्रभावी ढंग से खुलता है। क्योंकि वह प्रतिरूप जो फिलहाल समकालीन भारत के क्षरित-समय की तथाकथित उपस्थिति है, पाठक के सामने जन्म ले चुका होता है।

उसका जन्मना हमें वह निगाह देता है जिससे हम भारत के वर्तमान दुर्दिनों के दर्शन करते है। वह ‘झपकी’ उसी निगाह में आती है जिसमें उसका आहार ही उसका शत्रु बन जाता है। मगर कितनी आवश्यक झपकी है यह जिसमें हकीकत अफसाने की तरह उभरती है और देह के भीतर हड्डियों में कंपकंपी बनकर उतर जाती है। नागरिक के तौर पर यह हमारा वर्तमान है जो सिर उठाने की सजा के तौर पर हमारे साथ कहीं भी घटित हो सकता है। बरास्ते कारागार पुलिस चौकियों के रास्ते खुले हैं और न्यायघर ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं। सिहरन पैदा करती व्यंजना है इस कहानी में जिसका शिकार कभी भी कोई भी हो सकता है। तैयार रहिये। गहन है यह अंधकारा।

मेरी कुंदजहनी यह है कि एक नागरिक के तौर पर मैं उस प्रतिरूप के सामने सिर झुकाता, उसकी बात मानता और उससे डरता हूं। उस प्रतिरूप का पहला शिकार मैं हूं और दूसरा वह जिसका वह प्रतिरूप है। जिस तरह प्रतिरूप ने मुझे भयग्रस्त रहने और उसकी आज्ञा मानने का काम दायित्व सौंपा है उसने उसे भी उसकी स्थायी निरंतरता बनाये रखने के लिए चलित रख छोड़ा है। प्रतिरूप के पास हमारीं प्रिय शक्तियां हैं जिन्हें वह भोगता है और हम उसे देखकर संतुष्ट होते हैं। हम मानते हैं और सामूहिक रूप से सार्वजनिक तौर पर मानते हैं कि जब वह इतना है तो उतना तो करेगा ही। वह असाधारण है इसीलिए वह हमारे हाड़तोड़ हासिल का स्वामी है। वह लायक है इसीलिए हमारी अर्जित शक्ति पर उसका एकाधिकार है। वह हमारे मन का मालिक है इसीलिए उसमें हमारे साथ मनमानी करने का हौसला है। हमारी प्राचीनतम निरंतरता का रक्षक वह हमारी पहचान का एकमात्र पोषक है। दाता, प्रदाता वह अविकल्प है। उसे अपनी बाहों में भरकर ‘सपना’ देखने और अपने मूल को मात्र ‘मुंगेरी’ साबित कर देने का अधिकार है।

मुझे उम्मीद है प्रतिरूप कहानी पर मेरा यह वाक्यांश मेरी तरह मनोज कुमार पांडेय के इस कहानी संग्रह को अपनाने में आपकी एक और मदद करेगा। ठीक उसी तरह जैसे उनकी कहानी ‘क्या पता बच ही जाऊं’ का नायक उस उम्मीद की मदद करता है ‘जिसमें सब खत्म नहीं हुआ है’ का भाव शामिल है। मृत्यु के मुहाने पर पहुंचकर भी उसकी उम्मीद कहने-लड़ने-लिखने वालों के बीच आग से तिलंगे की तरह उचटती है। आग कभी न बुझने वाली शै है। यदि आग का सुभाव बुझने का होता तो वह कबकी मिट चुकी होती। आवाज ने जन्म ही इसलिए लिया है कि उसका उठना कभी बंद न हो। भाषा इसीलिये पैदा हुई है कि उसमें कहा और लिखा जा सके।

यह भाषा की समावेशिता है कि जेबकतरा उसमें अपना बयान दर्ज करता है। बात करते हुए वह कितना सहज और मार्मिक है उससे उसी की नामधारी कहानी में बात की जा सकती है। यह मुझ पाठक की फंतासी है कि क्या कभी कोई आततायी-अपराधी-हत्यारा भी उसकी तरह सोचेगा। क्या वह बतायेगा कि मात्र इस वजह से मैने उसकी हत्या नहीं होने दी कि उससे ज्यादा उसके हंसते हुए सफेद दांत मुझे पसंद थे। मेरी आंखों में खिलखिलाते हुए ऐसे सैकड़ो दांतों की स्मृति मौजूद हैं। (हालाकि स्मृति टोकती है मैनें ऐसा कहीं कुछ देखा और पढ़ा जरूर है…मगर) बाबजूद इसके मेरे दातों में मानव-मांस फंसकर रह गया है और लाख मांजने के बावजूद मेरे दांतों पर लगा खून कभी छूटता ही नहीं।

तब “उसी के पास जाओ जिसके कुत्ते हैं” के क्षोभ भरे अंत जैसी कहानी के लेखक मनोज कुमार पांडेय की कथा-कल्पना की ‘तितलियां’ क्या रुख अख्तियार करेंगीं ? तितलियां ‘झोले’ की तरह शानदार कहानी है। क्या तिलमिलाहट से भरा झोला है और उसमें क्या-क्या भरा। जो बाहर निकल-निकल आता है। जिंदगी की तरह जिससे पीछा छुड़ाना आसान नहीं। हमारी स्मृति भी हमारे भीतर झोले की तरह काम करती है। अपने भीतर कितना कुछ भरे। कुछ ढूंढों, वह खुद अपने भीतर से ढूंढ़कर हमें थमा देती है। हमारे कहने पर ख़ुद को कितना उलट-पलट करती है वह। थक जाती है तो अपना सिर पकड़कर बैठ जाती है। उसके थक जाने को शायद हम अपना भूलना कहते हैं।

