बिहार में विधानसभा चुनाव की तैयारियां तेज हैं। हर दल अपनी साख बचाने में लगा है। जबतक टिकट और सीट की बात फाइनल नहीं हुई है तब तक ‘पार्टी के भीतर पार्टी’ चलती रहेगी।
वहीं पार्टियों के बीच साधे जा रहे सीटों के समीकरण के बीच भारतीय निर्वाचन आयोग ने एसआईआर यानी गहन मतदाता पुनरीक्षण के आंकड़े भी जारी कर दिए हैं। आंकड़ों के मुताबिक़, बिहार में अब 7.42 करोड़ मतदाता हैं।
बिहार में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले चुनाव आयोग ने एसआईआर शुरू किया था। इस पर विपक्षी दलों ने कई सवाल उठाए थे।
अब ऐसा माना जा रहा है कि निर्वाचन आयोग जल्द ही चुनाव के तारीखों की घोषणा करेगा और इसके साथ ही राज्य में आचार संहिता लग जाएगी। गौरतलब है कि बिहार विधानसभा का वर्तमान कार्यकाल 22 नवंबर 2025 को ख़त्म हो रहा है. ऐसे में राज्य में चुनाव नवंबर तक होने हैं।
वैसे बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान ग्राउंड में घूमने वाले हम जैसे लोगों की नजर उन इलाकों पर सबसे अधिक बनी रहती है, जहां की राजनीति गठबंधन और जातीय समीकरण से प्रभावित होती रही है। हमारी निगाह में ऐसे ही इलाकों में सहरसा, सुपौल और मधेपुरा आता है!
कोसी प्रमंडल के इन तीन जिलों में कुल 13 विधानसभा सीटें हैं, जहां यादव, पचपनिया, दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक आदि की गोलबंदी सत्ता का रुख तय करती है।
लालू यादव और फिर राबड़ी देवी के शासन काल में इस इलाके को राष्ट्रीय जनता दल का गढ़ माना जाता था लेकिन आगे चलकर नीतीश कुमार ने इसे अपनी पार्टी जदयू का एक मजबूत किला बना दिया।
कोसी प्रमंडल क्षेत्र के 13 विधानसभा क्षेत्रों में नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक चतुराई से तीन प्रमुख यादव नेताओं को पार्टी की बागडौर थमाई और इन्हीं तीनों के जरिए क्षेत्र में अपनी पार्टी की पकड़ मजबूत की।
बिजेंद्र प्रसाद यादव, जो सुपौल से 1990 से लगातार चुनाव जीतते आए हैं और नीतीश सरकार में ऊर्जा मंत्री हैं इलाके में बिजेंद्र प्रसाद यादव बड़ी राजनीतिक पकड़ रखते हैं।
नरेंद्र नारायण यादव मधेपुरा जिले के आलमनगर से 1995 से लगातार विधायक चुने जाते रहे हैं, कई विभागों में मंत्री रहे और फिलहाल बिहार विधानसभा के उपाध्यक्ष हैं।
इस इलाके के तीसरे मजबूत नेता हैं दिनेश चंद्र यादव, जो फिलहाल मधेपुरा से सांसद हैं। इससे पहले वे सहरसा और खगड़िया से भी सांसद रह चुके हैं और सिमरी बख्तियारपुर से चार बार विधायक रह चुके हैं। माना जा रहा है कि उनकी वजह से सहरसा जिले में जदयू की मजबूत पकड़ बनी रही। इन तीन यादव नेताओं ने कोसी क्षेत्र में नीतीश कुमार की राजनीतिक जड़ें इतनी मजबूत कर दीं कि लालू प्रसाद यादव का पारंपरिक वोट बैंक भी खिसकता चला गया।
2015 में महागठबंधन बना तो राजद-जदयू साथ आए, तब भी नीतीश कुमार ने इस इलाके में अपनी पकड़ बरकरार रखी। 2020 में नीतीश-भाजपा गठजोड़ और वीआइपी की मौजूदगी से इस क्षेत्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा भारी रहा। सुपौल की सभी पांच, सहरसा की चार में से तीन और मधेपुरा की दो सीटें एनडीए के खाते में आईं।
2020 में राजद को महज तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा। अब 2025 में बदलते समीकरण के बीच यहां की राजनीति दिलचस्प मोड़ पर आ गई है।
मधेपुरा जिला की बात करें तो यहां की राजनीति में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव और पप्पू यादव का नाम हमेशा चर्चा में रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से किसी का मूल संबंध मधेपुरा से नहीं रहा, फिर भी इनका राजनीतिक जीवन इस जिले से जुड़ा रहा।
लालू प्रसाद यादव ने ही शरद यादव को मधेपुरा की राजनीति में प्रवेश दिलाया था, लेकिन बाद में दोनों के बीच तल्खी इतनी बढ़ी कि 1999 के लोकसभा चुनाव में शरद यादव ने लालू को हराकर सियासी तूफान ला दिया। पप्पू यादव, जिनकी छवि एक समय बाहुबली नेता की रही, उन्होंने भी यहां अपनी राजनीतिक जमीन बनाई, हालांकि वे अब पूर्णिया से सांसद है। वैसे मधेपुरा में यादव वोटों का स्पष्ट ध्रुवीकरण कभी किसी एक नेता को स्थायी जनाधार नहीं दे सका है।
2025 का चुनाव बेहद दिलचस्प होगा, क्योंकि राजद के सामने कई चुनौतियां हैं। एक ओर पप्पू यादव की सक्रियता से यादव वोटों में सेंधमारी का खतरा है, तो दूसरी ओर जेडीयू और भाजपा मिलकर किसी स्थानीय और प्रभावी यादव चेहरे को उतारते हैं, तो मुकाबला त्रिकोणीय हो सकता है। हालांकि, भाजपा को इस सीट पर आज तक कोई सफलता नहीं मिली है और उसकी राजनीतिक मौजूदगी यहां बेहद सीमित रही है।
जदयू और राजद की राजनीति के बात करते हुए हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि आखिर इस इलाके से भाजपा गायब क्यों है? स्थानीय लोग कहते हैं कि कोसी इलाके की जमीन राजद और जदयू के लिए हमेशा से उपजाऊ रही है जबकि भाजपा के लिए यह आज भी बंजर ही बनी हुई है।
इन सब चुनावी बतकही के बावजूद यह माना जा रहा है कि कोसी प्रमंडल में एनडीए को सत्ता और सीटिंग विधायकों के नेटवर्क का लाभ मिल सकता है। भाजपा और जदयू दोनों का यहां मजबूत संगठन है, जबकि लोजपा एवं हम जैसे सहयोगी दल भी तालमेल में हैं। हालांकि, टिकट बंटवारे में गुटबाजी परेशानी पैदा कर सकती है। वहीं महागठबंधन की स्थिति भी उलझी हुई है। राजद के अंदर गुटबाजी है, कांग्रेस कमजोर है और वीआइपी की एंट्री ने समीकरण और पेचीदा बना दिया है।
सीट शेयरिंग और ग्राउंड में राजनीतिक दलों की स्थिति की कहानी के बीच चार अक्टूबर को मुख्य निर्वाचन आयुक्त पटना आ रहे हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग ने राज्य की राजनीतिक पार्टियों के साथ एक महत्वपूर्ण बैठक बुलाई है। यह बैठक 4 अक्टूबर को आयोजित होगी। मुख्य चुनाव आयुक्त सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ इस उच्च-स्तरीय बैठक की अध्यक्षता करेंगे।
यह बैठक पटना के होटल ताज में निर्धारित की गई है, जिसका समय सुबह 10 बजे से दोपहर 12 बजे तक रहेगा। इस बैठक का उद्देश्य आगामी चुनाव के संबंध में विभिन्न राजनीतिक पक्षों के विचारों को जानना और तैयारियों की समीक्षा करना है। इस महत्वपूर्ण बैठक में राज्य की सभी प्रमुख पार्टियों को आमंत्रित नहीं किया गया है। जिन पार्टियों को बुलावा नहीं मिला है, उनमें मुकेश सहनी की वीआईपी (VIP), उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम (RLM), और जीतनराम मांझी की हम (HAM) पार्टी शामिल हैं।