संग्रह की पहली कहानी और मेरे मतानुसार पीछे से पढ़ें तो अंतिम कहानी ‘खेल’ में पिता-पुत्र के बीच का रिश्ता गजब है। दोनों के बीच की भोगौलिक-सामाजिक दृश्यता है। चूहे हैं, कॉकरोच हैं, घर के पीछे बहता नाला है, छत है, परचून की दुकान है और प्रेमिका है। मगर सबसे कल्पनाशील तो वह डायरी है जिसमें छुपी हुई भाषा में, भाषा को छुपाकर गणेश ख़ुद को दर्ज करता और हर बार पकड़ा जाता है। पिता का अपनी पत्नी के मायके जाते और मां को अपने पति की ससुराल जाते देखना गणेश जैसे हो जाते मुझ पाठक के मन में वैसे ही गुदगुद करता है जैसे घर की दीवारों पर टंगी घड़ियों में अलग-अलग समय और केलेंडरों में अलग-अलग महीने और बाप को उसके नाम से पुकारता बेटा।

मगर इलाहाबादी डाकिया है कि ‘पैर’ कहानी में प्रेमिका के पैरों को पुचकारते लेखक को बचाने सामने आ खड़ा होता है। मगर लेखक इस सच को स्वीकारने से बच नही सकता कि दरअसल वह डाकिया कोई और नहीं वह खुद है। अपनी निगाह से चेहरों को बांचता। घटनाओं को बांधकर एक तरफ पटकता। दृश्यों के आरपार देखने की कोशिश करता। सूखते जाने की निरंतरता में नम होता हुआ। मैं एक पाठक भी इस क्रम में उनकी कहानियों का डाकिया हुआ। मुझे अपनी पढ़ी-अनपढ़ीं किताबें चिट्ठियों की तरह लगने लगीं। जैसे घर के हर हिस्से में रखे पुस्तकों जैसे पोस्टकार्ड।

मनोज कुमार पांडेय की कहानियां दिमाग में अपनी जगह बना लेने वाली कहानियां हैं। उनमें क्षमता है कि वह आपकी स्मृति में अपना स्थान बना लेने के क्रम में आपके दिमाग में पहले से उस भरे को बाहर कर दें जिसे बाहर करने में आप स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। इन कहानियों को पाठक की साफ दृष्टि चाहिए नहीं हो तो उसे आंख का जाला साफ करना आता है। प्रतिरूप की कहानियां इसमें माहिर है। भारत को ऐसी कविताओं-कहानियों की कितनी जरूरत है। यह आप इस संग्रह की कहानियों को पढ़कर जान सकते हैं।

कुछ पंक्तियां कहानियों में जिनसे आपकी मुलाकात होगी-

  • राजनीति में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या मूर्खता है और क्या बुद्धिमानी। फर्क इस बात से पड़ता है कि जनता के बीच क्लिक क्या करता है। वैसे भी आजकल पब्लिक को अक्ल वाली चीजें कहां पसंद आ रही हैं।
  • लिखते हुए चिट्ठी के ऊपर छत पर से पानी की या फिर मेरे पसीने की कुछ बूंदें टपक गईं थीं जिन्हें पाने वाली ने आंसू समझ लिया था शायद।
  • दीमक हैं जिन्होंने घर ही बना लिया है मेरे भीतर। क्या आपने दीमकों का कोई चलता-फिरता घर देखा है।
  • उसकी मुस्कराहट की कोरों से आंसू टपक रहे थे। आंसू की बूंदें इतनी गर्म थीं कि जमीन पर गिरने से पहले ही भाप में बदल जा रही थीं।
  • मालिक के खिलाफ तभी जाओ जब नौकरी छोड़ने का मन हो या कि नौकरी छोड़ने पर नौकरी करने की अपेक्षा ज्यादा फायदा होने वाला हो।
  • एक घूंट पानी ने मुझे उस रेगिस्तानी दुस्वप्न से बाहर निकाल लिया था जिसमें मैं बालू हो जाने वाला था।
  • अभी तक जो आग के फूल मेरे पैरों पर खिले हुए थे वे मेरी हथेली पर खिल गये।
  • उसे लगा कि तस्वीरें जलते हुए चीख रही हैं। उसने खिड़की खोल दी कि धुएं के साथ तस्वीरों की चीखें भी कमरे के बाहर निकल जाएं।
  • लोग धोखा खा जाते हैं। अस्ल बात ये है कि वे धोखा खाते रहना चाहते हैं। वे खुद को बदलना नहीं चाहते।
  • मुम्बई में लोग जब भाग रहे होते तो लगता वह किसी का पीछा कर रहे हैं जबकि दिल्ली की भीड़ इस तरह भागती दिखाई देती जैसे उसका कोई पीछा कर रहा हो।

कहानी संग्रह का नाम – प्रतिरूप
कथाकार का नाम – मनोज कुमार पांडेय
प्रकाशक का नाम – राजकमल प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष – 2024
पुस्तक का मूल्य- 250/-

पवन करण
पवन करण
पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि। उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं। ‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया। उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है। सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन। ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com
RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments

मनोज मोहन on कहानीः याद 
प्रकाश on कहानीः याद 
योगेंद्र आहूजा on कहानीः याद 
प्रज्ञा विश्नोई on कहानीः याद 
डॉ उर्वशी on एक जासूसी कथा